- अमरनाथ
बुलंदशहर (उ.प्र.) के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे और जाकिर हुसेन कॉलेज (साँध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे कमल किशोर गोयनका (11.10.1938 ) ने अपने जीवन का तीन चौथाई हिस्सा प्रेमचंद के अध्ययन और अनुसंधान में खपा दिया। उन्होंने प्रेमचंद साहित्य पर अपनी पी-एच.डी. और डी.लिट्. तो किया ही, उसके बाद भी प्रेमचंद साहित्य का अनुशीलन और संपादन करते हुए उनपर 30 से अधिक पुस्तकें रच डालीं। उन्होंने प्रेमचंद के हजारों पृष्ठ, लुप्त और अज्ञात साहित्य को खोजकर हिन्दी जगत के सामने पहली बार प्रस्तुत किया और प्रगतिशील लेखकों द्वारा बनाय़ी गई प्रेमचंद की सेकुलर और सामंतवाद- पूंजीवाद विरोधी छबि को नई हिन्दुत्ववादी लेखक की छबि के रूप में निर्मित करने का प्रयास किया। उनकी आलोचना-दृष्टि पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा का व्यापक प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की पुस्तक ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड‘ तथा उनके भाषणों के संकलन ‘बंच ऑफ थाट्स’ से संघ की विचारधारा समझी जा सकती है। गोलवलकर के अनुसार हिन्दुस्तान हिन्दुओं की भूमि है, जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है और इस महान जाति का एक प्रतिष्ठित हिन्दू धर्म है। इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है, जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों के अधोपतित सभ्यताओं के घातक संपर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति है। उनका मानना है कि सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकाँक्षा रखते हैं। (द्रष्टव्य, ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ )
इसी तरह ‘बंच ऑफ थाट्स’ (द्रष्टव्य, पार्ट-2, द नेशन एण्ड इट्स प्राब्लम्स) में तीन आन्तरिक खतरे बताए गए हैं- एक हैं मुसलमान, दूसरे हैं ईसाई और तीसरे हैं कम्युनिस्ट। संघ की विचारधारा में राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत, समान नागरिक संहिता जैसे विषय है। महर्षि अरविन्द, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुष संघ की वैचारिक ऊर्जा के स्रोत हैं। आरएसएस के एक प्रचार माध्यम अंग्रेजी साप्ताहिक ‘आर्गनाइजर’ के पहले अंक (3 जुलाई 1947 ) के मुख पृष्ठ पर ‘तेजोमय हिन्दू राष्ट्र’ और अंग्रेजी में ‘ग्लोरियस हिन्दू नेशन’ छपा है, जो उसके उद्देश्य की ओर सीधा संकेत है।
प्रेमचंद साहित्य पर प्रकाशित गोयनका जी की प्रमुख पुस्तकें हैं, ‘प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान’, ‘प्रेमचंद-कुछ संस्मरण’, ‘प्रेमचंद और शतरंज के खिलाड़ी’, प्रेमचंद- अध्ययन की नई दिशाएँ, ‘रंगभूमि- नए आयाम’, ‘प्रेमचंद विश्वकोश (दो खंड)’, ‘प्रेमचंद– चित्रात्मक जीवनी’, ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य (दो खण्ड)’, ‘प्रेमचंद की हिंदी-उर्दू कहानियाँ’, ‘प्रेमचंद– अनछुए प्रसंग’, ‘प्रेमचंद– वाद, प्रतिवाद और समवाद’, ‘प्रेमचंद (मोनोग्राफ)’, ‘प्रेमचंद– प्रतिनिधि संचयन’, ‘प्रेमचंद– संपूर्ण दलित कहानियाँ’, ’प्रेमचंद– कालजयी कहानियाँ’, ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली (6 खंड), ‘प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन’ आदि।
प्रेमचंद साहित्य के अलावा प्रभाकर माचवे, अभिमन्यु अनत, जगदीश चतुर्वेदी, मन्मथनाथ गुप्त, रवीन्द्रनाथ त्यागी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, विष्णु प्रभाकर, यशपाल, अभिमन्यु अनत आदि पर भी उन्होंने पुस्तकें लिखी हैं। ‘गांधी– पत्रकारिता के प्रतिमान’ तथा ‘हिंदी का प्रवासी साहित्य’ भी उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। किन्तु उनकी ख्याति का आधार उनका प्रेमचंद पर प्रकाशित प्रचुर आलोचना-कर्म ही है।
कमल किशोर गोयनका के अनुसार प्रेमचंद को साधारण जन का कहानीकार कहना उचित नहीं है, क्योंकि उनकी संवेदना एवं सहिष्णुता का संसार बहुत ही व्यापक है। वे यह भी मानते हैं कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य सिद्धांत आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के द्वारा जीवन के समग्र एवं विराट रूप को संग्रथित करने का प्रयत्न किया है, किन्तु हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों ने प्रेमचंद को आदर्शवादी तथा यथार्थवादी दो रूपों में विभक्त करके आदर्शवादी प्रेमचंद के विरुद्ध यथार्थवादी प्रेमचंद को खड़ा कर दिया है, जबकि प्रेमचंद जीवन की संपूर्णता के लिए साहित्य में यथार्थ और आदर्श दोनो को अनिवार्य मानते हैं। प्रेमचंद के निधन के बाद उनके बैंक पासबुक में अंकित धनराशि का हवाला देते हुए उन्होंने इस ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया कि प्रेमचंद आर्थिक दृष्टि से गरीब नहीं थे। इतना ही नहीं, उनके निधन के समय उनकी अन्तिम यात्रा में भी बड़े-बड़े साहित्यकार मसलन जयशंकर प्रसाद जैसे लोग शामिल हुए थे।
गोयनका जी के अनुसार “प्रेमचंद के समाजवाद-दर्शन पर विवेकानंद और गांधी का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वे एक स्थान पर तो विवेकानंद की ही शब्दावली में समाजवाद का संबंध वेदांत के एकात्मवाद से जोड़ते हैं और लिखते हैं, “यहां तो वेदान्त के एकात्मवाद ने पहले ही समाजवाद के लिए मैदान साफ कर दिया है। हमें इस एकात्मवाद को केवल व्यवहार में लाना है। जब सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा का निवास है, तो छोटे-बड़े अमीर-गरीब का भेद क्यों? (‘हंस’, अक्टूबर-नवंबर, 1932)
इसी तरह एक जगह वे जोर देकर कहते हैं कि, “अत: प्रेमचंद का समाजवाद निश्चय ही मार्क्सवाद का समाजवाद नहीं है……… भारतीयता और भारतीय जीवन मूल्य, जो हिन्दू संस्कृति की देन हैं, उनके समाजवाद के अंग हैं।” ( प्रेमचंद और समाजवाद, बहुवचन-61-62, पृष्ठ- 28) और “प्रेमचंद की इस भारतीय आत्मा में पुरातन भारत के सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के साथ धर्म के मानवीय और आध्यात्मिक चेतना का योगदान है।” ( वही, पृष्ठ-29)
लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने 1936 में जो ऐतिहासिक भाषण दिया था, उसका हवाला देते हुए गोयनका जी कहते हैं, “वे सत्य, शिव, सुन्दर की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं और लगभग बारह स्थानों पर आध्यात्मिक तृप्ति, आध्यात्मिक सामंजस्य, आध्यात्मिक सुख, आध्यात्मिक बंधन, भक्ति, वैराग्य, अध्यात्म, आध्यात्मिक उच्चता, आध्यात्मिक और भागवत सभ्यता आदि विभिन्न संदर्भों और प्रश्नों की व्याख्या में शब्दों का प्रयोग करके यह स्थापित कर देते हैं कि उनका साहित्य तथा समाजवाद का दर्शन हिन्दू धर्म एवं अध्यात्म की मूल आत्मा पर ही स्थापित है। इस व्याख्यान में मार्क्स, मार्क्सवाद और उसकी शब्दावली की भी चर्चा नहीं है। यहाँ तक कि ‘बंधुत्व और समता’ की स्थापना के लिए उन्होंने महात्मा बुद्ध, हजरत ईसा तथा हजरत मुहम्मद आदि धर्म-प्रवर्तकों का तो उल्लेख किया तथा उन्हें श्रेय भी दिया, किन्तु यहां भी उन्होंने मार्क्स का उल्लेख तक नहीं किया।” ( वही, पृष्ठ-30)
इस संबंध में उल्लेखनीय है कि लखनऊ में संपन्न प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक से पहले 1935 में ही लंदन में सज्जाद जहीर और मुल्कराज आनंद के नेतृत्व में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक हो चुकी थी और उसके घोषणा पत्र पर राय मशविरा हो चुका था। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के मूल में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियाँ थीं, जिसके पीछे जर्मनी और इटली में क्रमश: हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूँजीवादी सरकार की जनविरोधी नीतियों से पूरी दुनिया पर बढ़ रहा साम्राज्यवाद और फासिज्म का खतरा था, साथ ही सोवियत संघ में स्थापित समाजवादी सरकार का भी प्रभाव था।
गोयनका जी ने जिस लेख के संदर्भ में महात्मा बुद्ध, हजरत मूसा आदि का उल्लेख किया है। प्रेमचंद के लेख का वह अंश इस तरह है, “बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम, सामाजिक जीवन के आरंभ से ही, आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे हैं। धर्म प्रवर्तकों ने धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक बंधनों से इस स्वप्न को सच बनाने का सतत किन्तु निष्फल प्रयत्न किया है। महात्मा बुद्ध, हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद आदि सभी पैगंबरों और धर्म-प्रवर्तकों ने नीति की नींव पर इस समता की इमारत खड़ी करनी चाही, पर किसी को सफलता न मिली और छोटे-बड़े का भेद जिस निष्ठुर रूप में आज प्रकट हो रहा है, शायद कभी न हुआ था।” ( साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ-19) इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं, ‘आजमाए को आजमाना मूर्खता है, इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊंचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें, तो विफलता ही मिलेगी……. हमें एक ऐसे नए संगठन को सर्वांगपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले।” ( साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ- 20) ‘अधिक ठोस रूप’ से प्रेमचंद किस ओर संकेत कर रहे हैं- इसे आसानी से समझा जा सकता है।
गोयनका जी के अनुसार प्रेमचंद साम्यवादी विचारों के तो हैं, किन्तु उनका साम्यवाद ‘भारतीय समाजवाद’ है। वे लिखते हैं, “उनके इस भारतीय समाजवाद पर मार्क्स के प्रभाव को देखना और सिद्ध करना राजनीतिक छल-कपट है।”( बहुवचन-61-62, पृष्ठ -31) निस्संदेह प्रेमचंद खूनी क्रान्ति से मिलने वाले साम्यवाद में विश्वास नहीं करते, किन्तु मार्क्स के प्रभाव को सिरे से नकार देना ‘( वैज्ञानिक) समाजवाद’ को ही नकार देना है। स्वदेशी के अतिरिक्त आग्रह के चलते ही गोयनका जी मार्क्सवाद को ‘विदेशी विचारधारा’ कहते हुए उसे त्याज्य मानते हैं। ( बहुवचन-61-62, पृष्ठ-45) यह उचित नहीं है। विचारधाराएं स्वदेशी-विदेशी अवश्य होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव वैश्विक होता है, वर्ना हम विश्वगुरु होने का सपना कैसे देख पाते?
गोयनका जी के लेखन में बंकिमचंद्र, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद और गाँधी बार-बार आते हैं। उन्होंने रामविलास शर्मा के विषय में कहा है कि, “ड़ॉ. रामविलास शर्मा ने लगभग सौ पृष्ठों में मेरे मतों को उद्धृत करते हुए अपना विवेचन किया है और मेरी कुछ मान्यताओं का खंडन किया है।” और वे, “प्रेमचंद को लेकर अपने मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों, तर्कहीन आक्षेपों तथा तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने एवं उनकी उपेक्षा की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाए हैं।” ( वही, पृष्ठ-45)
निस्संदेह गोयनका जी जिसे रामविलास शर्मा का ‘पूर्वाग्रह’ कह रहे हैं, वह उनका अपना पूर्वाग्रह भी हो सकता है। मेरी दृष्टि में यह दो विचारधाराओं और दृष्टिकोणों का टकराव है, जिसके कारण एक ही लेखक के विषय में अध्ययन करने पर दो अलग-अलग निष्कर्ष निकाले गए हैं। यह बिल्कुल स्वाभाविक है और इससे दोनों महान आलोचकों में से किसी के भी मूल्यांकन को कम करके नहीं आंका जा सकता। पाठक अपनी-अपनी क्षमता, समझदारी और अध्ययन-दृष्टियों के आधार पर निष्कर्ष निकाल ही लेंगे। यही अध्ययन की जनताँत्रिक पद्धति भी है।
आरएसएस के निष्ठावान प्रवक्ता की तरह गोयनका जी को साम्यवादियों में कोई गुण नहीं दिखाई देता। ‘रंगभूमि’ के संबंध में वे एक जगह लिखते हैं, “विनय अपनी गोली से आत्महत्या करता है, लेकिन सूरदास पुलिस की गोली से मरता है और शहीद हो जाता है। विनय अपने सामंतीय संस्कारों के कारण सूरदास जैसी गौरवपूर्ण मृत्यु से वंचित रहता है। जनसेवक और साम्यवादी में यही अंतर है।”
इस उद्धरण के अन्तिम वाक्य पर ध्यान दीजिए। साम्यवादियों के प्रति गोयनका जी का पूर्वाग्रह यहां इस रूप में व्यक्त हुआ है कि उनकी दृष्टि में एक ‘साम्यवादी’, किसी ‘जनसेवक’ से भिन्न होता है। इस लेख के अंत में प्रेमचंद के साहित्य के अनेक चरित्रों को गोयनका जी ने उदाहरण के रूप में पेश किया है और उनके बहाने साम्यवादियों को ‘चरित्रहीन’, ‘उन्मुक्त काम का उपासक’, ‘स्वार्थी’, ‘धोखेबाज’, ‘गद्दार’ और ‘झूठी गवाही देने वाला’ साबित किया है।
आरएसएस की विचारधारा में भारत सिर्फ अंग्रेजों का गुलाम नहीं था। इस्लाम के शासन को भी वे गुलामी का दौर ही मानते हैं। कमल किशोर गोयनका के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं। जयप्रकाश मानस द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में वे कहते हैं, “जो देश एक हजार वर्ष की गुलामी से नहीं टूटा, उसे वे धर्मनिरपेक्षतावादी स्वार्थी लोग कभी नहीं तोड़ पाएंगे और भारतीयता अखंडित रहेगी।” ( वही, पृष्ठ-245)
उल्लेखनीय यह है कि गोयनका जी ने ‘धर्मनिरपेक्षतावादियों’ को भी स्वार्थी कहकर उन्हें देश को तोड़ने का प्रयास करने वाला बताया है। उन्होंने यह भी कहा है, “इस प्रकार मार्क्सवाद, ईसाई एवं इस्लाम धर्म के समान है, जो विश्व को अपना अनुयायी बनाना चाहते हैं।” (वही, पृष्ठ-246) कहना न होगा, ईसाई, इस्लाम और कम्युनिज्म को समान रूप से दुश्मन मानना आरएसएस की विचारधारा है।
गोयनका जी का आरोप है कि प्रगतिवादी आलोचकों ने प्रेमचंद की कुछ चुनी हुई रचनाओं को ही आधार बनाकर उनका मूल्यांकन किया है और अपने अनुकूल निष्कर्ष निकाल लिया है। दरअसल, प्रेमचंद के विचार उनके अध्ययन और अनुभव के क्रम में निरंतर बदलते रहे हैं। निश्चय ही उन पर आर्यसमाज का भी प्रभाव पड़ा था, विवेकानंद का भी, महात्मा गांधी का भी और मार्क्स का भी. ऐसी दशा में विचारधारा के स्तर पर उनका मूल्यांकन करने के लिए यदि उनके अन्तिम दिनों की रचनाओं, मसलन् ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ जैसी कहानियों, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ (अधूरा) जैसे उपन्यासों, ‘महाजनी सभ्यता’ जैसा लेख और प्रगतिशील लेखक संघ में अध्यक्ष पद से दिए गए उनके भाषण को आधार बनाया जाता है तो यह उचित ही है।
फिलहाल, गोयनका जी को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने अपने अभूतपूर्व अध्ययन और अनुशीलन के बहाने प्रेमचंद पर ढेर सारी नयी बहसें शुरू कीं, जिससे प्रेमचंद-साहित्य की उन दिशाओं की ओर भी खिड़कियां खुलीं, जिनकी ओर अभी आलोचकों की नजर नहीं पहुंची थी।
गोयनका जी के रचना और आलोचना कर्म पर केन्द्रित कई पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए हैं, जिनमें ‘कल्पांत’, ‘समावर्तन’, ‘अभिनव इमरोज’, ‘पुष्पगंधा’, ‘बुलंदप्रभा’, ‘नवनिकष’, ‘कविकुंभ’, ‘शोध दिशा’ और ‘बहुवचन’ प्रमुख हैं।
गोयनका जी आज अपने जीवन के 82वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। वे आज भी निरंतर अध्ययन और अनुशीलन में लगे हुए हैं. हम उन्हें जन्मदिन की हार्दिक बधाई देते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं।