- डा. ब्रजमोहन सिंह
बंगाल में कम्युनिस्ट भी रहे NDA के साथ, सीपीएम के मुखपत्र गणशक्ति ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि कम्युनिस्ट कैडर बीजेपी की तरफ चले गये। सच तो यह है कि उनके लिये बंगाल में मुख्य शत्रु बीजेपी थी ही नहीं। उनकी मार्क्सवादी दृष्टि संघ और बीजेपी की बलवती भूमिका की विचारधारात्मक और चुनावी खतरे को न पहचान सकी और न लड़ने की इच्छा शक्ति दिखा पाई। वे लगातार बीजेपी से ज्यादा तृणमूल पर अटैक कर रहे थे कि वह नरेंद्र मोदी से मिली हुई है।
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ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़े जाने पर भी दिशाहारा वामफ्रंट गोलमटोल बातें करते बीजेपी पर उस तीव्रता से नहीं प्रहार कर रहा था, जैसे एक वामपंथी को करना चाहिए और जैसा तृणमूल पार्टी कर रही थी। तृणमूल के कैडरों का एक स्वार्थी हिस्सा धन आदि के लोभ में भगवा मन में ढल गया था और सीपीएम का भी। तृणमूल जीत कर भी अशांत है। यहाँ बीजेपी की हवा या सुनामी नहीं थी। अगर रहती तो बहुत जगह जमानत जब्त नहीं होता।
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कुछ क्षेत्र, कुछ सीमांचल चुन लिया गया था और दिल्ली, गुजरात, झारखंड का धनबल, जनबल, अफवाह, मीडिया सब ममता पर टूट पड़े थे और साथ में वाम कांग्रेस भी। बीजेपी सुरक्षित निकल आयी। अब पछताये होत होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
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दीदी से पे कमीशन को लेकर सरकारी कर्मचारी नाखुश हैं। पंचायत, म्युनिसिपैलिटी के कर्मचारियों में नाखुशी है। आपसी गुटबाजी ऊपर से। कुछ लूट-खसोट करनेवाले लोग बंगाल बीजेपी में नया गिरोह बना कमाने की लालसा से खुश हैं। बंगाल देख रहा कि बाहरी आक्रमण उस पर बढ़ रहा है। अंग्रेज भी इसी रास्ते से आये थे।
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