पटना। नीतीश कुमार को समझना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। बिहार की राजनीति की नब्ज वे बेहतर ढंग से पहचानते हैं। तभी तो वे 15 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर हैं। अपने जन्मदिन (1 मार्च) से से पांच दिन पहले उन्होंने लगातार तीन ऐसे फैसले लिये, जो उनके अब तक बिहार में किये विकास कार्यों और राजनीतिक चतुराइयों में चार चांद लगा देते हैं। अपने फैसलों से उन्होंने सरकार में सहयोगी भाजपा को पटखनी दी तो विपक्ष के मुद्दों को झटके में हड़प लिया। उनकी कूटनीति ऐसी कि पानी पीकर कोसने वाले नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को भी अकेले में बुला कर बात की। उसके बाद उनके भी सुर बदल गये।
तेजस्वी यादव ने नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर (NPR) व नागरिकता रजिस्टर (NRC) के खिलाफ विधानसभा में पारित प्रस्ताव का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि यहां तक भरोसा दिलाया कि राज्य सरकार में शामिल भाजपा के इन कोर एजोंडों के खिलाफ जेडीयू के जाने पर कोई परेशानी पेश आती है तो वह नीतीश कुमार की सरकार को अस्थिर नहीं होने देंगे। जन्मदिन की शुभकामना देते तेजस्वी ने आदरणीय अभिभावक का संबोधन नीतीश के लिए किया है। उनके इस संबोधन में दूरगामी राजनीतिक सूत्र छिपे हैं।
अब बिहार में राजनीतिक कयासों-अटकलों का बाजार गर्म है। कोई इसे 2015 के चुनावी परिदृश्य के रूप में इसका अनुमान लगा रहा है तो कई इसे नीतीश की वर्किंग स्टाइल मान रहे हैं। नीतीश कुमार अक्सर यह कहते हैं कि कोई साथ रहे या जाये, वे बिहार में कभी तीन चीजों से समझौता नहीं करेंगे- क्राइम, करप्शन और कम्युनिलिज्म। सरकार में सहयोगी भाजपा को वे अपनी शर्तों-इरादों के अनुरूप ही रखतचे आये हैं। इसके बावजूद कि राजद से अलग होने पर भाजपा ने ही उनकी सरकार बचायी थी।
नीतीश कुमार राजनीति के चाणक्य भी हैं। उन्हें कब क्या करना है, कोई नहीं जानता। वह कई बार चुप्पी साध लेते हैं और सवालों की बौछार मौन होकर सहते-सुनते रहते हैं। लोकिन आखिर में सौ सुनार की और एक लुहार की तरह वह चोट करते हैं। जिस एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर उन्होंने कुछ ही दिल पहले अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर और थिंक टैंक पवन वर्मा को पार्टी से निकाला, उन्हीं मुद्दों पर खुद मुहर भी लगायी। लेकिन उनका अंदाज उन दोनों के विरोध से अलग था। नीतीश ने अपने अंदाज से विपक्ष को मुद्दाविहीन किया तो उसका दिल भी जीत लिया। सहयोगी भाजपा की बोलती बंद कर दी और इन्हीं मुद्दों पर अल्पसंख्यकों में अपने खिसकते जनाधार को भरोसे के साथ बचा लिया। इतना ही नहीं जातिगत जनगणना का प्रस्ताव पारित करा कर उन्होंने पिछड़ों के बीच भी अपनी पैठ पुख्ता कर ली।
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नीतीश अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कब क्या बोलना और करना है। वे समय का इंतजार करते हैं। राजद को किनारे करने के लिए उन्होंने बड़ी चालाकी से काम लिया। पहले भाजपा से सांठगांठ की, फिर तेजस्वी के लिए अपने ऊपर लगे आरोपों को जनता के बीच जाकर जाकर सफाई देने की शर्त रखी। यानी सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। इस बार भाजपा को चेतावनी के लहजे में उन्होंने एक-एक कर तीन ऐसे बिल इतने अदाकारी से पास करा लिये, जो उसकी सहयोगी पार्टी भाजपा के लिए कड़ा संदेश भी है। फिलहाल भाजपा की बोलती बंद है।
तेजस्वी यादव के साथ दो बार बंद कमरे में उनकी हुई मुलाकातों में पता नहीं कौन-सी बात हुई कि वे अब खुले तौर पर उन्हें अपना अभिभावक बताने लगे हैं। इतना ही नहीं, तीसरे मोरचे की कवायद में जुटे कभी नीतीश के तीन साथी शरद यादव, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी सीन से गायब हो गये हैं। उल्टे मांझी ने नीतीश की तारीफ में कशीदे पढ़ने शुरू कर दिये हैं।
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