पराजित ‘इन्दिरावाद’ और विजयी ‘मोदीवाद’ में कोई फर्क है?

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हेमंत, वरिष्ठ पत्रकार

पिछले लोकसभा चुनाव की तरह इस बार भी विकास ही मुद्दा होगा। विकास का नारा भाजपानीत NDA के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी है और बिहार NDA के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी है। हालांकि दोनों के नारे में एक बड़ा अंतर है। नरेंद्र मोदी का नारा है- सबका साथ, सबका विकास और नीतीश कुमार का नारा है- सामाजिक न्याय के साथ विकास।

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सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं के आधार पर उत्तर एवं दक्षिण में बंटे बिहार के लिए पार्टी नेताओं के व्यक्तिगत प्रभामंडल, पार्टी संगठन का प्रभाव, जातिगत आधारों पर आबादी की सघनता और जोड़-तोड़ के जातिगत व साम्प्रदायिक समीकरणों के योगायोग से संभावनाओं की कई वैकल्पिक तस्वीरें उभारने की कसरत भी शुरू हो गयी है। इसके लिए जातिगत ध्रुवीकरण के नये फार्मूले बनाने और कई पुराने मिथकों को तोड़ने की कोशिश हो रही है। इन नये-पुराने फार्मूलों के तहत अगड़ा-अगड़ा के बीच की शाश्वत दूरियों को पाटने की कोशिश हो रही है और पिछड़ा-पिछड़ा के बीच प्राकृतिक और स्वाभाविक माने जानेवाले रिश्तों का पुनर्मूल्यांकन हो रहा है। इससे बिहार की चुनावी और सत्ता-राजनीति के संदर्भ में यह बुनियादी सवाल फिर से मुखर हो कर सामने आ गया है कि आगामी चुनाव में ‘अगड़ावाद बनाम पिछड़ावाद’ का फार्मूला चलेगा कि ‘पिछड़ावाद बनाम पिछड़ावाद’ का।

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बिहार में आज भी कायम ‘अगड़ावाद’ और ‘पिछड़ावाद’ का निहितार्थ समझने के लिए यहां नीतीश फैक्टर लालू नीतीश की ताकत क्या है, कहां पड़ रहे कमजोर फैक्टर के बजाय सिर्फ ‘रामविलास फैक्टर’ का उल्लेख पर्याप्त होगा। ‘रामविलास पासवान’ और उनकी पार्टी फिलहाल भाजपानीत एनडीए के तीन दलों में सबसे बड़े घटक हैं। बिहार से जुड़ी केंद्र की राजनीति में रामविलास जी का पदार्पण ‘अगड़ावाद’ पोषित रिजर्वेशन पॉलिसी के तहत हुआ, लेकिन विकास हुआ ‘पिछड़ावाद’ पोषित चुनावी रणनीति से। लोहियावादी अगड़े-पिछड़े नेताओं ने गरीब एवं दलित रामविलास को ‘बैक’ किया। 1977 में हाजीपुर सुरक्षित सीट से लोकसभा सीट से रिकार्ड मतों से जीते, तो वह अगड़ा-पिछड़ा वर्चस्व की राजनीति में नये दलित नेता बनकर उभरे। दलितों के नेता नहीं, दलित नेता। उनका सांसद से मंत्री बनने और एनडीए से लेकर यूपीए सरकारों तक में महत्वपूर्ण मंत्री पदों पर पहुंचने की विकास-यात्रा यह प्रमाणित करती है। सो यह कहना प्रासंगिक होगा कि वह दलितों की अंबेडकरवादी राजनीति की उपज नहीं हैं।

यह कहना तो कतई उचित नहीं होगा कि उनकी राजनीति दलितों की ‘मायावती राजनीति’ का पुरुष-पक्ष है। उनकी पार्टी- ‘लोजपा’ – दलितवाद की कट्टर समर्थक बसपा जैसी नहीं है। लोजपा रामविलास जी को केंद्र की कथित राष्ट्रीय सत्ता-राजनीति में स्थायित्व देने के लिए बनी थी। लेकिन आप जानते हैं कि अब क्षेत्रीय राजनीति के बिना देश की राष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी को नहीं पूछता। वस्तुतः क्षेत्रीय राजनीति की मारक क्षमता न होती तो केंद्र में गठबंधन की राजनीति पैदा न होती।

कभी एनडीए, कभी यूपीए और अब फिर एनडीए में रहते हुए रामविलास पासवान ने अपनी मारक क्षमता में वृद्धि की है। 2005-10 के बिहार विधानसभा चुनावों में उन्होंने अपनी स्वतंत्र क्षमता भी दिखाई। चुनावी उद्देश्य-लक्ष्य के मद्देनजर फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि लोजपा ‘विकास की राजनीति’ से लैस ‘अगड़ावाद’ का किंचित नया ‘प्रोडक्ट’ है, जिसका अभी अपना कोई पैकेजिंग ब्रांड नहीं है।

इसके पूर्व ‘राजनीति के विकास’ में भी वह सत्ता की कीमत पाने-देने के लिए लालू के ‘सामाजिक न्याय’ से लैस पिछड़ावाद लेकर नीतीश के ‘सामाजिक समरसता’ से लैस पिछड़ावाद तक की किसी भी पैकेजिंग में पेश होने को तत्पर रहे।

बहरहाल, बिहार में चुनावी राजनीति के संदर्भ में दो तथ्य ऐसी ठोस वास्तविकताएं बन चुके हैं, जिन्हें अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक यह कि ‘अगड़ा वर्चस्व’ की छवि लेकर कोई पार्टी या गठबंधन बिहार में सफलता की कल्पना नहीं कर सकता। दूसरा तथ्य यह कि बिहार के 243 में ऐसे विधानसभा क्षेत्रों की संख्या कम है, जहां कोई प्रत्याशी सिर्फ अगड़ा या सिर्फ पिछड़ा वोट से अपनी जीत पक्की कर सके। सिर्फ भूमिहार या सिर्फ राजपूत, सिर्फ यादव या कुर्मी-कोइरी या फिर सिर्फ अल्पसंख्यक के वोट पर निर्णायक मानी जा सकनेवाले विधानसभा क्षेत्रों की संख्या 5 से 15 होते-होते दम तोड़ती नजर आती हैं। और, सिर्फ इतनी सीटों की संख्या के बल पर जाति विशेष पर आधारित या निर्भर पार्टी, गठबंधनीय सत्ता-राजनीति में निर्णायक भूमिका नहीं निभा सकती।

बिहार की चुनावी राजनीति में, पहले भी और आज तक भी, नेचुरल एलाई (स्वाभाविक सहयोगी) के नाम पर अथवा ‘चुनावी स्ट्रैटजी’ के बहाने कभी ‘ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित’ तो कभी ‘भूमिहार-राजपूत-ब्राह्मण-लाला’, कभी ‘पिछड़ा-अल्पसंख्यक-दलित’ तो कभी ‘माइनारिटी-यादव’ (माय) और कभी ‘गैरयादव पिछड़ा-अतिपिछड़ा-अगड़ा’ के फार्मूले आजमाये जाते रहे हैं। यूं दलितों के वोट आरक्षित क्षेत्रों में निर्णायक माने जाते रहे हैं, लेकिन अक्सर सम्बद्ध क्षेत्र की अन्य दबंग जातियों के रुख पर ही वे वोट मतपेटियों में पहुंचते हैं या पहुंचने से वंचित रह जाते हैं।

पहले यह शिकायत आम थी कि कि बिहार में दलितों के वोट बैंक की स्वतंत्रता हर वक्त खतरे में रहती है, उनका वोट बैंक विभिन्न क्षेत्रों की दबंग जातियों के आधार पर विभिन्न पार्टियों में बंटा नजर आता है। लेकिन पिछले चुनावों का संकेत यह है कि इसमें फर्क आया है। इस चुनाव में जीतनराम मांझी ने ‘हम’ की स्थापना और गठबंधन की चुनावी-राजनीति में अपनी सौदेबाजी की क्षमता का प्रदर्शन कर इस फर्क को दलित प्रजा-वर्ग के स्तर पर न सही, प्रभु-वर्ग के स्तर पर प्रकट कर दिया है!

वैसे, बिहार में मतदाताओं की जातिगत सीमाओं में विभाजित मानसिकता के आकलन का अर्थ अब यह नहीं रहा कि उन जातियों के एकमुश्त वोट प्रतिशत का हिसाब लगाकर कोई पार्टी अपनी जीत का पक्का अनुमान कर सकती है। किसी एक जाति को पार्टी का ‘वोट बैंक’ मानकर उसके सारे वोट उसी की झोली में पहुंचने की कल्पना करना अब आसान नहीं रहा। उल्टे, पिछले चुनावों के परिणामों ने इस कल्पना को ही बेमानी करार दिया।

लेकिन एक बात। पिछले चुनावों के परिणामों से स्पष्ट हुआ कि सिर्फ बिहार जैसे ‘पिछड़े’ प्रदेश के सत्ता- केंद्र में नहीं, बल्कि गुजरात जैसे विकसित राज्य सहित देश के केंद्रीय सत्ता-केंद्र में कई ऐसे आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक कारक-तत्त्व विकसित हो चुके हैं, जो न सिर्फ चुनाव पर गहरा असर डालते हैं, बल्कि देश के ‘लोकतंत्र’ पर सवालिया निशान लगा देते हैं। ‘इमरजेन्सी’ जैसी दुर्घटना इसका प्रमाण है। ‘इमरजेन्सी’ इस सत्य का अमिट संकेत है कि हमारे देश की लोकतांत्रिाक व्यवस्था में तानाशाही के बीज पनपने के लिए राजनीतिक ‘स्पेस’ 1975 के पूर्व मौजूद था। वह कैसा स्पेस था? क्या वह स्पेस अब समाप्त हो गया?

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इसके लिए यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि 1947 में देश ने ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति को अपनी आजादी की प्रथम कसौटी मानी, और उस आजादी को ‘लोकतंत्र’ के रूप में बरतने का संकल्प व्यक्त किया। इसके लिए वोट द्वारा बहुमत की सरकार कायम करने को पहली आवश्यकता और जरूरी शर्त मानी गयी। उसमें लोकतंत्र की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए ‘राज्य’ संस्था से अधिक बहुमत की सरकार का मान था।

लेकिन आजादी के 15-20 साल बाद ही गांधी, लोहिया और जयप्रकाश जैसे नेताओं के सपने और राजनीतिक-चिंतन के विपरीत सत्ता-राजनीति पर काबिज राजनीतिज्ञों में यह धारणा मजबूत होने लगी कि लोकतंत्र की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए ‘राज्य’ संस्था को मुख्य गारंटीकर्ता होना होगा। स्टेट होगा तो सरकार बनेगी। सिर्फ सरकार बनाना न स्टेट के स्थायित्व और न ही लोकतंत्र की स्थिरता की गारंटी है।

स्थायी और स्थिर स्टेट संस्थागत लोकतंत्र का सबसे प्रामाणिक और वस्तुनिष्ठ रूप होगा। हालांकि आजादी के संघर्ष में अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेवाले लोहिया और जयप्रकाश नारयण तथा उनके सहयोगी इस धारणा को निरंतर चुनौती देते रहे। वे ‘लोकतंत्र’ के लिए ऐसे किसी भी ‘तंत्र’ की भूमिका को सीमित मानते थे जो ‘लोक’ की सुरक्षा के नाम पर खुद को स्थायी और स्थिर बनाने के अधिकारों से लैस करता है। किसी भी ‘तंत्र’ को ऐसी अबाध ताकत से लैस करने की राजनीतिक प्रक्रिया के वे विरोधी रहे जो अपनी स्थिरता एवं स्थायित्व के एवज में ‘लोक’ को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कमजोर मानने या बनाने की प्रवृत्ति को पुख्ता करे।

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तो बिहार में ‘सीएम नीतीश कुमार और पीएम नरेन्द्र मोदी’ की धुरी पर होनेवाले आगामी लोकसभा चुनाव में यह तय मानिए कि यह सवाल गूंजेगा ही गूंजेगा कि क्या इतिहास के उक्त आईने में वर्तमान कांग्रेस के पराजित ‘इन्दिरावाद’ और भाजपा के विजयी ‘मोदीवाद’ में कोई फर्क नजर आता है? अगर नहीं, तो यह कैसे माना जा सकता है कि हमारे देश के लोकतंत्र की जमीन पर तानाशाही के बीज कभी नहीं पनप सकते या कि आइंदा इमरजेंसी जैसी कोई भीषण दुर्घटना नहीं होगी?

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