- ओमप्रकाश अश्क
पटना। नीतीश कुमार पर भाजपा का साथ अब भारी पड़ने लगा है। हालांकि वह बार-बार यह एहसास कराने की कोशिश कर रहे हैं कि वे साथ तो हैं, पर उसके एजेंडों पर नहीं। जेडीयू कार्यकर्ता सम्मेलन में कम भीड़ और तेजस्वी यादव की सभाओं में उमड़ते जन सैलाब ने उनकी परेशानी बढ़ा दी है। कार्यकर्ता सम्मेलन के बाद जेडीयू की सिट्टी-पिट्टी गुम है। सम्मेलन के पहले जेडीयू नेता जिस उत्लाह से बयान दे रहे थे कि ढाई लाख लोग जुटेंगे, गांधी मैदान इतिहास रचेगा, वैसा कुछ नहीं हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो सम्मेलन टांय-टांय फिस्स हो गया। उधर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव इन दिनों बिहार में बेरोजगारी के खिलाफ सूबे के दौरे पर हैं। उनकी सभाओं में जिस तरह से लोग जुट रहे हैं, उसे देख कर यकीनन नीतीश के चेहरे पर शिकन आ रही होगी। समस्तीपुर में तेजस्वी की सभा में इसका नजारा साफ दिखाई पड़ा।
नीतीश कुमार ने भाजपा को अपने वश में तो कर लिया, लेकिन यही अब उनके गले की हड्डी बनती दिख रही है। चुनाव जीतने के लिए जिस समीकरण की जरूरत पड़ती है, उसमें माहिर माने जाने वाले नीतीश पीछे छूटते दिख रहे हैं। उनके साथ अब न मुसलमान हैं और दलित-पिछड़ों का साथ भी उनसे छूटता नजर आ रहा है। भाजपा तो सवर्णों व व्यापारियों की पार्टी पहले से ही जानी जाती रही है। यहां सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि नीतीश पर भाजपा के समर्थक भी पूरी तरह भरोसा करने को तैयार नहीं हैं।
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भाजपा समर्थकों के ऐसा मानने के पीछे नीतीश कुमार के कामकाज की स्टाइल है। वह बिहार में भाजपा को अपनी चेरी बना कर रखना चाहते हैं। बात-बात पर भाजपा की नीतियों, उसके नेताओं और पार्टी के एजेंडों से उनको घिन्न आती है। कोर्ट के फैसले के पहले भाजपा ने जब राम मंदिर का मुद्दा उठाया तो नीतीश ने टांग अड़ा दी। कश्मीर में धारा 370 हटाने की बात आई तो उन्होंने विरोध किया। दबे मन से उनकी पार्टी जेडीयू ने संसद में सीएए पर भाजपा का साथ तो दिया, लेकिन उससे पहले जेडीयू के नेता इसके खिलाफ बोलते रहे। भाजपा के एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर लंबे समय तक वे चुप्पी साधे रहे। झारखंड और दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम जब भाजपा के प्रतिकूल आये तो उन्होंने इसके खिलाफ विधानसभा से प्रस्ताव पारित करा दिया। इससे भाजपा समर्थक नीतीश से काफी खफा हैं।
उधर इन्हीं मुद्दों- सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर जेडीयू के अल्पसंख्यक नेता-समर्थक अब बागी मूड में हैं। विधानसभा से एनपीआर और एनआरसी पर उन्होंने बिल तो पास करा लिया, लेकिन लंबे वक्त तक अपना स्टैंड क्लीयर करने से बचे रहने के कारण नीतीश के प्रति अल्पसंख्यक समर्थकों में उनकी नीयत के प्रति संशय पैदा हो गया है। उनका मानना है कि नीतीश अवसरवादी हैं और जिधर उन्हें फायदा मिलेगा, उधर कभी भी खिसक सकते हैं। यानी गठबंधन के नाते भाजपा समर्थक जिस तरह नीतीश के साथ खुले मन से रहते थे, उनमें भी इनके प्रति अब संशय की स्थिति पैदा हो गयी है।
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नीतीश के दबाव में भाजपा को जिस तरह उनके सामने सरेंडर करते रहना पड़ा है, वह भाजपा समर्थकों की खीझ का बड़ा कारण है। सबसे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने भाजपा पर दबाव डाल कर 2 की जगह 17 सीटें भाजपा से झटक लीं। फिर खुद को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाये जाने के लिए भाजपा पर इस कदर दबाव डाला कि अमित शाह को यह सार्वजनिक तौर पर घोषणा करनी पड़ी कि नीतीश ही मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे। नीतीश ने झारखंड और दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की पतली हालत देख अपने मन की दबी इच्छा का इजहार विधानसभा में कर दिया, जब एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुआ। आश्चर्य की बात कि भाजपा नेताओं को इसकी भनक तक नहीं लगी और इसी क्रम में नीतीश ने दो बार बंद कमरे में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव से गुफ्तगू की। इससे नीतीश के पलटीमार आचरण के प्रति भाजपा समर्थकों का विश्वास और पुख्ता हो गया है।
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नीतीश के उस आचरण को भाजपा समर्थक भूले नहीं हैं, जब गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी के बिहार दौरे के कार्यक्रम को उन्होंने दबाव डाल कर रोकने को बाध्य किया। नरेंद्र मोदी द्वारा बिहार के बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ भेजी गयी सहायता राशि का चेक वापस कर दिया। अमित शाह को भी नापसंद करते रहे। अब भाजपा के यही नेता जब केंद्र में मजबूत स्थिति में हैं तो ये उनके साथ मंच साझा करते और उनका मुस्कुरा कर स्वागत करते अघाते नहीं हैं। यानी एनडीए के सीएम फेस बतौर नीतीश की अगुआई में अगर चुनाव होता है तो भाजपा समर्थकों का वोट जेडीयू को मिल पाना संदिग्ध दिखाई देता है। उनके पारंपरिक वोटर अल्पसंख्यक वैसे भी उन पर अब भरोसा नहीं कर रहे।
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जाहिर है कि इस बात को राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले नीतीश कुमार भी भलीभांति समझ रहे हैं। उन्होंने विकल्प की तलाश भी शुरू कर दी है। एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ विधानसभा में बिल पास होने के पहले उन्होंने जिस तरह तेजस्वी यादव से अकेले बंद कमरे में बातचीत की, उससे इस आशंका को बल मिला है कि वे नये समीकरण तलाश रहे हैं। हालांकि कार्यकर्ता सम्मेलन में नीतीश ने सफाई दी थी कि विपक्ष के किसी नेता से मिलने का यह मतलब नहीं कि वे उसके साथ हैं।
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आइए, जानते हैं कि नीतीश के सामने कौन-कौन से विकल्प हो सकते हैं। पहला विकल्प हो सकता है कि वे एनडीए में रह कर भाजपा से अधिक या उसके बराबर सीटों पर चुनाव लड़ें और सरकार बनाने लायक एनडीए को सीटें न मिलने पर उस दल या गठबंधन के साथ सरकार बनायें, जो उन्हें सीएम स्वीकार करने को तैयार हो। दूसरा विकल्प आरेजेडी के साथ होकर चुनाव लड़ें। तीसरा यह कि कांग्रेस और अन्य दलों के साथ तीसरा मोरचा बनायें। चौथा- आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू का पिछली बार की तरह समीकरण बने। इससे आरजेडी को भी जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और शरद यादव के नखड़ों से निजात मिल जाएगी। चुनाव पूर्व अगर समीकरण नहीं बने तो चुनाव बाद का विकल्प रखा जाये। इस बार भाजपा समर्थकों के वोट को जेडीयू में कनवर्ट कर पाना आसान नहीं होगा, यह तो तय है।
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