- गोपेश्वर सिंह
दूरदर्शन पर चल रहे हिंदी धारावाहिक ‘उत्तर रामायण’ की कल रात अंतिम कड़ी देखकर मन अत्यंत भावुक हो गया। अपनी पवित्रता की सफ़ाई देने की जगह सीता ने पृथ्वी से अपने को अपनी गोद में ले लेने की प्रार्थना की, मन हिल गया। सुबह उठते ही वाल्मीकि रामायण का उत्तर कांड देखने लगा कि इस प्रसंग का आदिकवि ने किस प्रकार वर्णन किया है। तुलसीदास ने तो इस प्रसंग को अपनी रामकथा में स्थान ही नहीं दिया।
आदिकवि ने जिस तरह लिखा है, उसी तरह रामानंद सागर ने दिखलाया है। कुश और लव द्वारा अपने को राम की संतान बताने और वाल्मीकि द्वारा सीता को पवित्र कहने के बाद राम ने कहा कि मुझे इनके कहने के बाद कोई संदेह नहीं है, लेकिन जन समाज के सामने विदेह कुमारी की विशुद्धता प्रमाणित हो जाए तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी। इसके बाद सीता को उपस्थित जन समुदाय के सामने विशुद्ध होने की घोषणा करनी थी और राम के साथ अयोध्या के सिंहासन पर आरुढ़ होना था। लेकिन सीता ने सुविधा नहीं सम्मान का रास्ता चुना। स्त्री सम्मान हेतु किये गए इस अंत को पढ़कर मन बहुत रोया, लेकिन आदिकवि की रचनात्मकता के प्रति विनत हो गया।
सीता ने कहा कि राम के सिवा मैंने किसी अन्य पुरुष का चिंतन नहीं किया, यदि यह सत्य है तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में जगह दें! इसके आगे- मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चयें। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति.. (यानी यदि मैं मन, वाणी और क्रिया के द्वारा राम की ही आराधना करती हूँ तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें.)
इसके बाद वर्णन है कि सीता के इस तरह शपथ लेते ही पृथ्वी से एक दिव्य सिंहासन प्रकट हुआ, जिस पर पृथ्वी देवी थीं। उन्होंने दोनों बांहों में सीता को भर लिया और रथ पर बिठा लिया। सीता के भीतर समाते ही राम शोकमग्न हो रोने लगे, पृथ्वी से सीता को लौटाने की प्रार्थना करने लगे कि पाताल हो या स्वर्ग मैं सीता के साथ ही रहूँगा, यदि मेरी सीता नहीं लौटीं तो मैं पृथ्वी का विनाश कर दूंगा, आदि। देवताओं के समझाने पर राम का शोक और क्रोध दूर हुआ। कुछ वर्षों के उपरांत राम परमधाम चले गए यानी उन्होंने भी शरीर-त्याग किया।
मनोवैज्ञानिक पृथ्वी में समाने को या राम के शरीर-त्याग को अवसाद से जोड़कर देखेंगे। लेकिन साहित्यिक दृष्टि से देखें तो यह एक महान ट्रेजडी है। महर्षि वाल्मीकि ने जो अंत किया है वह इसे किसी धार्मिक ग्रंथ के रूप में नहीं, दुनिया की एक महान साहित्यिक कृति के रूप में प्रतिष्ठित करता है। जन-समाज के सामने सीता शपथ लेकर अपने को निर्दोष घोषित कर दें ! राम ने लोकमत को ध्यान में रखते हुए राजधर्म के पालन हेतु इतनी ही तो कामना की थी। सीता के शपथ लेने के बाद कवि वाल्मीकि राम-सीता को सिंहासन पर आरुढ़ करके राम-कथा का सुखद अंत कर सकते थे। लेकिन उनकी सीता के स्त्री-सम्मान को शायद यह पसंद नहीं आया। उन्होंने आत्म-सम्मान का मार्ग चुना। धरती से निकलीं थीं, धरती में समा गयीं। राम ने पृथ्वी से सीता को लौटाने की प्रार्थना की, तब यह भी कहा कि वास्तव में तुम्हीं मेरी सास हो, राजा जनक हाथ में फाल लेकर जब तुम्हें जोत रहे थे, तभी तुम्हारे भीतर से सीता का प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए हे माता, या तो तुम सीता को लौटा दो या अपनी गोद में मुझे भी जगह दो; क्योंकि स्वर्ग हो या पाताल मैं सीता के साथ ही रहूँगा।
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कवि अज्ञेय भी अपने जन्म को सीता से जोड़कर देखते थे। कुशीनगर के पास उनका भी जन्म एक खेत में हुआ था..उनके पिता जब कुशी नगर में पुरातत्व विभाग की ओर से खुदाई करा रहे थे, उनका परिवार टेंट रह रहा था। वहीँ उनका जन्म हुआ। जीवन के उत्तरार्ध में जानकी जीवन यात्रा उन्होंने प्रारंभ की थी। पृथ्वी की सीता में शायद वे अपने को खोज रहे थे ! बहरहाल, यह अलग प्रसंग है।
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आज दिन भर वाल्मीकि रामायण उलटता-पलटता रहा। रामकथा के वाल्मीकि द्वारा प्रस्तुत अंत के बारे में सोचता रहा। आदिकवि द्वारा स्त्री-सम्मान हेतु किये गए अंत और राम द्वारा पृथ्वी के भीतर जाकर सीता के साथ रहने की उद्विग्नता को महसूस करने की कोशिश में डूबा रहा। राम-सीता के जीवन की यह ट्रेजिक-कथा मन को भावुक बनाती रही।
प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह जी की पोस्ट पढ़कर कर्मेंदु शिशिर के सवाल
कुछ जिज्ञासा है कि महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास दलित परिवार से आये। इन दोनों के महाकाव्यों पर ही भारतीय संस्कृति की नींव रखी गई। अनेक क्षेपक कथाओं और तुलसीदास की वर्णवादी दृष्टि के कारण बहुत ही तीखी आलोचना की गई। कोई भी महान् रचना या रचनाकार आलोचना से परे नहीं। आलोचना होनी भी चाहिए। आलोचना युगानुकूल होती भी है। मगर इस आधार पर इसे खारिज करना और इस हद तक खारिज करना कि एक प्रसिद्ध आलोचक मित्र ने कहा कि मैंने अपने घर से कुछ बेकार ग्रंथों को फेंका, जैसे- बंच आफ थाट और रामचरितमानस। मेरे भीतर इस वाक्य का कैसा असर पड़ा, यह तो मैं नहीं बता सकता। मैंने तो इसे उत्तर आधुनिकता के पाठभेद और अर्थ भेद का उदाहरण मान चुप रहना ही उचित समझा।
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हम साहित्य, रचना और कविता को समझते क्या हैं? अरुण कमल कहता है कि जिसे कविता की समझ नहीं, वह कोई साहित्य नहीं समझ सकता। हम साहित्य से चाहते क्या हैं? वह किसी पार्टी के घोषणापत्र से अनुमोदित होना चाहिए? हम यह भी नहीं सोचते कि इन दोनों ग्रंथों का इस देश के जनमानस पर कैसा अमोघ असर है? इस सबसे बेखबर कुछ लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में इसे नहीं दिखाने की याचिका भी दाख़िल की। इसे कैसे समझा जाये मित्रवर!
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