- कृपाशंकर चौबे
बांग्ला दलित आत्मकथाओं के आकलन-अध्ययन के क्रम में साहित्यकार यतीन बाला का नाम उल्लेखनीय है। उनका आत्मकथात्मक आख्यान ‘शिकड़ छेंड़ा जीवन’ 353 पृष्ठों का है। पांच मई 1949 को जसोर में चटकचंद्र बाला तथा श्रीमती अनुमति बाला नामक दलित दंपति के पुत्र के रूप में यतीन का जन्म हुआ। बचपन से ही कदम-कदम पर ठोकरें खाते, गिरते-संभलते, संघर्षों से जूझते हुए यतीन बाला आगे बढ़ते रहे। इस किताब से पता चलता है कि उम्र के साथ तालमेल बिठाकर यतीन बाला की पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाई। किसी दलित की नहीं हो पाती। ‘शिकड़ छेंड़ा जीवन’ के आरंभ में ही आजादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान में भड़के दंगों के भीषण हालात का वर्णन करते हुए बताया गया है कि बोलपोता गांव के पुरुष एक दिन जब लक्ष्मणपुर हाट में खरीददारी करने गए थे तो कट्टरपंथी मुल्लाओं के एक दल ने गांव पर कब्जा करने की नीयत से प्रवेश किया और आगजनी शुरू कर दी। पूरे गांव के दलित महिलाओं ने बच्चों को साथ लेकर वहां से भागकर अपनी जान और इज्जत बचाने में ही भलाई समझी। गांव से भागते-भागते वे लोग एक घने वन में पहुंचे। वहां से वे मनोहरपुर होते हुए सोनाकुंड़ मैदान के पूरब की ओर बढ़ रहे थे।
उधर दंगाइयों ने बोलपोता गांव में सीतानाथ समाद्दार नामक वृद्ध की हत्या कर दी और दो हिंदू युवतियों के साथ अत्याचार किया। पूरा गांव धू धू कर जल रहा था। उस हमले का एक मात्र मकसद हिंदुओं को भयाक्रांत कर उन्हें हिंदुस्तान जाने पर मजबूर करना था। बोलपाता तथा आस-पास के छियानबे गांवों में बहुसंख्यक आबादी दलितों की थी। उन सभी गांवों को कट्टरपंथी मुल्ला अपने कब्जे में ले रहे थे। बोलपाता तथा आस-पास के गांव छोड़कर भाग रहे लोगों ने एक खाली पड़े जीर्ण-शीर्ण मकान में आश्रय लिया। फिर बड़े मांदारतला में आश्रय लिया। तब तक गांव के पुरुष भी वहां आ पहुंचे। उनके पास सात छोटे-बड़े मवेशी थे। उन्हें कौड़ी के दाम बेचा गया।
यतीन बाला के दादा सिद्धिराम बाला ने कई लोगों को अपनी जमीन दान की थी। उन्हीं में एक संतोष मंडल थे। उन्होंने यतीन के पिता चटकचंद्र से कहा, ‘हमारे पास जो जमीन है, वह आपके पिता की दी हुई है। कृपया इसमें डेढ़ बीघे की जमीन पर आप घर बना लें तो मेरा कर्ज कुछ कम होगा।’ चटकचंद्र ने तदनुसार वहां मकान बनाया। इसी बीच चटकचंद्र की पत्नी की असमय मौत हो गई। बचपन में ही यतीन बाला मातृहीन हो गए। किंतु पिता चाहते थे कि यतीन पढ़-लिखकर मानुष बनें। डांगामहिषादापाड़ी प्राथमिक विद्यालय में यतीन को भर्ती किया गया। स्कूल में पहले दिन जब यतीन को ले जाया गया तो हेडमास्टर की आँखें चमक उठीं क्योंकि तब स्कूलों मे विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम होती थी। स्कूल में यतीन ने जल्द ही वर्णमाला सीख ली किंतु बहुत दिनों तक उस स्कूल में पढ़ने का सुयोग उन्हें नहीं मिला क्योंकि वर्षा काल आते ही स्कूल बंद हो गया। तब पिता ने यतीन को पोड़ाडांगा स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। वहां यतीन अपनी बुआ के यहां रहकर पढ़ रहे थे किंतु पिता, दादी और अपने भाई-बहनों से दूर रहकर वहां यतीन का मन नहीं लग रहा था। वे बीमार रहने लगे। कुछ दिनों बाद पिता उन्हें घर ले गए। वहां कालीचरण के गोवालघर स्कूल में पढ़ने का प्रबंध हुआ। पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुओं का पलायन जारी रहा। हिंदुओं के घर आगजनी, नारी हरण, नारी बलात्कार और आम लोगों की हत्या लगातार जारी रही। यतीन बाला ने लिखा है, ‘पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की जान-मान और मन किसी सूरत में सम्मान नहीं बचाया जा पा रहा था। तीन महीने से छियानबे गांवों के दलितों की दुरावस्था, असहायता, उन पर हिंसा, अत्याचार सब कछ हम देख रहे हैं। भय और विश्वासहीनता ने लोगों की रातों की नींद हर ली है। बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। नमशूद्रों की संपत्ति तो खेत, खमार, बागान बगीचा हैं। उन्हें लेकर तो हिंदुस्तान नहीं जाया जा सकता। इसीलिए शूद्र मार खा रहे हैं। धर्मांतरित हो रहे हैं। मृत्यु का वरण कर रहे हैं। बचने के लिए वे अपनी युवतियों को मुसलमानों के हाथों बेंच रहे हैं।’ यतीन बाला ने अपनी माता की मृत्यु के अलावा अपने पिता के असमय निधन का बहुत मार्मिक वर्णन किया है। पिता उनसठ साल की उम्र में दिवंगत हुए। उस पार हिंदुओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा था अतः यतीन बाला के परिजनों ने हिंदुस्तान की ओर रुख किया। सीमांत बेनापोल के पास कतार में लोग खड़े थे। हजारों की संख्या में। वहां जाकर ही यतीन ने सुना, ‘दूर के एक संबंधी सुभाष बाला की सबसे छोटी कन्या मणिमाला ने तीन दिनों से भूखी थी अतः उसने अनैतिक जीवन के पथ का रास्ता चुन लिया।’
इस आत्मकथा में यतीन लिखते हैं, ‘तब दंगे में दो लाख लोगों की जान गई। उससे भी ज्यादा मां-बहनों की इज्जत गई और शरणार्थी बने करोड़ों लोग।’ इसी तरह शरणार्थी बनकर ट्रेन से सियालदह आए थे यतीन बाला। वहां कई दिन इंतजार करने के बाद यतीन के मझले भाई को भांतारहाट शरणार्थी शिविर तथा बड़े भाई को कुंती शरणार्थी शिविर में जाने का फरमान हुआ। तीनों भाइयों को एक ही शरणार्था शिविर में रखने के लिए कितने आवेदन देने पड़े। कुंती शिविर में दो साल रहने के बाद यतीन व उनके बड़े भाई का तबादला हुगली के भांतारहाट शरणार्थी शिविर में हुआ। शिविर का जीवन जानवर सा जीवन रहा। आत्मकथा से पता चलता है कि किस तरह अनाहारी जीवन उन्हें बिताना पड़ा। भूखे रहकर उन्हें वार्षिक परीक्षा देनी पड़ी। तीन दिनों तक तो पेट में कुछ नहीं गया। दूसरे के यहां मेहनत-मजुरी कर यतीन ने पढ़ाई की। भांतारहाट शरणार्थी शिविर में रहते हुए तीसरी कक्षा की परीक्षा में यतीन प्रथम आए थे। इससे प्रसन्न होकर प्रधानाध्यापक मदनमोहन दास ने यतीन को बुलाकर कहा कि वे एक प्रशस्ति पत्र देकर उसका डबल प्रोन्नति कर रहे हैं जिससे उसका दाखिला पांचवीं कक्षा में हो जाएगा। किंतु यतीन के मझले भाई ने कहा-पांचवीं में भर्ती कराने लायक पैसा उसके पास नहीं है। इसलिए चौथी में ही पढ़ो। बाध्य होकर यतीन ने चौथी कक्षा में ही दाखिला लिया। हाथ में आया अवसर यूं ही निकल गया।
यतीन दिनभर दूसरों के यहां मजुरी कर रात में रेल स्टेशन की लाइट में किताब पढ़ते थे। बीच-बीच में हुगली किनारे उगे साग-पात काटकर बाजार में बेचकर यतीन कुछ रोजगार भी कर लेते थे। इसी बीच भांतारहाट शरणार्थी शिविर के सभी शरणार्थियों का स्थानांतरण बलागढ़ शराणार्थी शिविर में हो गया। बलागढ़ में भी यतीन का दाखिला चौथी कक्षा में ही हुआ। उसके बाद पांचवीं में एक-एक शिक्षक के अध्यापन के बारे में यतीन ने विस्तार से बताया है। उदाहरण के लिए, ‘गीता कश्यप हिंदी पढ़ाती थीं। कविता की आवृत्ति कर सुनाती थीं। कविता गाती भी थीं।’ यतीन का मन भर जाता था। साहित्य की ओर रुझान की नींव वहीं पड़ी। यतीन बाला ने 1959 में कोलकाता में हुए शरणार्थियों के विशाल सम्मेलन में भाग लिया था। तब सम्मेलन में उन्होंने बलागढ़ शरणार्थी शिविर की तरफ से प्रतिनिधित्व किया था। उस सम्मेलन में बंगाल के पंद्रह हजार शरणार्थियों ने स्वतःस्फूर्त ढंग से हिस्सा लिया था। तब जूलूस में भाग लेने के कारण पुलिस द्वारा पीटे जाने का वृतांत भी यतीन ने दिया है।
मझले भाई व भाभी के साथ बलागढ़ शरणार्थी शिविर में यतीन रहते थे किंतु मझले भाई व भाभी नहीं चाहते थे कि यतीन वहां रहें। उन्होंने कई बार यतीन से वहां से चले जाने और बनगांव में बड़े भाई के यहां रहने को कहा क्योंकि यतीन के भोजन का प्रबंध मझले भाई नहीं कर पा रहे थे। वे मुश्किल से अपना व अपनी पत्नी का खर्चा उठा रहे थे। संघर्षों में ही यतीन ने बांग्ला साहित्य में आनर्स के साथ कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1970 में बीए किया। उन्होंने 1972 में बांग्ला साहित्य में एमए किया और 1975 में बीएड किया। कुछ समय अध्यापन करने के बाद वे पश्चिम बंगाल सरकार के युवा कल्याण विभाग में अधिकारी बने। किशोरवय से ही वे समाजसेवा और साहित्य सृजन में संलग्न हो गए। यतीन बाला ने सत्तर के दशक से ही लिखना आरंभ किया और उन्होंने बांग्ला साहित्य को ‘जीवनेर नाम यंत्रणा’, ‘मिनती केउ राखेनी’ और ‘आमार शब्दइ शानित अस्त्र’जैसे कविता संकलन, ‘नेपो निधन पर्व’, ‘गंतिर बांधे भांगन’ और ‘भांगा बांग्लार दुइ मुख’ जैसे कहानी संग्रह, ‘अमृतेर जीवन कथा’ जैसा उपन्यास और ‘दलित साहित्य आंदोलन’, ‘वस्तुवादी मतुआ आंदोलन’ और ‘सत्य अन्वेषण’ जैसे शोध ग्रंथ दिए। यतीन ने ‘असुख’, ‘बाल्मीकि’, ‘मुशायरा’, ‘छियानबे’, ‘चतुर्थ दुनिया’ और ‘निखिल भारत’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। बांग्ला साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए यतीन बाला को नीतीश स्मृति साहित्य पुरस्कार, दावदाह साहित्य पत्रिका पुरस्कार, कवि निखिलेश स्मृति पुरस्कार और साहित्यिक मणि मंडल स्मृति पुरस्कार से नवाजा गया। क्रमशः
मनोरंजन व्यापारी की आत्मकथा ‘इतिवृत्ते चांडाल जीवन’ में कठिन जीवन संग्राम झकझोर देनेवाला है। मनोरंजन व्यापारी की आत्मकथा ‘इतिवृत्ते चांडाल जीवन’ 2012 में कलकत्ता प्रकाशन से प्रकाशित हुई। उसका दूसरा संस्करण 2013 में और तीसरा संस्करण 2014 में आया। 368 पृष्ठों की इस किताब में लेखक ने सिर्फ एक जीवन लिखा है। वह जीवन कभी आगे बढ़ता है कभी पीछे छूट जाता है। वह जीवन कभी हार जाता है तो कभी खो जाता है। खो जाने के बाद पुनः खोज लिया जाता है। वह आघात के ठोकर से क्षत-विक्षत होकर रक्ताक्त भी होता है। इस आत्मकथा में नव नाम का जो रिक्शा चालक है, लतखोर नाम का जो ट्रक खलासी है, जीवन नाम का जो क्रोधी चंडाल है, गुड़जोर नाम का जो शराबी है, बांगाल (उस पार से आए लोगों को बांगाल कहा जाता है) नाम का जो लेखक है, वे सभी मनोरंजन व्यापारी के खंडित रूप हैं। मनोरंजन व्यापारी का जन्म पूर्वी बंगाल के रविशाल जिले के पिरिचपुर के निकट स्थित तुरुकखाली गांव के दलित मंडल परिवार में हुआ था। देश विभाजन के बाद उनका परिवार उस पार से विस्थापित होकर इस पार सुंदरवन पहुंचा था। मनोरंजन व्यापारी का बचपन शरणार्थी शिविरों में बीता जहां अन्न और वस्त्र के लाले पड़े रहते। स्कूल का मुंह देखने का सुयोग नहीं था। किशोरावस्था में ही उनकी जेल यात्रा हो गई और वहीं खुद की कोशिश से उन्होंने अक्षर ज्ञान अर्जित किया। जेल से लौटकर मनोरंजन ने रिक्शा चलाना शुरू किया। जीविका के लिए दूसरे कई काम भी किए। लेकिन उन सबके समानांतर समांतर साहित्य के प्रति लगाव बना रहा।
एक बार दरिद्रता से परिवार को मुक्त करने की कामना से मनोरंजन के परदादा ने व्यापार करने की ठानी हालांकि उसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली, लेकिन उसके बाद से मंडल की पदवी चली गई, उनके परिवार को व्यापारी कहा जाने लगा। मनोरंजन के पिता दिहाड़ी मजदूर थे और जिस दिन मजदूरी नहीं मिलती थी, उस दिन घर का चूल्हा नहीं जलता था। मनोरंजन को उनकी मां ने बताया था कि जिस दिन उनका जन्म हुआ, उस दिन भी घर में कुछ नहीं था और घर में चूल्हा जलाने के लिए जब मनोरंजन के पिता गांव के एक सवर्ण धनिक के पास गए तो थोड़े से चावल के लिए उसी दिन उन्हें पहले पूरा का पूरा पेड़ काटना पड़ा था। अनाज के बदले तब कई दिनों तक दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती थी। मनोरंजन अपने मां-पिता की ज्येष्ठ संतान हैं। उनसे छोटे दो भाई-बहन भी हैं। मनोरंजन थोड़े बड़े हुए तो बकरी चराने से उनका बचपन शुरू हुआ। बाद में एक होटल में जूठे बर्तन मांजने का काम किया। उन्होंने किशोरावस्था में कभी रेल स्टेशन पर कुली का काम किया तो कभी सिर पर ईंट ढोने का काम तो कभी रात-रातभर जगकर पहरेदारी का काम। उन्होंने कभी ट्रक खलासी का काम किया तो कभी मेहतर-डोम का। मनोरंजन व्यापारी ने अरसे तक यादवपुर विश्वविद्यालय के सामने रिक्शा भी चलाया। रिक्शे के चक्के ने उनका भाग्य चक्र बदल दिया।
‘इति वृत्ते चांडाल जीवन’ मनोरंजन व्यापारी के लेखक बनने की कथा भी है। मनोरंजन ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था किंतु ‘वृत्तेर शेष पर्व’, ‘जिजीविषार गल्प’, ‘गल्प समग्र-1’, ‘अन्य भुवन’, ‘बातारे बारुदेर गंध’, ‘अमानुषिक’ और ‘मतुआ एक मुक्ति सेना’ जैसी किताबें बांग्ला साहित्य को दीं। जो मनोरंजन कभी यादवपुर विश्वविद्यालय के सामने रिक्शा चलाते थे, आज वहां उनके साहित्य पर शोध हो रहा है। मनोरंजन 1981-82 में जब यादवपुर में रिक्शा चलाते थे, उसी दौरान इलाके में एक भद्र बंगाली सज्जन के हंस की चोरी गई तो उसका आरोप मनोरंजन के छोटे भाई निरंजन पर लगा था और निरंजन को पूरे इलाके के लोगों ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। बाद में हंस मिल तो गया किंतु मनोरंजन का परिवार उस आघात से विचलित हो गया। मनोरंजन के पिता तो रेल से कटकर आत्महत्या ही करने जा रहे थे कि रिक्शा स्टैंड पर मिले मनोरंजन समझा-बुझाकर उन्हें घर ले आए। अपने अनुज की तरह मनोरंजन को भी इसी तरह कई बार सवर्णों की मार खानी पड़ी। एक बार तो लाइट पोस्ट में बांधकर उनकी बेरहमी से पिटाई हुई थी। दस बार मनोरंजन मौत से पंजा लड़ाकर जीवित बचे। उन्होंने लिखा है, “मरने से भय नहीं लगता। जन्मे हैं तो मरना तो पड़ेगा ही। वर्ना वृत्त पूरा कैसे होगा।” इसके बावजूद वे मृत्यु के विरुद्ध हैं। मनोरंजन ने नक्सल की आड़ में कंधे पर बंदूक लेकर हत्या लीला चलानेवालों का विरोध करते हुए लिखा है, “मैं उस तरह की मृत्यु के विरुद्ध हूं। उस तरह की मृत्यु को पराजित कर जीवन जीते, यही मेरी आंतरिक कामना है। जयी हो मानुष और शुभ बुद्धि।
इस देश के श्रमिक-कृषक-कवि-शिल्पी-साहित्यिक-बुद्धिजीवी सभी चाहते हैं कि हिंसा समाप्त हो और देश में शांति कायम हो।” उन्होंने लिखा है-“जीवन बहुत सुंदर है। जीवन से बड़ा कुछ नहीं है। इस जीवन की तपस्या हो, मृत्यु की उपासना बंद हो। जीवन किसी कारण से किसी के हाथों निहत न हो। शिलदा कैंप से छोड़ी गई बुलेट किसी आदिवासी की छाती न छलनी करे, जंगल से चलाई गई गोली किसी सैनिक को न लगे।” मानिक मंडल ने ‘इतिवृत्ते चांडाल जीवन’ किताब के फ्लैप पर सही लिखा है कि समाज जिन्हें म्लेच्छ, छोटी जातिवाला, अशिक्षित और डोम कहता है, उसके अन्यतम प्रतिनिधि हैं मनोरंजन व्यापारी। इस किताब की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है, “मैं मनोरंजन व्यापारी को अनेक वर्षों से जानती हूं। मैंने उसे लेखक बनते हुए देखा है। ‘इतिवृत्ते चांडाल जीवन’ का नामकरण भी सार्थक है। कोई यदि चांडाल परिवार में जन्म ले तो उसका आगे बढ़ना बहुत कठिन है।”