विशद कुमार
जिस तरह से पलामू के सतबरवा थाना क्षेत्र के बकोरिया में पिछले आठ जून 2015 को पुलिस के साथ कथित मुठभेड़ में मारे गये 12 लोगों को पुलिस माओवादी बताती रही अब वह आईने की तरह साफ हो गया है कि उनमें से एक डॉ आरके उर्फ अनुराग को छोड़कर किसी का भी नक्सली होने का रिकॉर्ड पुलिस के पास उपलब्ध नहीं था। मजे की बात तो यह है कि मारे गये इन 12 लोगों में पांच नाबालिग थे जिनकी पहचान घटना के ढाई साल बाद अब हुई है, जबकि अभी तक केवल तीन नबालिगों का ही जिक्र होता रहा था, जिन्हें पुलिस अब तक नक्सली बताती रही थी।
वैसे तो यह कथित मुठभेड़ की कहानी शुरू से ही विवादों में घिरी रही है। भाकपा माओवादी ने भी पर्चा जारी कर इसे फर्जी मुठभेड़ करार दिया था।
वर्तमान समय में बकोरिया कांड को लेकर राज्य का राजनीतिक माहौल काफी गरम है। सरकार से विपक्ष भी इस घटना के दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करने की पुरजोर मांग कर रहा है। विपक्ष और इस घटना से जुड़े तथ्यों के अनुसार इसे फर्जी नक्सल एनकांउटर माना जा रहा है। लोग इसके साजिशकर्ता पुलिस और डीजीपी को मान रहे हैं। बकोरिया कांड में मारे गये बच्चों के परिजनों के पास सीआईडी की टीम 30 महीने के बाद पहुंच सकी।
बताते चले कि घटना के दिन ग्रामीणों को अखबार के माध्यम से सूचना मिली थी। जिसमें गांव के बच्चों की तस्वीर भी मृतकों के रूप में छपी थी। घटना के बाद गांव में डर और भय का महौल बन गया था। भय के कारण गांव के पुरुष गांव से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा सके। परिजनों का भी रो–रो कर बुरा हाल था। ऐसे माहौल में परिजन भी अपने बच्चों की पहचान करने और उनका सच सामने लाने की हिम्मत नहीं जुटा सके थे। परिजन पुलिस के डर से मारे गये बच्चों की पहचान करने से बचते रहे। पहचान न करने के कारण अपने मृत बच्चों के अंतिम संस्कार भी नहींकर पाये। पुलिस ने बच्चों के शवों के साथ क्या किया उनके परिजन आज तक नहीं जान पाये।
फर्जी नक्सली मुठभेड़ के नाम पर नाबालिगों की गई हत्या में महेंद्र सिंह खरवार, पिता कमलेश्वर सिंह खरवार, उम्र 15 वर्ष, गांव हरातु। चरकु तिर्की, भाई विजय तिर्की, उम्र 12 वर्ष, गांव अम्बाटिकर। बुद्धराम उरांव, भाई महिपाल उरांव, उम्र 17 वर्ष, गांव करूमखेता। उमेश सिंह खरवार, पिता पचासी सिंह खरवार, उम्र 16 वर्ष, गांव लादी। सत्येंद्र पहरहिया, पिता रामदास पहरहिया, उम्र 17 साल, गांव लादी के थे।
बकोरिया कांड के ढाईसाल बाद8 जनवरी 2018 कोसीआइडी कीएक जांचटीम गांवपहुंचीऔर मारे गये बच्चों की तस्वीर दिखा कर परिजनों से पूछा गया – क्या यह आपका बच्चा है? घरवाले ने रोते–बिलखते हुए बताया — हां यह हमारा बच्चा है। परिजनों ने कहा कि हमारे बच्चे स्कूलों में पढ़ते थे। क्या पता कैसे वे डॉक्टर (डा अनुराग जिसे पुलिस माओवादी मानती है उस दिन वह भी मारा गया था) के साथ चले गये और उसके अगले दिन खबर आयी कि बच्चे मारे गये। गांव में मातम का माहौल था। कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। ऐसे में हम अपने बच्चे की पहचान करने से भी डरने लगे थे ।
हरातु पंचायत के मुखिया मुन्द्रिका सिंह बताते हैं कि हमारे पंचायत से इस कांड में मारे गये लोगों में तीनों नाबालिग थे। घटना के बाद अखबारों के माध्यम से हमलोगों को सूचना मिली थी। डर के कारण कोई भी अपने बच्चे का शव गांव नहीं ला सका। उनके शवों का क्या हुआ, आज भी किसी को जानकारी नहीं है। घटना के ढाई साल बाद भी जिला प्रशासन की ओर से कभी गांव में खोज खबर नहीं ली गयी।
मुखिया कहते हैं — परिजनों के साथ–साथ गांव के लोगों के मन में बच्चों के दाह संस्कार नहीं कर पाने का मलाल आज भी है। मारे गये तीनों बच्चे गरीब परिवार से थे। मेरी सरकार से गुजारिश है कि सरकार की ओर से मारे गये सभी बच्चों के परिजनों को आर्थिक सहायता दी जाये।
अखबारों में छपी तस्वीरें बच्चों की मां–पिता, भाई–बहनों ने देखी, पहचान भी लिया, पर डर से चुप रहे। उस मां–पिता, भाई–बहनों की इस आंतरिक पीड़ा की अनुभूति न तो झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास कर सकते हैं, न डीजीपी डीके पांडेय, न घटना का सच जानने के बाद चुप रहने वाले सरकार के बड़े अफसर और न ही कोर्टके न्यायाधीश। संवेदनहीनता का हद तो देखिए, घटना की सारी कहानी जानते हुए भी डीजीपी डीके पांडेय ने मासूमों के शव के सामने लाखों रुपये पुरस्कार के तौर पर सीआरपीएफ व पुलिस वालों के बीच बांटा। उसकी कल्पना मात्र से ही सिहरन पैदा होने लगती है।
उमेश की मां पचिया देवी बताती है — उमेश गारू मध्य विद्यालय में पढ़ता था। गाय चराने जंगल गया था, लौट कर नहीं आया। दूसरे दिन कलेजे के टुकड़े के मारे जाने की खबर मिली, पर डर से शव लेने नहीं गए। कलेजे के टुकड़े को अंतिम बार देख भी नहीं सकें और न ही शव से लिपट कर रो भी नहीं सके।
एसपीअजय लिंडाको बकोरियामुठभेड़ केबारे मेंकुछ भीपता नहींथा
बताते चले कि सीआईडी जांच के दौरान चर्चित बकोरिया कांड के बारे में तत्कालीन लातेहार एसपी अजय लिंडा ने सीआइडी को दिये अपने लिखित बयान में साफ कहा है कि उन्हें घटना के बाद आधी रात को फोन ड्यूटी ने उठाया था और मुख्यालय बात करने को कहा था। कुछ देर बाद पलामू रेंज के डीआइजी हेमंत टोप्पो से बात हुई। डीआइजी ने मनिका थाना क्षेत्र में किसी तरह की नक्सली घटना होने संबंधी जानकारी मांगी थी। इसके बाद मनिका थाना प्रभारी से बात की, तो उसने अपने क्षेत्र में किसी तरह की नक्सली घटना होने से इनकार कर दिया था।
फिर कुछ देर बाद सीआरपीएफ के तत्कालीन आइजी ने जानकारी दी कि मनिका थाना क्षेत्र में पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई है। लेकिन मैंने उन्हें बताया कि मनिका थाना प्रभारी ने अपने क्षेत्र में कोई भी मुठभेड़ की घटना होने से इनकार किया है। तब सीआरपीएफ आइजी ने बताया कि लातेहार के मनिका थाना क्षेत्र से सटे पलामूक्षेत्र में मुठभेड़ हुई है। आप अपनी फोर्स को सतर्क कर दीजिए और कट–ऑफ लगा दीजिए। इसके बाद मैंने मनिका थाना प्रभारी सहित अन्य को अलर्ट कट–ऑफ लगाने और घटनास्थल का लोकेशन पता करने को कहा था।
एक लाइनसे बहुतसारे शवपड़े थे : जवानोंको वहींपर पुरस्कृतकियागया
अपने लिखित बयान में एसपी अजय लिंडा कहा है कि रात करीब ढाई बजे घटनास्थल पर पहुंचा। वहां पहले से ही तत्कालीन पलामू एसपी कन्हैया मयूर पटेल बैठे थे। उन्हीं के पास जाकर बैठ गया और उनसे पूछा कि ‘क्या हुआ है सर?’ उन्होंने बताया था कि उन्हें भी अभी मालूम नहीं है। घटनास्थल पर तत्कालीन आइजी, डीआइजी और सीआरपीएफ डीआइजी भी थे। अपने लिखित बयान में उन्होंने कहा है कि उजाला होने के बाद उन्होंने देखा कि एक लाइन से बहुत सारे शव पड़े थे। बगल में एक गाड़ी क्षतिग्रस्त हालत में पड़ी हुई थी। बाद में पुलिस मुख्यालय से डीजीपी और अन्य वरीय अधिकारीगण घटनास्थल पर पहुंचे और मुठभेड़ में शामिल अधिकारियों व जवानों को वहीं पर पुरस्कृत किया।
तत्कालीनडीआइजी वपलामू सदरथाने केप्रभारी नेभी मुठभेड़की जानकारीहोने
सेकिया थाइनकार
अपने पूर्व में दिये बयान में पलामू के तत्कालीन डीआइजी हेमंत टोप्पो और पलामू सदर थाने के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक ने भी अपने बयान में कहा था कि उनलोगों को भी मुठभेड़ के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी। डीआइजी ने कहा था कि रात एक बजे डीजीपी ने उन्हें फोन कर मुठभेड़ की जानकारी दी थी। इसके बाद उन्होंने पलामू और लातेहार एसपी से बात की, लेकिन दोनों ने मुठभेड़ की जानकारी से इनकार किया था। इंस्पेक्टरहरीश पाठक ने भी कहा था कि उन्हें भी मुठभेड़ की जानकारी नहीं थी। पलामू एसपी ने उन्हें रात ढाई बजे एक दंडाधिकारी को मौके वारदात पर ले जानेको कहा था। वारदात में 12 लोग मारे गये थे।
कहानीका असलीसच कुछऔर है
इस घटना की कहानी कुछ इस प्रकार शुरू होती है। माओवादी पार्टी के सूत्रों पर भरोसा करें तो इसघटना काअसली किरदारडाक्टर आरकेउर्फ़ अनुरागपर पार्टीके भीतरकुछ आतंरिकअनुशासनहीनता केआरोप लगेथे। उसपर पैसोंमें हेराफेरीका भीआरोप था।इस कारणवह जेजेएमपीमें शामिलहोना चाहताथा।सुत्रों के अनुसार उदय यादव जेजेएमपी का दलाल था। डाक्टर आरके उर्फ़ अनुराग इसी के संपर्क में था। उदय यादव ही अनुराग को जेजेएमपी से मिलाने वाला था। अनुराग के पास उस वक्त माओवादी पार्टी के लेवी का पैसा था, जिसको लेकर अलग–अलग दावे हैं, यह रकम शायद 12 लाख थी या शायद 28 लाख, जो आजतक स्पष्ट नहीं हो सका है। अनुराग जेजेएमपी वालों से मिलने के पहले इन पैसों को अपना बेटा संतोष यादव (25 वर्ष) को सौंप देना चाहता था। इसलिए उसने अपना बेटा और भतीजा योगेश यादव (25) को गाड़ी लेकर बुलाया था। अनुराग के पास पैसे होने की जानकारी उदय यादव और पप्पू लोहरा को भी हो गई थी। अनुराग जेजेएमपी के लीडर पप्पू लोहरा को अमवाटिकर बुला रहा था। जबकि पर पप्पू लोहरा उसको भालुआडीह बुला रहा था। इस बीच अनुराग ने बुधराम उरांव, चरकू तिर्की, महेंद्र खरवार आदि लोगों को यह कहकर बुला लिया था कि एक जगह चलना है। इन सारे लोगों को यह कतई पता नहीं था कि अनुराग पप्पू लोहरा से हाथ मिलाने जा रहा है। मिलने की जगह को लेकर चल रही अनुराग और पप्पू लोहरा के बीच की खींचतान इस बात पर ख़त्म हुई कि अनुराग भलुआडीह ही आये, पप्पू लोहरा गाड़ी भेज देगा। सब के सब दो गाड़ियों में भलुवाडीह पहुंचे। जिसमें एक जेजेएमपी की गाड़ी थी और दूसरी अनुराग की, जिसको ड्राइवर मो. एजाज अहमद चला रहा था। वहां पहुंचकर अनुराग और पप्पू लोहरा ने एक दुसरे से हाथ मिलाया और लाल सलाम कहा। उसके बाद पप्पू लोहरा ने अनुराग के पैसे अपने कब्जे में लिए और सबको गोली मार दी। इतना ही नहीं उसके लिए काम करने वाले उदय यादव और उसके साथ आये उसका भाई नीरज यादव को भी उसने मार दिया। ताकि कोई सबूत ही न रहे। फिर पप्पू लोहरा ने इसकी जानकारी पुलिस को दे दी। सुत्रों पर भरोसा करे तो जेजेएमपी माओवादियों के खिलाफ पुलिस की मुखबिरी भी करता है। आगे की कहानी यह है कि डेढ़ बजे के आसपास सतबरवा पुलिस ने पत्रकारों को बुलाया और बताया कि माओवादियों के साथ एक मुठभेड़ हुई है, जिसमें 12 माओवादी मारे गए हैं।
इस घटना के वक्त एक लड़का जो उस रात उन बारहों के साथ था, पर धोखे की भनक लगते ही बचकर भागने में सफल हो गया, जिसका जिक्र उस समय के किसी अख़बार–चैनल में नहीं आया था ।
जेजेएमपीके चंगुलसे छूटकर भागा14 वर्षीयनाबालिग सीतारामको पुलिसने
दोसाल तकछिपा कररखा था
बताते चले कि दो साल के बाद यह खुलासा हुआ है कि 12 लोगों की हत्या के कुछ देर पहले तक डा अनुराग के साथ सीताराम सिंह नाम का 14 वर्षीय एक नाबालिग लड़का भी था। जो अब दो साल के बाद प्रकाश में आया है क्योंकि उसे दो साल तक पुलिस अपने कब्जे में रखी थी।
बकौल सीताराम सात जून 2015 की रात नक्सली अनुराग और उसके साथ के दो लोग लादी गांव में रुके हुए थे। आठ जून 2015 को वह (सीताराम) जंगल में गाय चराने गया था। तभी नक्सली अनुराग उर्फ डॉक्टर दो लोगों के साथ उसके पास पहुंचे। अनुराग ने उससे कहा कि चलो रास्ता बताओ। वह अनुराग के साथ रास्ता बताते हुए चलने लगा। लादी गांव के ही दो और लड़कों को उसने रास्ता बताने के नाम पर साथ ले लिया। इनको साथ लेकर अनुराग सबसे पहले हरातू गांव पहुंचा। वहां से भी एक लड़के को साथ लिया। सीताराम के अनुसार हरातू से सभी ने नावाडीह व बेलवा गांव होते हुए औरंगा नदी को पार किया। वहां पर एक बलेरो आया। जिस पर सभी सवार हो गए। सीताराम के मुताबिक सभी जहां पर रुके थे और अनुराग मोबाइल पर किसी से कई बार बात की। अनुराग सभी को कुछ दूरी पर रख कर खुद मोबाइल से किसी से बात भी करता रहा था। ऐसा उसने कई बार किया। रास्ते में कुछ और लोग भी अनुराग से मिले और साथ चल रहे थे, जिन्हें वह नहीं पहचानता। रात 9.30 बजे के करीब छिलकी (नदी के किनारा) पर सभी बलेरो से उतरे। तभी कुछ लोग आये, जिससे अनुराग ने हाथ मिलाया। कुछ चितबरा ड्रेस (इन दिनों पुलिस और उग्रवादी–नक्सली दोनों चितकबरा वर्दी पहनते हैं) पहने कुछ लोग पहुंचे। अनुराग ने चितकबरा वरदी पहने एक व्यक्ति से भी हाथ मिलाया था। इसके बाद चितकबरा वर्दी पहने कई सारे लोग पहुंच गये। सीताराम को लगा कि यहां मुठभेड़ वगैरह हो सकता है, वह वहां से भागना चाहा। तभी चितकबरा ड्रेस पहने एक व्यक्ति ने उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन वह हाथ छुड़ा कर अंधेरा का फायदा उठाते हुए भाग गया। वहां से भाग कर वह एक गांव में रुका। दूसरे दिन शाम में छह बजे अपने घर पहुंचा। कुछ दिन बाद जंगल के लोग उसे पकड़ कर ले गये। बकोरिया कांड को लेकर उससे पूछताछ की। करीब एक माह बाद वह जंगल से भाग कर फिर घर आ गया। फिर गांव के नजदीक के एक पुलिस पिकेट पर चला गया। जिसके बाद उसे कहीं दूसरी जगह पुलिस के पास भेज दिया गया। पुलिस ने करीब दो साल तक उसे अपने पास रखा। इस दौरान उसे खाना खिलाया, कपड़े भी दिये और पढ़ाया–लिखाया भी। फिर घर वापस भेज दिया। सीताराम सिंह की मां संगीता देवी बताती है कि पुलिस ने सीताराम को करीब दो साल तक अपने साथ रखा। इस दौरान पुलिस उसे लेकर कई बार गांव भी आती रही थी। पुलिस के लोग जब भी सीताराम को लेकर उसके पास आते थे, तब बताते थे कि सीताराम को पढ़ा रहे हैं। संगीता देवी के मुताबिक वह खुद भी कई बार लातेहार गयी थी और सीताराम से मुलाकात की थी।
सीताराम एवं उसकी मां के बयानो में कितनी सच्चाई है उसका असली सच वे ही जानते हैं या पुलिस, जिनके पास सीताराम दो साल तक रहा था। हो सकता है पुलिस द्वारा सिखाए जुमले ही दोनों मां बेटा दुहरा रहे हों। क्योंकि जिस तरह से बकोरिया मुठभेड़ के मामले पर पुलिस के चरित्र का परत दर परत खुलासा हो रहा है, कुछ भी असंभव नहीं है।
घटनापर लिपापोतीका शुरूसे होरहा हैप्रयास
उल्लेखनीय है कि 9 जून 2015 को पलामू के सतबरवा (बकोरिया) में कथित मुठभेड़ में मारे गए कथित 12 नक्सलियों की सनसनीखेज खबर देश के मुफ्तखोर अखबारों व खबरिया चैनलों पर पुलिस के जांबाजी को सलाम के साथ सुर्खियों में रही। मगर कुछ ही दिनों बाद इस फर्जी मुठभेड़ का जब खुलासा होने लगा तब कोर्ट के आदेश के बाद मामले की सीआईडी जांच की घोषणा हुई।
सीआइडी के एडीजी एमवी राव ने जब जांच शुरू की तभी झारखंड के डीजीपी डीके पांडेय ने जांच की दिशा को प्रभावित करने की कोशिश में एमवी राव को निर्देश दिया कि वे जांच की गति धीमी रखें, कोर्ट के आदेश की चिंता नहीं करें। मगर एमवी राव ने डीके पांडेय की बात मानने से साफ इंकार कर दिया। नतिजा यह रहा कि जिसके तुरंत बाद उनका तबादला सीआइडी से नयी दिल्ली स्थित ओएसडी कैंप में कर दिया गया, जबकि यह पद स्वीकृत भी नहीं था। राव को 13 नवंबर 2017 एडीजी सीआइडी के रूप में पदस्थापित किया गया था और 13 दिसंबर को उन्हें पद से हटा दिया गया। सूत्र बताते है कि अब तक किसी भी अफसर को बिना उसकी सहमति के ओएसडी कैंप में पदस्थापित नहीं किया गया है।
इस बावत एडीजी एमवी राव ने अपने तबादले के विरोध में गृह सचिव को एक पत्र लिखा। पत्र की प्रतिलिपि झारखंड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री के अलावा केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी भेजी गयी। पत्र में यह भी कहा गया है कि बकोरिया कांड की जांच सही दिशा में ले जानेवाले और दर्ज एफआइआर से मतभेद रखने का साहस करनेवाले अफसरों का पहले भी तबादला किया गया है। यह एक बड़े अपराध को दबाने और अपराध में शामिल अफसरों को बचाने की साजिश है।
सनद रहे एमवी राव के पत्र के आलोक में गृह विभाग द्वारा डीजीपी डीके पांडेय को नोटिस भेजा गया। बकोरिया कांड मामले में अपनी भूमिका पर पक्ष रखने को कहा गया । डीजीपी से प्रतिक्रिया मांगी गयी । गृह विभाग उनका पक्ष जानने के बाद ही उनपर कार्रवाई करेगा कहा गया ।
जबकि सच्चाई यह है कि कथित मुठभेड़ के तुरंत बाद भी कई अफसरों के तबादले कर दिये गये थे। सीआइडी के तत्कालीन एडीजी रेजी डुंगडुंग व पलामू के तत्कालीन डीआइजी हेमंत टोप्पो का तबादला किया गया। उनके बाद सीआइडी एडीजी बने अजय भटनागर व अजय कुमार सिंह के कार्यकाल में मामले की जांच सुस्त हो गयी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर टिप्पणी की थी। मामले में रुचि लेने की वजह से रांची जोन की तत्कालीन आइजी सुमन गुप्ता का भी अचानक तबादला कर दिया गया था। पलामू सदर थाना के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक को पुराने मामले में निलंबित कर दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि कोर्ट के आदेश पर पिछले महिने सीआइडी के एसपी सुनील भास्कर और सुपरवाइजिंग ऑफिसर आरके धान की उपस्थिति में मामले की भी समीक्षा की गयी, जिसमें पता चला कि मामला दर्ज किये जाने के बाद पिछले ढाई वर्षों में जांच आगे नहीं बढ़ सकी । मजे की बात तो यह है कि घटना के मामले में सीआइडी के एसपी सुनील भास्कर ने हाईकोर्ट में जो हलफनामा दाखिल किया है, उसमें उसने कई तथ्य छिपाये हैं। हलफनामे में कहा है कि घटना के वक्त इंस्पेक्टर हरीश पाठक पलामू सदर थाना के प्रभारी थे। घटना बकोरिया थाना क्षेत्र में हुई थी। इस कारण इससे हरीश पाठक का कोई लेना देना नहीं है। उन्हें इस अभियान से अलग रखा गया था। बता दें कि सुनील भास्कर का बयान विश्वसनीय इसलिए नहीं है कि उस वक्त रांची से प्रकाशित दैनिक प्रभात खबर में छपी तस्वीरों में इंस्पेक्टरहरीश पाठक घटना के बाद घटनास्थल पर दिख रहें हैं। इतना ही नहीं, इस बात की भी पक्की सूचना है कि पलामू के तत्कालीन एसपी कन्हैया मयूर पटेल के निर्देश पर इंस्पेक्टर हरीश ही दंडाधिकारी को लेकर घटनास्थल पर पहुंचे थे। शवों के पोस्टमार्टम के वक्त भी हरीश मौजूद थे। कहना ना होगा कि सीआइडी द्वारा कोर्ट में दाखिल किया हलफनामा काफी विसंगतपूर्ण है। जिससे साफ हो जाता है कि मामले पर सबसे बड़ी ताकत का परोक्ष हस्तक्षेप है।
उल्लेखनीय है कि 9 जून 2017 को गिरिडीह के मधुबन थाना अंतर्गत पारसनाथ पहाड़ पर सीआरपीएफ कोबरा के जवानों द्वारा फर्जी मुठभेड़ में दुर्दांत माओवादी बताकर एक डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की हत्या कर दी गई। मोतीलाल बास्के एक डोली मजदूर था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि मोतीलाल बास्के के निर्दोष होने के कई तथ्यगत प्रमाण मौजूद हैं जबकि पुलिस आजतक उसे माओवादी होने का कोई पुख्ता सबुत नहीं दे सकी है। इस फर्जी मुठभेड़ के खिलाफ ‘दमन विरोधी मोर्चा’ का गठन कर एक व्यापक जनांदोलन खड़ा किया गया, जिसमें झामुमो, भाकपा माले, आजसू पार्टी, जेवीएम सहित कई महत्वपूर्ण राजनीतिक दल व सामाजिक संगठन शामिल हुए।
एकनजर इसपर भी
नक्सलके नामपर राज्यमें होरहा हैकितना बड़ाखेल
सेना मेंनौकरी देनेकी लालचदेकर 514 युवकोंको फर्जीनक्सली बननेको कियागया थातैयार
सच्चाई खुलनेके डरसे फर्जीसरेंडर करानेवाले केसकी फाइलकर दीगई बंद
पुलिस केअफसरों नेआंकड़ा बढ़ानेके लिएकिया थासरेंडर पॉलिसीका दुरुपयोग
ज्ञातव्य है कि रांची, खूंटी, गुमला व सिमडेगा के 514 युवकों को नक्सली बताकर सरेंडर कराने के मामले से जुड़ी जांच को रांची पुलिस ने बंद कर दी है। जबकि मामले पर एक याचिक हाई कोर्ट में लंबित है। बताते चलें कि शुरू से ही रांची पुलिस की जांच को केवल औपचारिकता थी।उसने कभी भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट पर गौर ही नहीं किया, जिसमें साफ कहा गया था कि पुलिस के आला अधिकारियों ने सरेंडर का आंकड़ा बढ़ाने के लिए नक्सली सरेंडर पॉलिसी का दुरुपयोग किया है। उल्लेखनीयहै कि जिस वक्त 514 युवकों को कोबरा बटालियन के जवानों की निगरानी में पुरानी जेल परिसर में रखा गया था और हथियार के साथ उनकी तस्वीरें ली जा रही थी, उस वक्त सीआरपीएफ झारखंड सेक्टर के आइजी डीके पांडेय हुआ करते थे। डीके पांडेय अभी राज्य के डीजीपी हैं और इस मामले में डीजीपी डीके पांडेय, एडीजी एसएन प्रधान समेत सीआरपीएफ के अन्य अफसर संदेह के घेरे में हैं। एनएचआरसी की रिपोर्ट में भी इस ओर इशारा किया गया है। ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या रांची पुलिस ने डीजीपी डीके पांडेय को बचाने के लिए लोअर बाजार थाना में दर्ज मामले की जांच का दायरा समित रखा और मामले की जांच को बंद कर दी।
बतादें कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि एजेंट और अफसरों ने सरेंडर करने वाले युवकों से हथियार खरीदने के नाम पर लाखों रुपये वसूले, ताकि सरेंडर के समय उन्हें वह हथियार सहित सरेंडर कराया जा सके और फर्जी सरेंडर असली लगे।
उल्लेखनीयहै कि मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) नेडीजी (अनुसंधान) को मामले की जांच कराने का आदेश दिया था। एनएचआरसी के उच्चाधिकारियों ने रांची आकर मामले की जांच कीथी।
नक्सल सरेंडरकी योजनागृह मंत्रालयके मौखिकनिर्देश परबनायी गयीथी
एनएचआरसीकी जांच में 12 तथ्य सामने आये थे, जिसकी जानकारी राज्य सरकार और गृह मंत्रालय को दे दी गई थी और आयोग ने उन 12 बिंदुओं परसरकार से जवाब मांगा था, लेकिन सरकार के उच्चाधिकारी इस रिपोर्ट को दबाये बैठे रहे। आयोग को कोई जवाब नहीं भेजा गया। जांच के दौरान तत्कालीन आइजी स्पेशल ब्रांच एसएन प्रधान ने जांच अधिकारी को बताया था कि नक्सली सरेंडर की योजना गृह मंत्रालय के मौखिक निर्देशपर बनायी गयी थी, ताकि उन्हें मुख्य धारा में लाया जा सके। जांच में पुलिस के सीनियर अफसरों पर लगे आरोपों को सही पाया गया था।
मानवाधिकारआयोग कीजांच मेंजो तथ्यसामने आये
- · गृह मंत्रालयके मौखिकनिर्देश परपुलिस वसीआरपीएफ केअफसरों नेनक्सलियों कोमुख्यधारा मेंलाने कीयोजना बनायीथी। योजनापर जून2011 से फरवरी2013 तक कामकिया गया।
- · पुलिस अफसरोंकी ओरसे रविबोदरा कोयह कामसौंपा गयाथा किवह सरेंडरकरने वालेनक्सलियों कोलाये।
- · सीआरपीएफ वसेना मेंनौकरी पानेके लालचमें युवकोंने जमीनव मोटरसाइकिलबेच कररवि बोदराऔर दिनेशप्रजापति कोपैसे दिये।दोनों नेयुवकों सेकहा थाकि नक्सलीके रूपमें सरेंडरकरने परनौकरी मिलेगी।
- · निर्दोष युवकों कोनक्सली बताकर नौकरीदिलाने केनाम परसीआरपीएफ अफसरोंके सामनेसरेंडर करानेका आरोपसही।
- · युवकों कोपुरानी जेलमें सीआरपीएफकी कोबराबटालियन कीनिगरानी मेंरखा गया। युवकोंके रहनेऔर खानेका बोझसरकार नेउठाया। जांचमें जबसीनियर अधिकारियोंने पायाकि सिर्फ10 युवक हीनक्सलीगतिविधियों सेसंबंधित हैं, फिर भीअन्य कोफंसाये रखागया। कोर्टमें पेशनहीं कियागया था, इसलिए कानूनतरीके सेयह नहींकहा जासकता हैकि उन्हेंजेल मेंरखा गयाथा। युवकोंको अवैधरूप सेरखने केलिए सीआरपीएफव पुलिसके सीनियरअफसर दोषीहैं।
- · युवकों कोअवैध रूपसे कब्जामें नहींरखा गयाथा, परयह स्पष्टहै किइस अवधिमें युवकोंके आजीविकाका नुकसानहुआ।
- · पुराना जेलपरिसर में514 युवकों कीजांच मेंकिसी केभी नक्सलीहोने याउससे संबंधहोने कीबात सामने नहींआयी। युवकोंको एकसाल तकपुरानी जेलमें रखागया।
- · कोबरा बटालियनके अधिकारियोंकी अनुमतिसे युवकोंको बाहरजाने औरआने कीअनुमति दीगयी थी।
- · जेल परिसरमें रखेगये युवकोंसे हथियारखरीदने केनाम परसरकार द्वारानियुक्त औरपुलिस अधिकारियोंने पैसेलिये।
- · रवि बोदराऔर दिनेशप्रजापति नेइन युवकोंको सेनाया अन्यपुलिस बलोंमें नौकरीदिलाने केनाम परठगा।
- · युवकों कोजेल परिसरमें रखनेके लिएसरकारी अधिकारियोंने नियमका पालननहीं किया।
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