- हरे राम कात्यायन
बलिया उत्तर प्रदेश का एक ऐसा जिला है, जहां अंग्रेजों के जमाने में चित्तू पांडेय कलक्टर की कुर्सी पर बैछ गये थे और बलिया हफ्ते भर आजाद हो गया था। बलिया के दोआबा क्षेत्र में मेरी स्मृतियों का जंगल उग आया है। यानी बलिया की पुरानी यादों का पिटारा, जिसमें छिपी हैं ढेर सारी परेशानियां। पर, आधुनिकता की दौड़ में परेशानियां और विकराल होती जा रही है। उत्तर प्रदेश के नक्शे को ध्यान से देखिए। एकदम दाहिनी तरफ एक हिस्सा जो नाक की तरह निकला है, वह जनपद बलिया है। इस तरह बलिया जनपद उत्तर प्रदेश की नाक है। 1942 में इसने पूरे देश की नाक रखी थी। 1942 के आंदोलन में बागी बलिया के जवानों ने अंग्रेज कलेक्टर को बलिया से खदेड़ दिया था और कलेक्टर की कुर्सी पर चित्तू पांडे बैठ गए थे। एक हफ्ते तक बलिया आजाद रहा। इस नाक के अंतिम छोर के ठीक पहले रानीगंज बाजार है। और इस नाक के एकदम अंतिम सिरे पर सिताब दियारा में जयप्रकाश नारायण का घर है लाला टोला में। जेपी का घर बिहार और यूपी के बॉर्डर पर है। जेपी ने भी केवल बलिया की ही नाक नहीं रखी, उन्हने देश की लाज बचाई थी। लोकतंत्र की नाक बचाई थी।
बलिया अपने चारों तरफ बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी जिलों से घिरा हुआ है। घड़ी की सुई की दिशा में उत्तर से चला जाए तो देवरिया, गोपालगंज, सारण, सीवान, भोजपुर, बक्सर, गाजीपुर, मऊ चारों ओर से बलिया को घेरे हुए हैं। बलिया भोजपुरी अंचल के केंद्र में है। भोजपुरी की आत्मा का यहां निवास है।
बलिया शहर से दाहिनी तरफ यानी पूरब की तरफ एक बांध है, जो गंगा और सरयू के पानी को बाढ़ के समय मिलने से रोकता है। यह बाध गंगा के उत्तर साइड में यानी की बाएं किनारे के समानांतर बलिया शहर से बैरिया बाजार तक और वहां से माझी के पुल तक जाता है। इस बांध को बनाने के पीछे दो उद्देश्य थे- पहला बाढ़ के समय में बलिया शहर और बैरिया तहसील की रोड कनेक्टिविटी को बनाए रखने के लिए और दूसरा गंगा की बाढ़ के पानी को पूरे दोआबा में फैलने से रोकने के लिए। यह बांध आजादी के बाद बना है। और सरजू के किनारे-किनारे उसकी बाढ़ को रोकने वाला बांध माझी से बलिया तक, जिस पर पहले छोटी रेल लाइन चलती थी और अब बड़ी रेल लाइन अंग्रेजों के समय की बनी हुई है।
इस दोआबा क्षेत्र में 40 और 50 के दशक में घर-घर हैंडपंप नहीं होते थे। हर गांव में एक या दो कुंए होते थे और लोग कुंए का पानी इस्तेमाल करते थे। उसमें यदि आर्सेनिक होता भी होगा तो वह नीचे बैठ जाता होगा, लेकिन हैंडपंप में उसे नीचे बैठने का समय नहीं मिल पाता और वह बाहर खींच लिया जाता है। घर-घर हैंडपंप लगने लगे- आंगन में भी, द्वार पर भी और कुंए सुनसान होते चले गए।
1965 तक किसी भी ढाले पर चाय की एक भी दुकान नहीं थी। आज चाय की दुकानों पर ही लोगों के जमघट लगते हैं। दैनिक अखबार भी पहुंच जाते हैं। खबरों पर दिन भर चाय के साथ गर्मागर्म बहस चलती रहती है। 1965 के पहले और 65 के कुछ समय बाद तक भी कुए जमघट के केंद्र हुआ करते थे। कई पर घिर्री लगी होती थी और डोल रखा रहता था। वह ऊपर से आधी कटी लोहे के पतरों से बनी गगरी जैसा होता था, जिससे आने-जाने वाले राहगीर भी पानी निकाल कर पी लेते थे। कुंओं पर लोग ढेकुल भी लगा देते थे, जिससे बाल्टी खींचने में सुविधा होती थी। कुएं की जगत पर लोग नहाते थे और खूब बातचीत करते थे। एक दूसरे का दुख-तकलीफ भी जानते थे। एक दूसरे की खबर भी लेते थे। कई जगहों पर जहां पोखर नहीं थे, कुएं के पास ही छठ पूजा हुआ करती थी।
गांव के पूर्वी दक्षिणी किनारे पर काली जी का मंदिर हुआ करता था। मंदिर क्या होता था, छोटा-से चबूतरा के ऊपर से छाजन रहती थी और उस पर पिंडियां रहती थीं, जैसा कि वैष्णो देवी में हैं। पिंडियों को ही काली जी मानकर पूजा होती थी। दूध का कड़ाह चढ़ाया जाता था। मिट्टी के बने कटोरों को कड़ाह कहा जाता था। गांव के पूर्वी दक्षिणी छोर पर ही हरिजनों का बसाव हुआ करता था। ये भूमिहीन होते थे और आज भी बहुत से हरिजन भूमिहीन हैं। सवर्णों और कुछ बैकवर्ड क्लास के लोगों में भी कुछ लोग भूमिहीन होते थे। हरिजन बस्ती में रहने वाले लोग खेतिहर लोगों के खेतों में काम करके अपनी जीविका चलाते थे। इसके अलावा भी कुछ जातियां हुआ करती थीं, जो खेती बारी से सीधे नहीं जुड़ी थीं। जैसे लोहार, सोनार, बढ़ई, माली, नाई या हज्जाम, धोबी आदि। जजमानी प्रथा से खेतिहर किसानों से इनको अनाज-पानी मिल जाता था। बदले में ये उनका काम कर देते थे। हर गांव-दो गांव में से किसी एक में पंसारी की दुकान होती थी, जो रोज खुली रहती थी। बाकी सब्जियों की हॉट हफ्ते में एक बार या दो बार से भी अधिक से अधिक तीन बार विभिन्न तयशुदा स्थानों पर लगती थी, जहां दोपहर के बाद तीसरे पहर तक सब्जी का टोकरा लेकर लोग पहुंच जाते थे। आटा, दाल, चावल घोड़ी पर लादकर अनाज बेचने वाले व्यापारी पहुंच जाते थे। कपड़ा बेचने वाले बजाज भी एक किनारे कुछ कपड़े लेकर बैठ जाते थे। पंसारी की भी दुकान लग जाती थी। शाम ढलने तक सारा खरीद-बिक्री का काम समाप्त हो जाता था। हाट बाजार के पास पहुंचने पर दूर से ही बाजार की एक अजीब सी आवाज सुनाई देती थी।
आजादी के बाद 16-17 साल तक बहुत धीमी गति से चलने वाला समय का यह इतिहास है। इसका कोई दस्तावेज नहीं है। यह कुछ लोगों की स्मृतियों में ही बसा-बचा है। इसका कोई वीडियो उपलब्ध नहीं है। कहीं-कहीं गांव में सुदूर गांव में इसके कुछ अवशेष जरूर अब भी रह गए हैं, जो अब लुप्त प्राय हैं। 16 योजन का मुंह बाकर बैठी हुई सांपों की माता सुरसा रूपी बड़ी और विश्व पूंजी सब कुछ धीरे-धीरे लील रही है। घड़ी तो आज भी उसी गति से चल रही है, लेकिन समय तेज चल रहा है।
इस बांध पर एक चौड़ी सड़क चलती है। इस बांध पर बीच-बीच में दोनों तरफ मतलब दाहिने और बाएं तरफ बांध से नीचे उतरने के लिए अथवा गाड़ियों को या बैल गाड़ियों को नीचे उतारने के लिए मिट्टी के ढलान बनाए गए हैं, जिन्हें स्थानीय भोजपुरी में ढाला कहा जाता है। हर ढाले के पास बांध के ऊपर सड़क के दोनों किनारे दुकानों की कतारें बन गई हैं। कटरे बन गए हैं। हेयर कटिंग सैलुन, मोबाइल रिचार्ज की दुकान, मोबाइल रिपेयर की दुकान, घरेलू बिजली उपकरणों की दुकानें और उनके मिस्त्री, कपड़े पर इस्त्री करने वालों की दुकानें, औरतों के श्रृंगार प्रसाधनों की दुकानें, किराने के मोदीखाने की दुकानें, चाय-समोसा और छानी हुई लिट्टी-पकौड़ी आदि की दुकानें, पान की कई दुकानें, देसी मिठाइयों और छेना की वैरायटी मिठाइयों की दुकान, रेडीमेड कपड़ों की दुकानें, फुटवियर की दुकानें, सीमेंट-बालू-छड़ आदि बिल्डिंग मैटेरियल्स की दुकानें, सरकारी बैंकों की ग्रामीण बैंक शाखाएं, दवाइयों की दुकानें, होम्योपैथी और झोलाछाप डॉक्टरों की दुकानें, देख कर लगता है कि शहर गांव के बस अड्डे तक चला आया है और इसके सुदूर गांव तक पहुंचने में अब ज्यादा देर नहीं है।
यह इलाका गंगा और सरयू का दोआब है। यह बलिया का बाढ़ सिंचित उर्वर उपजाऊ द्वाबा क्षेत्र है। सरयू पर बने माझी के पुल से होते हुए पूरब से पश्चिम की तरफ सरयू के किनारे किनारे रेलवे लाइन बंधे के ऊपर दौड़ती हुई बलिया शहर तक पहुंचती है बीच में सुरेमनपुर, रेवती, बांसडीह रोड स्टेशनों से होते हुए इसी रूट से सियालदह-बलिया एक्सप्रेस कोलकाता के सियालदह से खुलकर बलिया शहर के बलिया रेलवे स्टेशन तक जाती है। बैरिया बाजार से रानीगंज बाजार तक आज भी इक्का चलता है। अभी तक बचा हुआ है और रानीगंज बाजार से सुरेमनपुर स्टेशन तक जाता है। इक्के वालों के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बन सकती है, क्योंकि यह पर्यावरण फ्रेंडली सवारी है। साधारण साइकिल रिक्शा, मोटर चालित साइकिल रिक्शा, टोटो और ऑटो से आज भी इक्का गाड़ी इस इलाके में पंगा ले रही है और इन सबकी दादी लगती है। क्योंकि यह इन सबके पहले से मौजूद है।
इस दोआबा की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि यह पूरा का पूरा इलाका आर्सेनिक ग्रस्त है। हर हैंडपंप से निकलने वाले पानी में आर्सैनिक की मात्रा अच्छी खासी है। बाल्टियां पीली पड़ जाती हैं। लोगों के चमड़े सड़ जाते हैं। किडनी की बीमारी हो जाती है। पूरे शरीर पर चमड़े पर दाग पड़ जाते हैं। यह इलाका राजनीतिक चेतना में इतना पिछड़ा हुआ है और आपसी झगड़ों में इतना उलझा हुआ है कि इस आर्सेनिक के खिलाफ लड़ाई का मोर्चा नहीं खोल पा रहा है। हालांकि बलिया के अन्य इलाकों में और शहर में भी आर्सेनिक जानलेवा स्तर पर है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि पढ़े-लिखे डीएम और एसडीएम आदि का ध्यान लगभग 50 साल पुरानी इस समस्या पर क्यों नहीं जाता। वे सीधे संज्ञान क्यों नहीं ले पाते। जनप्रतिनिधियों का भी ध्यान अब तक इस पर क्यों नहीं गया। सारा मामला जनता की जागरूकता और उसके शिक्षित होने का है। ऐसी स्थिति में जब पढ़े लिखे समझदार वैज्ञानिक सोच वाले जनप्रतिनिधि ही कोई चुनकर भेजेगा और राजनीतिक दलों पर भी इस तरह के दबाव बनेंगे, अपराधीकरण, दबंगई और जात-पात की राजनीति से ऊपर उठने के बाद ही यह संभव हो पाएगा।
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