- सुशील मिश्रा
कोलकाता। प्रवासियों के आक्रोश गुस्से से सरकारें आखिर थर्रा गईं। लाक डाउन के 38 दिनों बाद ट्रेनों का संचालन शुरू हुआ। इतिहास गवाह है। किसी अमीर ने कोई क्रांति नहीं की। पूंजीपतियों ने आर्थिक स्वार्थ के लिए देशी या विदेशी शक्तियों से हाथ मिलाकर मुनाफा कमाया और गरीबों तथा मजदूरों की आवाज दबाई। लेकिन उन्हीं दबे कुचलों ने जब आवाज बुलंद की तो बड़े से बड़े तख्त तक हिल गए, धराशाई हो गए। कल तक जो सरकारें श्रमिकों/ छात्रों/ प्रवासियों को अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन यापन करने के लिए मजबूर की हुई थीं, अब अचानक उनके लिए विशेष ट्रेनें चलाने के लिए विवश हो गई हैं।
लेकिन सवाल है कि आखिर 4 दिनों के अंदर ऐसा क्या बदल गया कि सरकारों को नतमस्तक होना पड़ा? जबाव है- श्रमिकों, छात्रों और प्रवासियों के कड़े तेवर और उनकी हुंकार। ज़ी हां, यह सच है कि प्रवासियों के आक्रोश और हुंकार के आगे सरकारों की न केवल नींद उड़ गई, बल्कि उसकी मूर्खतापूर्ण योजना भी समझ में आ गई।
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जरा सोचें कि 29 अप्रैल तक प्रवासी श्रमिकों को घर वापस जाने की अनुमति देने की मांग पर किसी भी सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। सरकारें 30 अप्रैल को लोगों को बसों द्वारा परिवहन की अनुमति देने की जिद पर अड़ी थीं। अचानक 1 मई को नॉन-स्टॉप ट्रेनों को चलाने की अनुमति दी जाने की घोषणा कर दी गई। वैसे, 30 अप्रैल को तेलंगाना से झारखंड तक ट्रेन रवाना भी कर दी गई। 2 मई को और कई ट्रेनें भी रवाना करने की बात हुई। और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तब तक पता चल चुका था कि अब लोगों का सब्र टूट चुका है, जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकता है।
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मूर्खतापूर्ण योजना बनाने वालों की पोल भी खुल गई थी। केंद्र के इस फैसले को देर आयद दुरुस्त आयद ही कहा जा सकता है, क्योंकि यह एक बेकार सोच और नासमझी भरा अपरिपक्व तथा मूर्खतापूर्ण योजना का एक और उदाहरण ही माना जा सकता है। वैसे, इस बात का उत्तर भविष्य ही देगा कि अप्रवासियों को 38 दिनों तक उनके घरों से दूर शरणार्थियों की तरह क्यों रखा गया तथा क्या इससे CORONA के जहर का फैलाव थम गया? क्या 40 दोनों तक सरकारों की रहम पर आश्रित ये लोग लौट कर संक्रमण नहीं फैलाएंगे?
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सवाल और भी हैं, क्योंकि केवल 2 मई को ही साइकिल से बिहार लौटने के दौरान यूपी व भागलपुर में 3 लोग जान गवां चुके हैं। अगर उन्हें अब तक रोका नहीं गया होता तो वे भी अपने परिवार के साथ होते। इतिहास किसी को माफ नहीं करता। यह क्रूर होता है। और देर से ही सही, दंडित जरूर करता है। श्रमिक ट्रेनों से लौटने वाले भी सही समय पर जवाब देंगे। वे ये जरूर पूछेंगे कि आखिर इतने दिनों तक उन्हें क्यों रोका गया? विदेशों से अमीरों को लाने के लिए उड़नखटोला भेजा गया लेकिन उनके लिए 40 दिन तक क्यों इंतजार किया गया? फिलहाल यह सही है कि इन विशेष ट्रेनों का संचालन उनके गुस्से और हुंकार का ही नतीजा है, जिसे सरकार ने देर से ही सही, भांप लिया। वैसे, वे सभी सलामती से घरों को पहुंचे, यही शुभकामना है।
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