बिरसा मुंडा को भारतीय इतिहास में स्थान मिलना ही चाहिए। वह स्थान सम्मानजनक होगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि 70 लाख आदिवासियों के साथ आप किस तरह से पेश आते हैं। उनके साथ आपका रवैया सहानुभूतिपूर्ण है या नहीं। आदिवासी सवालों से आप कैसे निपटते हैं। जयपाल सिंह मुंडा द्वारा लिखित यह लेख, ‘द बिहार हेराल्ड’, 23 अप्रैल 1940, पटना, पृष्ठ 13-14 से सदर्भित है और ‘आदिवासियत’-जयपाल सिंह मुण्डा के चुनींदा लेख और वक्तव्य’ में अश्विनी पंकज द्वारा संकलित है।
- जयपाल सिंह मुंडा
“बिहार कांग्रेसियों के लिए आदिवासी आंदोलन एक भयानक सपने की तरह हो गया है, जिससे उभरने का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। हालांकि इसके लिए वह आदिवासी सभा को दबाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं और कई तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लगभग सभी हमलों का सामना आदिवासियों ने सफलतापूर्वक किया है, लेकिन अभी भी उन हमलों को झेलना बाकी है, जो प्रत्यक्षत: दिखाई नहीं देते। इसी के साथ आदिवासी सवालों को प्रेस के खिलाफ भी लड़ना पड़ रहा है, जो कि उनको नहीं के बराबर जगह देता है। इस संबंध में और कई ऐसी बातें हैं, जिनका खुलासा करना फिलहाल संभव नहीं है। लेकिन इस संघर्ष में एक ऐसा पहलू भी है, जिसको बहुत देर तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हिंदुओं की पार्टी बिहार कांग्रेस, जिसके खिलाफ आदिवासी सभा खड़ी है, उसके नेता सांप्रदायिकता की नीति अपनाते हुए आदिवासी आंदोलन को तोड़ने के जी-तोड़ प्रयासों में लगे हुए हैं। उनकी कोशिश है कि आदिवासी सभा को, जिनके कुछ ही नेता धर्मांतरित ईसाई हैं, हिंदू-ईसाई के आधार पर फूट डालकर बिखरा दिया जाए। ‘संसार’ (गैर ईसाई) आदिवासियों से कहा जा रहा है कि वे आदिवासी सभा से दूर रहें, क्योंकि यह ईसाइयों का संगठन है। उनको डराया जा रहा है कि आदिवासी आंदोलन उनको ईसाई बनाने का माध्यम भर है। पिछ्ले साल आदिवासियों की आजादी के दुश्मनों ने हद पार करते हुए बिरसा मुंडा को ‘भगवान बिरसा’ घोषित करने की कोशिश की, जैसा कि ‘संसार’ आदिवासी उनको बोलते हैं। उनका कहना है कि केवल संसार आदिवासी ही छोटा नागपुर और संताल परगना की समस्या का हल कर सकते हैं। यह सीधे-सीधे ईसाई मिशनों और उनके अनुयायियों के खिलाफ एक घृणित रणनीति है।
आदिवासी इलाकों में काम कर रहे ईसाई मिशन भी उनके बिछाए जाल में फंस गए हैं। कुछ महीनों पहले मुझे उनकी झूठी बातों और शत्रुता पूर्ण प्रचार से ग्रसित हो गए मिशनरियों का दिमाग साफ करने में अच्छी खासी ऊर्जा लगानी पड़ी। आदिवासी महासभा के अध्यक्ष के रूप में मुझे बहुत मजबूती से इस सांप्रदायिक नजरिये का सामना करना पड़ा है कि बिरसा ‘मुंडा’ हैं। आप सब जानते हैं कि आदिवासी महासभा के आंदोलन के पूर्व बिरसा मुंडा का नाम बहुत कम लोग जानते थे। कई लोग तो उनके बारे में जानते भी नहीं थे। आदिवासी महासभा के आंदोलन ने ही सबसे पहले अपने नारों में जगह दी। उन्हें आदिवासी आंदोलन का नेता बताया। इस संबंध में हमारी प्रमुख आपत्ति बिरसा को भगवान, धरती आबा और उन्हें अवतारी नायक बनाने पर है। जिस आदिवासी कलाकार ने बिरसा मुंडा की प्रतिमा को अत्यंत प्रशंसनीय निपुणता के साथ बनाया था, उसे मिशनरियों के कोप का भाजन बनना पड़ा। यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि बिरसा मुंडा ईसाई विरोधी थे। रोमन कैथोलिक मिशन ने तो यहां तक कह डाला कि बिरसा मुंडा की तस्वीर छपी साडि़यां, जो हमने संगठन हेतु पैसे जुटाने के लिए रैली के दौरान बेची थी, उनको पहनने से आदिवासी महिलाएं अपमानित हुई हैं।
बिरसा मुंडा के मुद्दे पर मेरा दिमाग बहुत खुला हुआ है। यह मेरे लिए शरम की बात है कि विद्यार्थी जीवन के दिनों में मैं उनको नहीं जान पाया था। मेरे स्वर्गीय गुरु कैनन कॉसग्रोव ने मुझे कभी बिरसा मुंडा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। शायद वे नहीं जानते होंगे। राय बहादुर सरत चंद्र रॉय, जो आदिवासी मामलों के जानकार और आधिकारिक विद्वान हैं, उन्होंने बड़ी उदारता के साथ अपनी सारी पुस्तकों की प्रतियां मुझे दीं। जिनको पढ़ने में मैंने तनिक भी देर नहीं की। आदिवासियों पर शोधरत इस प्रतिष्ठित नृविज्ञानी के प्रयासों की मैं प्रशंसा करता हूं, पर मुझे लगता है कि आदिवासियों के साथ वे न्याय नहीं कर पाए हैं। पढ़े-लिखे आदिवासियों ने इसीलिए उनके अध्ययन में चित्रित आदिवासी संबंधी ‘नैतिक अभियोगों’ का विरोध किया है। वे इस बात की वकालत कर सकते थे कि आदिवासियों को ज्यादा से ज्यादा अधिकार मिले, जैसा साहस फादर हौफमैन और मेरे दोस्त वेरियर एल्विन ने किया है। बिरसा मुंडा पर लिखे गए उनके बेहद संक्षिप्त टिप्पणियों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मैं उनको लेकर जनता के बीच में जाऊं जिससे कि आदिवासी आंदोलन में नई जागृति आए और संगठन का व्यापक फैलाव हो।
बिरसा मुंडा के साथ रोमन मिशन की यादें अच्छी नहीं हैं। बिरसा उलगुलान के दौरान, जो अब 4 दशकों से अधिक पुराना है, विद्रोहियों ने आदिवासियों के अच्छे मित्रों फादर हौफमैन और सरगोधा के फादर कार्बेरी पर हमला किया था। विद्रोहियों ने मिशन भवनों को भी क्षतिग्रस्त कर डाला था। फादर हौफमैन बहुत हंसमुख स्वभाव के थे। तीर के घाव पर उनकी टिप्पणी थी कि इससे उनकी छाती पहले से ज्यादा मजबूत हो गई थी। अपने ऊपर हुए घातक हमले के बावजूद उन्होंने ब्रिटिश सरकार से आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और इसीलिए आज लोग उनकी भी इज्जत बिरसा मुंडा की तरह करते हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में कई विद्रोह हुए हैं और संघर्ष का उभार लगातार होता रहा है। इनमें दो प्रमुख नायक 19 वीं सदी के पहले और अंतिम दौर में हुए, लेकिन बिरसा उलगुलान इन सब में प्रशासन और आदिवासियों के लिए सबसे जाना सुना है। क्योंकि बिरसा मुंडा ने ही सरकार को उनकी मांगें मानने के लिए मजबूर किया। पूरी न सही, आधी अधूरी ही सही। वही एकमात्र ऐसे व्यक्ति और नायक हैं, जिनको इस तरह की उपलब्धि पाने का गौरव हासिल हुआ। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बिरसा मुंडा और उनके उलगुलानियों का सजीव प्रमाण है, जिसमें आदिवासियों के खुंटकट्टी अधिकारों को मान्यता दी गई है। इसलिए इसमें क्या आश्चर्य कि बिरसा मुंडा की स्मृति हर आदिवासी के सीने में धड़क रही है? चालाक गैर-आदिवासी दिकुओं ने हमेशा आदिवासियों के साथ छल किया है, जिसका सबूत आप किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में देख सकते हैं। लोग मुझसे पूछते हैं दिकु कौन हैं? मैं कहता हूं, जैसा कि मुझे आदिवासियों ने बताया है, दिकु वे लोग हैं, जो डाकू हैं, दिख-दिख करने वाले हैं। गैर-आदिवासियों के दृष्टिकोण की जांच करने के बाद कोई भी व्यक्ति इस परिभाषा के औचित्य को आसानी से समझ सकता है। यह अजीब बात है कि अंग्रेजों को दिकु नहीं कहा जाता है। वह इसलिए कि अंग्रेज़ों ने कुछ हद तक इन दिकुओं से उनकी रक्षा की है। आज जब कांग्रेस अंग्रेजों (ईसाइयों) के खिलाफ आदिवासियों के बीच नफरत और आतंक बोने में लगी हुई है, आप पाएंगे कि अभी तक जो थोड़ा बहुत भी न्याय आदिवासियों को मिला है, तो वह सिर्फ गोरे मालिकों से ही। मेरा निजी अनुभव भी ब्रिटिश जिला अधिकारी के पक्ष में है। मैं यह नहीं कहूंगा कि देशवासियों ने हमारे साथ न्याय नहीं किया है। बेशक कई लोगों ने अंग्रेजों से ज्यादा उदारता दिखाई है, लेकिन मैं इस बात से चिंतित हूं कि सरकारी प्रशासन की विशाल सेना गरीब और बेसहारा जनता की दोस्त नहीं है। इस बात को मेरे कांग्रेस के मित्र भी स्वीकार करेंगे कि कांग्रेस शासन के दौरान भ्रष्टाचार सर्वोच्च स्थान हासिल कर चुका है, जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस पार्टी जिम्मेदार है।
हमारा देश अद्भुत विरोधाभासों की भूमि है। अकूत धन और निर्दयी गरीबी, जानलेवा ठंड और चरम गर्मी, समृद्ध मैदान और उजाड़ रेगिस्तान, ऊंचे पहाड़ और समुद्री किनारे, शानदार दर्शन और विवेक शून्य संप्रदाय, सबसे परिष्कृत संस्कृति और अशिष्ट बर्बरता, सबसे कम धर्म और सबसे महत्वपूर्ण नैतिकता, ये सब हमारे देश के चप्पे चप्पे पर मौजूद हैं। 33 कोटि देवता भी हमारे धार्मिक चरित्र को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसीलिए हम हर दिन किसी न किसी एक साधारण आदमी को भगवान बनाते रहते हैं। हमारे लोगों को अंधविश्वास बहुत पसंद है। बिरसा मुंडा के बारे में भी कई आश्चर्यजनक धारणाएं हमारे लोगों के बीच व्याप्त हैं। चालीस साल पहले ही लोगों ने उनको भगवान, धरती आभा और एक अवतार मान लिया था। जैसा कि गांधीजी की भी उनके कई गुमराह अनुयायी पूजा करते हैं। इसलिए इसमें क्या आश्चर्य कि आदिवासी इलाके में भी बिरसा मुंडा की ऐसी कमाल की कहानियां सुनने को मिलती हैं। मिशनरी लोग मूर्ख हैं, जो बिरसा मुंडा की पूजा को लेकर चिंतित हैं। उनमें अलौकिकता जैसा कुछ भी नहीं है। उनके व्यक्तित्व में भगवानपन नहीं है, लेकिन उनके नाम के साथ भगवान का सम्मानित पद जुड़ गया है। बिरसा ही एकमात्र नायक नहीं है, जिसे भगवान कहा जाने लगा है। किसी भी सरकारी अधिकारी या जमींदार को पूछिएगा, वह आपको बताएगा कि गरीब लोग उन्हें भगवान, मां बाप, गरीबों का रक्षक आदि आदि के रूप में संबोधित और प्रचारित करते हैं।
बिरसा मुंडा और उनके आंदोलन से जुड़े विद्रोह को किसी भी कीमत पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। हम अपने इतिहास की पुस्तकों से कावनपोरे नरसंहार के लेखक, मनुष्यों का पागलपन, क्लाइव की आत्महत्या के कारण, क्रुसेडर्स का घृणित अपमान, आर्मेनियन नरसंहार के जिम्मेदार और एबिसिनिया के बलात्कारियों के नाम चाहकर भी नहीं मिटा सकते हैं। हम जानते हैं कि सूर्य इसलिए हर दिन उगता और डूबता है कि कोई हमारी पृथ्वी को चुराकर ले भागता है। इसी तरह लाखों लोग गांधीजी को महात्मा कहकर अपमानित करना जारी रखेंगे और लाखों लोग आदिवासी नायक बिरसा को भी भगवान कहना नहीं छोडेंगे। हम हर किसी को अपनी तरह से सोचने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। समय आने पर ज्ञान के प्रकाश के साथ ही इस अंधविश्वास का इलाज संभव है। शिक्षा हमारे भीतर पोषित अनेक मान्यताओं और अविश्वासों को हिलाएगी। नए सिरे से सोचने और दुनिया को देखने के लिए विवश करेगी। मुझे विश्वास है कि बिरसा मुंडा को कोई भी देवता के रूप में नहीं स्वीकार करेगा। कोई भी धार्मिक प्रभामंडल में उसको बांध पाना मुश्किल है। आज आदिवासी जागरूक और बहुत समझदार हैं। वे निहायत ही भोले और मूर्ख नहीं हैं जैसा कि दिकु लोग उन्हें मानते हैं। डॉ ग्रियर्सन के शब्दों में कहूं तो आदिवासी लोग ‘हिंदुस्तान की सभ्यता के निर्माता’ हैं। हिंदू धर्म बहुत महान हो सकता है, परन्तु आदिवासी दर्शन प्रकृतिवाद और जीववाद की देन है। आदिवासी प्रकृतिवाद कोई कोई जादू-टोना भर नहीं है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि केवल आदिवासी ही इस देश को राष्ट्रीय आत्महत्या से बचा सकते हैं।
जहां तक आदिवासी आंदोलन का संबंध है, बिरसा पंथ एक मिथक है। ऐसी मान्यता मिशनरियों के दिमाग में और यहां तक कि सरकार के अधिकारियों के बीच भी कांग्रेसियों के दुर्भावनापूर्ण प्रचार के कारण घर कर गयी है। यह सब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि आदिवासियों के खिलाफ सरकार ने सैन्य अधिकारियों को तैयार रहने का निर्देश दिया है। पूर्वी राज्यों में आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए आदिवासियों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों से निपटने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने की चेतावनी दी गई है। मेरे उपर यह आरोप लगाया जा रहा है कि पूर्वोत्तर के सीमावर्ती राज्यों के आदिवासियों को मैं हथियार उठाने के लिए प्रेरित कर रहा हूं। राज गांगपुर (उड़ीसा-झारखण्ड की सीमा पर) के सिमका गांव में हुए बर्बर गोलीकांड को बिरसा उलगुलान की पुनरावृत्ति के रूप में देखा जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आदिवासी आंदोलन का असर व्यापक स्तर पर रहा है।
सरकार विश्वास करे या नहीं, एक बात मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि आदिवासी आंदोलन कोई देशद्रोही आंदोलन नहीं है। आदिवासी आंदोलन हमेशा एक वफादार आंदोलन बना रहेगा। अब यह राज्यों और केंद्र सरकारों पर निर्भर करता है कि वे इस वफादार को अच्छे प्रयोजन के लिए किस तरह से इस्तेमाल में ले सकते हैं। वैसे बिहार सरकार ने इस दिशा में अभी तक कोई पहल नहीं की है, सिवा कांग्रेसियों को खुली छूट देने की, ताकि वे खुलकर आदिवासियों के खिलाफ काम कर सकें और उनके बारे में अखबारों में घृणित प्रचार अभियान चला सकें। भारतीय अखबारों ने सामान्य तौर पर आदिवासी आंदोलन का अध्ययन करने से इंकार कर दिया है और इसे अपने कॉलम में सही स्थान दिया है। सभी तरह के विचारों वाले भारतीय राष्ट्रवादियों से आग्रह करने की बजाय मैं केवल सरकार से ही अपील करना पसंद करूंगा कि आदिवासी निष्ठा का लाभ जरूर उठाए। यदि सरकार हिंदुस्तान के सबसे प्राचीन सभ्य आदिवासियों को खतरनाक हिंसक रास्ते पर धकेलने का श्रेय उसी को होगा जो देश के साथ साथ राष्ट्रमंडल के राष्ट्रों के लिए भी समान रूप से हानिकारक होगा।
आदिवासी मुद्दे बिल्कुल स्पष्ट हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार पिछड़े क्षेत्रों के विशेष संरक्षण के संबंध में कहे गए अपने शब्दों पर कायम रहेगी? या वह वफादार आदिवासियों को उन चालाक राज नेताओं की दया के हवाले करने जा रही है, जिनका मकसद सिर्फ राजनीतिक सत्ता पाना है और जो आदिवासियों को मात्र एक भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं मानते? लोक तंत्र की रक्षा के लिए आदिवासियों का उपयोग सरकार कब करेगी? कागजी जवाब, कागजी योजनाएं और हवा हवाई वादे तुरंत बंद होनी चाहिए। सिर्फ ठोस परिणामों से ही आदिवासियों को संतुष्ट किया जा सकता है।
आदिवासी अधिकारों की स्थापना में खुंटकट्टी अधिकारों को प्राथमिक तरजीह मिलनी चाहिए। मुझे संदेह है कि आज बिरसा पंथ जीवित है। फिर भी मैं इस बात पर जोर दूंगा कि व्यक्ति के रूप में बिरसा मुंडा का साहसिक अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए, ताकि बिरसा पंथ को लेकर फैलाई जा रही भ्रांतियां दूर हों और हम बिरसा उलगुलान और उनके अनुयायियों की मौजूदा गतिविधियों को समझ सकें। अनपढ़ लेकिन सबके आकर्षण का केन्द्र बने विद्रोहियों को इस संबंध में एक सही परिप्रेक्ष्य देने में सरकार सक्षम है। कोई भी प्रकाशन चाहे उसका स्रोत वाचिक परंपरा हो या लिखित रिकॉर्ड, आदिवासी आंदोलन को सही रूप में प्रस्तुत करने में समय लेगा। तथ्यों का दमन उसके साथ किया गया छेड़छाड़ केवल अफवाहों को फैलने में मदद करेगा। जैसा कि सर सैमुअल होरे के मामले में देखते हैं। उनके बारे में यह अफवाह है कि वे एक आदिवासी हैं और उन्होंने अपना सरनेम ‘होरो’ से ‘होरे’ कर लिया है। सभी दमनकारी उपाय केवल बुरी ताकतों को मजबूत करेंगे। आदिवासी समस्याओं को हल करने के लिए वास्तव में एक समझदार और ईमानदार प्रयास चाहिए।
हिंदू, ईसाई और अन्य सभी मिशनों से मेरी यही अपील है कि उन्हें आदिवासी आंदोलन में एक सम्मानित भूमिका निभाने की जरूरत है। उन्हें अपनी ‘मां-बाप’ वाली मानसिकता को त्याग कर अपने अनुयायियों को स्व-सहायता के लिए प्रेरित करना चाहिए। सामाजिक सुधार की तुलना में अब तक आदिवासियों में कोई वांछित और सराहनीय आर्थिक उन्नति नहीं हुई है, जबकि धर्मांतरण के कारण पर्याप्त क्षति हो चुकी है। मिशनरियों को आदिवासी आंदोलन से डरने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए, न कि चोरी-छिपे। भारतीय राष्ट्रवाद में उनके और धर्मांतरितों के लिए भी एक कमरा आरक्षित है। हां, कुछ चीजों को उन्हें छोडना पडेगा। क्योंकि धर्म गीत के रूप में ब्रिटिश राष्ट्रगान को यहां कोई सम्मानजनक स्थान नहीं मिलने वाला है, जैसे वंदे मातरम् सभी भारतीयों को स्वीकार्य नहीं है, न ही मराठों के अतिरिक्त शिवाजी को सभी लोग समान भाव से अपना लेंगे और न ही क्लाइव को ब्रिटिशों के अलावा कोई और व्यक्ति याद करने वाला है। भविष्य में मिशनरियों को भारत में अधिक से अधिक हमलों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए अभी ही उनके लिए यह सुनहरा समय है, जब वे अपनी कमजोरियों को दुरुस्त कर ले सकते हैं।
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बिरसा मुंडा को भारतीय इतिहास में स्थान मिलना ही चाहिए। वह स्थान सम्मानजनक होगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि 70 लाख आदिवासियों के साथ आप किस तरह से पेश आते हैं। उनके साथ आपका रवैया सहानुभूतिपूर्ण है या नहीं। आदिवासी सवालों से आप कैसे निपटते हैं। ब्रिटिश राजनैतिकता महान ऊंचाइयों तक पहुंचने में सक्षम है और आदिवासी समस्या ब्रिटिश संसद के लिए सबसे सुनहरे अवसरों में से एक है”।
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