नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश में इतिहास दोहराने से खुद को बचाया। वैसे आम मान्यता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। लेकिन मध्यप्रदेश में मोदी सरकार इससे बची। जो कांग्रेस आज कमलनाथ सरकार के पतन के लिए भाजपा को जिम्मेवार ठहरा रही, उसे अपना इतिहास पलट कर देखना चाहिए। कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दल की सरकार भी जब केंद्र में रही तो उसने भी वही किया। 1977 में मोरार जी देसाई ने जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद 9 राज्यों की सरकारें भंग कर दी थीं। इंदिरा गांधी ने भी ऐसा ही किया। लेकिन मोदी सरकार ने ऐसा नहीं किया। विस्तार से इस विषय पर प्रकाश डाला है वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने-
- सुरेंद्र किशोर
1977, 1980 और 2019 के बीच का फर्क समझिए। संदर्भ विधान सभाओं को भंग करने और न करने का। मान लीजिए कि 2019 में इंदिरा गांधी, नरेंद्र मोदी की जगह प्रधान मंत्री होतीं! फिर क्या होता? वही होता, जो 1980 में हुआ। यदि मोरारजी देसाई 2019 में प्रधान मंत्री होते तो क्या होता? वही होता, जो 1977 में हुआ। पर, नरेंद्र मोदी ने 2019 में ऐसी हिम्मत नहीं दिखाई। संभव है कि उन्होंने लोकलाज में पड़ कर ऐसा किया हो।
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खैर, जो हो। मोदी की गलती सिंधिया गुट ने ‘‘सुधार’’ दी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीस गढ़ की अधिकतर सीटों पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा जीत गई थी। पर, उन राज्यों में 2018 में कांग्रेस की सरकारें बन चुकी थीं। ‘नए जनादेश को ध्यान में रखते हुए’ राजग की केंद्र सरकार इन तीन राज्यों की सरकारों को बर्खास्त करके वहां फिर से चुनाव करवा सकती थी। ऐसा इस देश में पहले हो चुका था। पर, मोदी सरकार ने वह काम नहीं किया।
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1977 के लोकसभा चुनाव में मिले जनादेश को आधार बना कर 1977 में ही नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारों को भंग कर दिया गया था। मामला सुप्रीम कोर्ट गया। सबसे बड़ी अदालत ने देसाई सरकार के इस निर्णय को संविधान सम्मत बताया। अब बारी इंदिरा गांधी सरकार की थी। 1980 में सत्ता में आने बाद इंदिरा सरकार ने भी नौ राज्य मंत्रिमंडलों को भंग कर दिया। विरोध होने पर इंका (इंदिरा कांग्रेस) ने कहा कि ‘‘जो काम 1977 में संविधान सम्मत था,वह 1980 में गलत कैसे हो गया?’’ हां, नरेंद्र मोदी सरकार की बात ही अलग है। अब आप तय करें कि मोदी राजनीतिक नैतिकतावादी निकले या अधकचरे खिलाड़ी!
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