- सुरेंद्र किशोर
पत्रकारिता इसे कहते हैं, जो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संतोष सिंह ने की है। इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार ने बिहार में कोविड जांच घोटाला उजागर किया। आज के अधिकतर पत्रकार अपने या अपने मीडिया समूह के खास-खास एजेंडा कार्यक्रम में लगे रहते हैं। संतोष सिंह जैसी रिपोर्टिंग होती है, पर कम। खोजबीन के बाद इस महीने संतोष सिंह ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा कि बगैर टेस्ट किए बिहार के स्वास्थ्यकर्मियों ने रपट दे दी है कि कोविड की जांच हो गई। फर्जीवाड़ा पकडे़ जाने पर बिहार सरकार ने जमुई के सिविल सर्जन, प्रभारी चिकित्सा पदाधिकारी, प्रतिरक्षण पदाधिकारी समेत सात लोगों को निलंबित कर दिया है।
कहते हैं कि दरअसल अपवादों को छोड़कर ऐसा गोरखधंधा लगभग हर सरकारी विभाग में हो रहा है। पूरे देश में यह सब हो रहा है। यानी काम मत करो, या कम करो, जालसाजी करके पैसे बनाओ। जालसाजों की पहुंच बहुत ऊपर तक होती है। अपने देश-प्रदेश में अनेक बार ‘‘मारने वाले से बचाने वाला अधिक ताकतवर’’ साबित होता रहता है। इसीलिए ऐसे लोगों को सजा कम ही होती है। उद्यमशील पत्रकारों के लिए ऐसी खोजी पत्रकारिता कर काम व नाम करने की यहां बहुत गुंजाइश बनी हुई है।
अपवादों को छोड़कर नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू कराई गई प्रधानमंत्री ग्राम विकास योजना आखिरकार फेल क्यों हो गई? भ्रष्टों ने मोदी जी के सपने को भी फलीभूत नहीं होने दिया। जो भी सरकारी योजनाएं चल रही हैं, उन्हीं के पैसों से हर संसदीय क्षेत्र में हर साल एक गांव का विकास करना था। अलग से फंड का प्रावधान नहीं किया गया। जब खुद अधिकतर सरकारी योजनाएं ही आमतौर पर कागज पर हों, तो उनके पैसों से गांव का विकास कहां से होगा?
संतोष सिंह की तरह कोई पत्रकार इस बात की जमीनी जांच करता कि प्रधानमंत्री ग्राम विकास योजना क्यों फेल हुई, किनके कारण फेल हुई तो चैंकाने वाले नतीजे सामने आते। किंतु आज के अधिकतर पत्रकार अपने या अपने मीडिया समूह के खास-खास एजेंडा कार्यक्रम में लगे रहते हैं। संतोष जैसा काम होता है, पर कम ही हो पाता है। कुछ पत्रकार या मीडिया हाउस सरकार को बचाने में लगे हैं तो कुछ अन्य गिराने की कोशिश में लगे हैं।
यदि सच्ची रिपोर्टिंग करोगे तो कोई ईमानदार सरकार आपका विरोध नहीं करेगी। बल्कि दोषियों पर कार्रवाई करेगी। उससे संबंधित पत्रकार को यश मिलेगा। यदि सरकार बेईमान होगी तो वह उसी तरह खबरखोजी पत्रकारिता का सख्त विरोध करेगी, जिस तरह बिहार में बाबी हत्याकांड (1983) का हुआ और केंद्रीय स्तर पर बोफोर्स रिश्वत कांड (1987) में हुआ। यानी वह जनता के सामने नंगी होगी। बाबी व बोफोर्स कांडों को यत्नपूर्वक दबाया नहीं गया होता तो शीर्ष स्तर के सत्ताधारी बुरी तरह फंस जाते।
सरजमीनी खोजबीन होने पर यह पता चल जाता है कि किस घोटाले के पैसों में से एक खास राशि को ऊपर के किस स्तर तक पहुंचाया जाता है। संतोष सिंह ने जो उजागर किया है, उसमें भी इस बात की जांच होनी चाहिए कि दोषी स्वास्थ्यकर्मियों को ऊपर के किन-किन राजनीतिक-प्रशासनिक सत्ताधारियों का संरक्षण मिलता रहता है। बिना संरक्षण का ऐसा राक्षसी कृत्य कोई स्वास्थ्यकर्मी नहीं कर सकता। वह भी ऐसे समय में, जब पूरी मानवता कोरोना से हाहाकार कर रही हो। हर व्यक्ति के सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो।
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