नरेंद्र मोदी का सांसद फंड खत्म करने का फैसला सही है। वैसे यह प्रावधान अभी दो साल के लिए के है, पर स्थायी बन जाये तो बेहतर होगा। ऐसा इसलिए कि सांसद फंड के रहते राजनीति और प्रशासन में शुचिता असंभव है। बिहार में नीतीश कुमार ने विधानमंडल के सदस्यों का फंड खत्म कर उदाहरण भी पेश किया है। इससे काफी हद तक राजनीति और प्रशासन में शुचिता आई है। इस मुद्दे पर विस्तार से बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोरः
- सुरेंद्र किशोर
कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार समिति ने सांसद क्षेत्र विकास निधि को हमेशा के लिए समाप्त कर देने की सन 2011 में ही सिफारिश कर दी थी। उसी फंड को नरेंद्र मोदी सरकार ने जब विशेष परिस्थिति में सिर्फ दो साल के लिए स्थगित करने का निर्णय किया तो कांग्रेस ने इस निर्णय का विरोध कर दिया।
अनेक जानकार लोगों की राय रही है कि कोई भी सरकार यदि प्रशासनिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार पर कारगर प्रहार करने की ठोस शुरूआत करना चाहती है तो उसे इस फंड को तो यथाशीघ्र समाप्त कर ही देना चाहिए। पर, लगता है कि मोदी सरकार भी फंड समर्थक सांसदों के दबाव में है।
यानी, क्या यह मान लिया जाए कि मोदी है तो सब कुछ मुमकिन है, लेकिन सासंद फंड की समाप्ति के काम को छोड़कर। संभव है कि कोरोना के बहाने अभी दो साल तक फंड को रोक कर उन्होंने प्रयोग किया हो, लेकिन इसे सख्ती से सदा के लिए बंद कर देना चाहिए। लेकिन जब तक परिणाम न आ जाये, तब तक संदेह की गुंजाइश तो बनी ही रहेगी।
हां, पर एक बात के लिए नरेंद्र मोदी को धन्यवाद! उन्होंने सांसद फंड को सालाना 5 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए कर देने की जोरदार मांग को अब तक स्वीकार नहीं किया है। याद रहे कि कांग्रेस सांसद और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के.वी. थामस ने कुछ साल पहले कहा था कि ‘विभिन्न दलों के सांसदगण जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलेंगे। अनेक सांसद यह चाहते हैं कि सांसद फंड की राशि को सालाना पांच करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए कर दिया जाए। सरकार के हर मुद्दे पर बंटके रहे सांसदों की यह एकजुटता कल्पना से परे है। दलीय सीमा से ऊपर उठकर सांसदगण यह मांग कर रहे हैं।’’ अब ताजा जानकारी तो यह है कि करीब आधा दर्जन सांसदों को छोड़कर कोई सांसद, फंड की समाप्ति नहीं चाह रहा है। सांसद जो कहें, पर मेरी समझ से इस फंड की राशि को बढ़ा देने के मूल कारणों के पीछे कोई वाजिब तर्क नहीं है।
इस फंड को लेकर बहुत परेशान करने वाली एक बात हो रही है। वह यह कि इस फंड को खर्च करने के सिलसिले में अधिकतर आई.ए.एस. अफसरों का ईमान भी डोल जाता है। हालांकि सबका नहीं। उधर कई सांसदों ने भी ईमान को बचा रखा है। नतीजतन देश के स्टील फ्रेम यानी प्रशासन में जंग लग रहा है। कहते हैं कि आई.ए.एस. के पास इतना पावर है कि वह चाहे तो देश को ‘स्वर्ग’ बना दे या ‘नर्क’!
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राजनीतिक कार्यपालिका तो आती-जाती रहती है! एक प्रमोटी आई.ए.एस. अफसर ने मुझे अस्सी के दशक में बताया था कि आई.ए.एस. यानी ‘‘इंडियन अवतार सर्विस’’! अवतार यानी धरती पर भगवान के अवतार! हालांकि उसने व्यंग्य में ही कहा था। दरअसल प्रमोटी को डायरेक्ट वाले भाव कम ही देते हैं। खैर, किसी डी.डी.सी. या कलक्टर का मन अपनी नौकरी के प्रारंभिक काल में ही यदि डोल जाएगा तो राज्य का मुख्य सचिव या देश का कैबिनेट सेक्रेट्री जब वह बनेगा तो उस अफसर से नरेंद्र मोदी जैसा ईमानदार प्रधानमंत्री भी कर्तव्यनिष्ठा की उम्मीद कैसे और क्यों करेगा?
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