फणीश्वरनाथ रेणु से जेपी आंदोलन के दौरान हुई बातचीत के अंश

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फणीश्वरनाथ रेणु का कथा संसार दो भिन्न भारतीय स्‍वरूपों के बीच खड़ा है। प्रेमचंद के बाद फणीश्‍वर नाथ रेणु को आंचलिक कथाकार माना गया है।
फणीश्वरनाथ रेणु का कथा संसार दो भिन्न भारतीय स्‍वरूपों के बीच खड़ा है। प्रेमचंद के बाद फणीश्‍वर नाथ रेणु को आंचलिक कथाकार माना गया है।
  • सुरेंद्र किशोर

फणीश्वरनाथ रेणु से जेपी आंदोलन (1974) के दौरान उनकी जेल यात्रा से लौटने के बाद ‘प्रतिपक्ष’ के लिए मैंने लंबी बातचीत की थी। वह आज भी प्रासंगिक है। रेणु पटना के राजेंद्र नगर में रहते थे। उनसे बातचीत करना एक अलग ढंग का अनुभव होता था। वैसे तो वे अक्सर पटना के काफी हाउस में बैठते थे। काफी हाउस में एक ‘रेणु कार्नर’ था। उसी कोने में वे अपने साहित्यकार व पत्रकार मित्रों के साथ बैठा करते थे। शाम में जब तक रेणु  नहीं आते थे, वह कोना खाली ही रहता था।

राजेंद्र नगर के एक फ्लैट में वे अपनी दूसरी पत्नी लतिका रेणु के साथ रहते थे। पहली पत्नी पद्मा रेणु उनके गांव में रहती थीं। मैंने तब पटना के उसी फ्लैट में सहज व आडंबरहीन माहौल में उनसे  बातचीत की थी। वे एक बड़े साहित्यकार थे। फिर भी साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के लिए उन्होंने समय निकाला। उन्होंने यह जरूर कहा कि बातचीत छपने के लिए भेजने से पहले मैं उन्हें दिखा लूं। मैंने यह सावधानी बरती। उन्होंने पांडुलिपि में अपनी कलम से कुछ परिवर्तन किये। याद है कि वे किस तरह फर्श पर डाली गई चटाई पर बैठे चाय पीते-पिलाते पांडुलिपि को सुधार रहे थे।

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भेंट वार्ता छपने के बाद वे संतुष्ट थे। कवि कमलेश के संपादकत्व में नई दिल्ली से प्रकाशित ‘प्रतिपक्ष’ एक चर्चित साप्ताहिक पत्रिका थी। वैसे तो जार्ज फर्नांडिस उस पत्रिका के प्रधान संपादक और संचालक थे, पर उसमें गिरधर राठी, मंगलेश डबराल और एन.के. सिंह जैसे पत्रकार भी काम करते थे। उन्हें लिखने की पूरी छूट थी। यानी उस पर जार्ज की राजनीति का कोई खास बंधन नहीं था।

राजनीतिक हलचल के दौर में एक विशेष राजनीतिक परिस्थिति में कई दशक पहले रेणु से यह बातचीत की गई थी। बातचीत प्रतिपक्ष के 10 नवंबर, 1974 के अंक में छपी। उसे आज भी पढ़ना दिलचस्प और मौजूं लगेगा।

प्रश्नसरकारी दमन व हिंसा के अलावा वह कौन-सी बात थी, जिसने आपको इस आंदोलन में सक्रिय होने की प्रेरणा दी?

रेणु- हिंसा और दमन तो 18 मार्च 1974 के बाद प्रारंभ हुआ है। पर मैं तो बहुत दिनों से घुटन महसूस कर रहा था। भ्रष्टाचार जिस तरह व्यक्ति और समाज के एक-एक अंग में घुन की तरह लग गया है, उससे सब कुछ बेमानी हो चुका है। मैं किसके लिए लिखता! जिसका दम घुट रहा हो, वह लिख भी कैसे सकता है! हम सब एक दमघोंटू कमरे में बंद थे। यदि इस आंदोलन के रूप में स्वच्छ हवा के लिए एक खिड़की नहीं खुली होती तो मैं स्वयं खुदकशी कर लेता। यह आंदोलन तो जीने की चेष्टा है।

प्रश्न- देश के साहित्यकारों से, बिहार के आंदोलन के संदर्भ में आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

रेणु– कोई भी अपेक्षा नहीं है। अपेक्षा के भरोसे तो देश चौपट हो रहा है। मुझसे यानी एक इकाई से जो अपेक्षा थी, वह मैं कर रहा हूं।

प्रश्न- अखिल भारतीय लोकतांत्रिक रचनाकार मंच की स्थापना की आवश्यकता क्यों हुई?

रेणु- मंच, संघ और गोष्ठी आदि शब्दों से मुझे नफरत हो गयी है। मुझे मसालेदार पुलाव की गंध अच्छी लगती है। पर अपच की स्थिति में सुगंध वमन करवा देती है। वैसे अखिल भारतीय रचनाकार मंच के सूत्रधार नागार्जुन जी का सक्रिय होना अत्यंत प्रेरणादायक है। अतः मैं इस संदर्भ में उनसे बातचीत कर रहा हूं।

प्रश्न- क्या आपके अंदर का साहित्यिक रचनाकार और परिवर्तन का आग्रही राजनेता कोई द्वंद्व महसूस करता है?

रेणु- राजनीतिक नेता तो मैं हूं नहीं। पर जिस दिन यह साहित्यकार अपने अंदर द्वंद्व महसूस नहीं करेगा, वह रचनाकार नहीं रह जाएगा।

प्रश्न- क्या राजनीति में साहित्यकारों की वैसी ही भूमिका होगी, जैसी सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की होती है?

रेणु- साहित्यकार भी जन होता है और वह भी राजनीति से उत्पन्न समस्याओं से अपने तईं जूझता है। आपको याद होगा बिहार में 1967 में जब भयंकर अकाल पड़ा था तो पहले-पहल मैंने और अज्ञेय जी ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। उसकी रपट दिनमान में छपी थी। उस दौरे के दौरान हमने अकाल की विभीषिका दिखाने वाले अनेक चित्र लिये थे, जिन पर सरकार को एतराज भी हो सकता था और वह हमें गिरफ्तार भी कर सकती थी। पर वह काम उसने तब नहीं किया। गत 9 अगस्त, 1974 को फारबिसगंज (पूर्णिया) में किया, जहां हमने बाढ़पीड़ितों की राहत के लिए प्रदर्शन किया था। साहित्यकारों की भूमिका के संबंध में एक बात और कह दूं। 1967 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के चित्रों की कनाट प्लेस में प्रदर्शनी लगाई गयी थी और उससे प्राप्त पैसे सूखा पीड़ितों की सहायता में भेज दिये गये थे।

प्रश्न- आपने 1972 में कांग्रेस के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लड़ा था और आज इस आंदोलन में भी शिरकत कर रहे हैं। क्या इन दोनों में कोई संबंध है?

रेणु- 1970 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन हुआ था। सम्मेलन के एक महीना पूर्व ही मुझे मुसहरी (मुजफ्फरपुर) से जय प्रकाश नारायण का पत्र मिला था। उन्होंने मेरे जरिए देश के तमाम लेखकों से भूखी व बीमार जनता से जुड़़ने का आग्रह करते हुए लिखा था कि मैला आंचल आज भी मैला है, बल्कि और भी मैला हो गया है।

मैंने उस दुःखभरी चिट्ठी को उस सम्मेलन में पढ़कर सुना दिया था। पर नंद चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा (दिनमान : मत सम्मत : 22 सितंबर 1974) है कि ‘ …….सारी बहसबाजी होती रही, सामान्य जन, ‘मामूली आदमी’, ‘क्रांति’, ‘प्रतिबद्धता’ और लेखकों की भूमिका जैसे प्रतापी विषयों पर, न रेणु का जिक्र हुआ, न जय प्रकाश का और न गांव की थकी मांदी जनता का।’

उसके बाद ही चुनाव आया। मैला आंचल और परती परिकथा के बाद एक ऐसी रचना की आवश्यकता थी, जो आज की परिस्थितियों-दुःस्थितियों को अपने में समेट सके, और तभी उस श्रृंखला में मेरी तीसरी रचना पूरी होती। लेकिन मुझे लग रहा था कि कहीं मैं अटक गया हूं। इसके साथ ही चुनाव दंगल में उतरने के पूर्व मेरे सामने कई अन्य सवालों के साथ-साथ बुलेट या बैलेट (?) का भी सवाल था। क्योंकि पिछले बीस वर्षों में चुनाव के तरीके तो बदले हैं, पर उनमें बुराइयां बढ़ती ही गई हैं। यानी पैसा, लाठी और जाति तंत्रों का बोल बाला।

अतः मैंने तय किया था कि मैं खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है। कुछ पैसे अवश्य खर्च हुए, पर बहुत सारे कटु-मधुर और सही अनुभव हुए। वैसे भविष्य में मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा हूं। लोगों ने भी मुझे किसी सांसद या विधायक से कम स्नेह और सम्मान नहीं दिया है। आज भी पंजाब और आंध्र के सुदूर गांवों से जब मुझे चिट्ठियां मिलती हैं तो बेहद संतोष होता है। एक बात और बता दूं, 1972 का चुनाव मैंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था। (याद रहे कि  फारबिसगंज विधानसभा चुनाव क्षेत्र में निर्दलीय उम्मीदवार रेणु को 6,498 मत मिले। कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार सरयुग मिश्र को 29,750 और समाजवादी पार्टी के लखनलाल कपूर को 16, 666 वोट मिले थे।)

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प्रश्न- (जेपी) आंदोलन के भविष्य के संबंध में आप क्या सोचते हैं?

रेणु- चार नवंबर और उसके बाद क्या होता है, हम जीवित बचेंगे या नहीं, इसमें भी मुझे संदेह हो रहा है। सन 1942 से चौगुना अधिक नरसंहार तो हो चुका। अब तो सत्ताधारी जमात के रवैये को देख कर यही लगता है कि बंगलादेश में पाकिस्तानी नरसंहार की तरह एक दिन नागार्जुन, रेणु, लाल धुआं, बाबूलाल मधुकर और अनेक बुद्धिजीवियों की लाशें एक जगह पाई जाएंगी!

सी.पी.आइ. का एक लौंडा आएगा और जयप्रकाश की कार को बम से उड़ा देगा! और भी बहुत कुछ हो सकता है। पर सत्ताधारी वर्ग यह अच्छी तरह जान ले कि जय प्रकाश नारायण की गिरफ्तारी- जिसकी जोरों से चर्चा है- के बाद वह हालत होगी, जो गांधी जी की गिरफ्तारी पर 1942 में भी नहीं हुई थी।

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(रेणु की आशंका एक हद तक सही साबित हुई। 4 नवंबर, 1974 को पटना में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में निकले जुलूस पर अर्ध सैनिक बल ने लाठियां चलाईं। याद रहे कि लाठी खुद जेपी को इंगित करके भी चलाई गई।)

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