बाउल गायकों के साथ बाउल संगीत भी अब काफी कुछ खत्म हो गया है

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बाउल सम्राट पद्मश्री पूर्णचंद्र दास ने कहा था- बड़े बाउल गायकों के साथ बाउल संगीत काफी कुछ खत्म हो गया है। तीन-चार घराने हैं जो अब भी वीरभूम में हैं।
बाउल सम्राट पद्मश्री पूर्णचंद्र दास ने कहा था- बड़े बाउल गायकों के साथ बाउल संगीत काफी कुछ खत्म हो गया है। तीन-चार घराने हैं जो अब भी वीरभूम में हैं।

बाउल सम्राट पद्मश्री पूर्णचंद्र दास ने कहा था- बड़े बाउल गायकों के साथ बाउल संगीत काफी कुछ खत्म हो गया है। तीन-चार घराने हैं जो अब भी वीरभूम में हैं। चार घराने हैं- आउल,  बाउल, सेन और दरवेश। बाउल सम्राट पूर्णचंद्र दास के के जन्मदिन पर उनके बारे में पढ़ें यह आलेख।

  • कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे

आधुनिक काल में बाउल गान को विश्वभर में प्रतिष्ठित करने का श्रेय पूर्णचंद्र दास को जाता है। अठासी साल की उम्र में भी पूर्णचंद्र अपने दल के साथ अपना पारंपरिक वस्त्र पहनकर सिर में पगड़ी बांधकर हाथ में इकतारा, दोतारा, डुग्गी, ढोल, खड़ताल और मंजीरा लेकर जब गाने लगते हैं तो श्रोताओं से रुहानी रिश्ता कायम कर लेते हैं। जाहिर है कि ऐसा वे अपने प्रेम संगीत के बूते कर पाते हैं। पूर्णदास के गाये अनेक कैसेट और सीडी भारत और विदेशों में बिके हैं और आज भी बिक रहे हैं। भारत में आकाशवाणी और दूरदर्शन पर बाउल संगीत पेश करने वाले पहले व्यक्ति भी पूर्णदास रहे। कई फिल्मों में भी उन्होंने काम किया।

18 मार्च 1933 में वीरभूम के एक चक्का गाँव में उनका जन्म हुआ। उनका नाम पूर्ण इसलिए रखा गया क्योंकि वे जिस दिन जन्मे, उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी और पूरा चाँद उगा था। पूर्णचंद्र के पिता नवनीदास खेपा प्रसिद्ध बाउल गायक थे। रवींद्रनाथ ठाकुर से उनकी घनिष्ठता थी। पूर्णचंद्र का अधिकतर समय अपने गायक पिता के साथ बीता। उन्होंने सात साल की उम्र में ही ट्रेनों और प्लेटफॉर्मों में गाना शुरू किया। इससे उन्हें काफी पैसे मिल जाते। पूर्णचंद्र दास संत सीताराम ओंकारनाथ के संपर्क में आए। उन्होंने पूर्णदास को बाउल संस्कृति दुनिया भर में फैलाने के लिए प्रेरित किया। 1945 में बारह साल की उम्र में पूर्णदास राज्य के बाहर पहली बार गये। तब जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में बाउल गाने के लिए वे आमंत्रित थे।

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राज्य के बाहर वह पूर्णदास की ही पहली यात्रा नहीं थी, बल्कि बाउल गान भी पहली बार राज्य की सीमा लाँघकर बाहर पहुँचा। जयपुर कांग्रेस में उनकी कला के बेहतर प्रदर्शन के लिए उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया था। 1952 में बनारस संगीत सम्मेलन में पूर्णचंद्र दास को बाउल रत्न तथा 1958 में प्रयाग संगीत सम्मेलन में उन्हें बाउल शिरोमणि की उपाधि दी गई। 1973 में बंगलौर की साहित्य सभा में पूर्णचंद्र दास को स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।

पूर्णदास ही पहली बार बाउल संस्कृति को भारत के बाहर 1962 में ले गये, जब रूस में विश्व युवा महोत्सव आयोजित था। तब से पूर्णदास डेढ़ सौ देशों की यात्रा कर चुके हैं। 2013 में पूर्णचंद्र दास ने तुर्की के संगीत सम्मेलन में भाग लिया। दक्षिण कोरिया, कैलिफोर्निया, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, पाकिस्तान, मंट्रियाल, रोम, लक्जमबर्ग, कनाडा, जर्मनी, आयरलैंड, ईरान, बर्लिन के अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मेलनों में पूर्णचंद्र व उनका दल ने संगीत पेश कर उन देशों के संगीत रसिकों की वाहवाही लूट चुका है। इस तरह बाउल संगीत को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में पूर्णचंद्र दास की बड़ी भूमिका रही। 2005 में यूनेस्को ने बाउल गायन को परंपरावादी दुर्लभ धरोहर गायन का दर्जा दिया।

पूर्णचंद्र दास को 1967 में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बाउल सम्राट की उपाधि दी थी। 2001 में पूर्णदास को मध्य प्रदेश सरकार ने तुलसी पुरस्कार से सम्मानित किया। 1999 में उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। 2013 में उन्हें पद्मश्री से भारत सरकार ने नवाजा। उसके बाद उन्हें पश्चिम बंग सरकार के महासंगीत सम्मान से विभूषित किया गया। तब पूर्णचंद्र दास ने कहा था, “मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के हाथों यह पुरस्कार मिलने के आनंद का मैं वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि राज्य में इसके पहले जो सरकार थी, उसने मुझे कभी किसी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा।

पश्चिम बंगाल की पूर्ववर्ती वाममोर्चा सरकार द्वारा सम्मानित होने के बजाय मैं अपमानित किया गया। अपमान का दंश इतना तीखा था कि दुखी होकर मैंने बंगाल छोड़ने का भी एक बार फैसला कर लिया था। यही नहीं, अमेरिका में बस जाने तक का फैसला कर लिया था। अमेरिका में अकादेमी स्थापित कर वहाँ बसने का मैंने फैसला तो किया तो था किंतु मजबूरी में। क्या करता? बंगाल में अकादेमी बनाने के लिए तत्कालीन वाममोर्चा सरकार से मैंने जमीन माँगी थी। सरकार ने जमीन नहीं दी। उल्टे, तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने 1994 में एक बयान देकर मुझे अपमानित किया। उन्होंने बयान दिया था कि साल्टलेक में पूर्णदास बाउल को जमीन दी गयी जिसे उन्होंने बेच दिया। मैंने बसु को चुनौती दी कि प्लाट नंबर बतायें, कागजात दिखायें कि कौन जमीन दी गयी। गलतबयानी के लिए बसु ने माफी भी नहीं मांगी।

इसी बीच सैन डियागो में अंतर्राष्ट्रीय बाउल संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव आया तो मैंने स्वीकार कर लिया। मैंने 2001 में अमेरिका के कैलीफोर्निया के सैन डियागो में ‘पूर्णदास बाउल अकादेमी’ की स्थापना की। अकादेमी के लिए मुझे सातत-आठ महीने अमेरिका में रहना पड़ता है। जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बने तो कोलकाता के एक कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई। मैंने जमीन का मामला उनके समक्ष उठाया तो उन्होंने कहा कि मैं उनके दफ्तर जाकर मिलूँ। उनके दफ्तर ने बीसियों स्पष्टीकरण माँगे कि क्यों मिलना चाहता हूँ। मैंने सैकड़ों फोन किये। घंटों उनके दफ्तर के सामने खड़ा रहा, पर उनके सेक्रेटरी ने मिलने नहीं दिया। मैं परंपरा से एक भिखारी हो सकता हूँ, क्योंकि बाउल हूँ लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मैं सरकार से भीख माँग रहा हूँ। जैसा कि मेरे पूर्वज करते थे, भोजन के लिए बाउल गान गाकर मैं भीख माँगा करता था, लेकिन धन के लिए नहीं। गाकर ट्रेनों में भोजन के लिए पैसे आदि लेने में मुझे कोई कुंठा नहीं हुई। बचपन में यह काम करता था। बाद में कोयलांचल में गाने लगा। वे मुझे राशन देते थे।”

एक साक्षात्कार में पूर्णदास ने कहा था, “महान बाउल गायकों के साथ बाउल संगीत काफी कुछ खत्म हो गया है। तीन-चार घराने हैं जो अब भी वीरभूम में हैं। चार घराने हैं- आउल,  बाउल,  सेन और दरवेश। मैं बाउलों की आठवीं पीढ़ी हूँ। मेरी पत्नी मंजुदास भी बाउल गायिका हैं। हमारे तीन बेटे दिव्येंदु, शुभेंदु और कृष्णेंदु नवीं पीढ़ी के बाउल गायक हैं।” पूर्णचंद्र दास के देश-विदेश में शिष्यों की लंबी परंपरा है। उनके शिष्यों की संख्या सैकड़ों में है। भारत में उनके जिन शिष्यों ने संगीत के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है, उनमें कुछ प्रमुख नाम हैं-गोष्ठ, गोपाल, प्रह्लाद ब्रह्मचारी, बंदोपाध्याय, संजित मंडल, कार्तिक दास बाउल, हाराधन दास और सुदीप दास।” पूर्णदास के साथ मेरी वह विस्तृत बातचीत वाणी प्रकाशन से छपी मेरी किताब ‘रंग स्वर शब्द’ में संकलित है। पद्मश्री पूर्णचंद्र दास का आज (18 मार्च) जन्मदिन है, उन्हें बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

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