- सुरेंद्र किशोर
यह पूछने पर कि आप डा. सच्चिदानंद सिन्हा के बारे में क्या-क्या जानते हैं, पटना के एक मीडियाकर्मी ने प्रतिप्रश्न किया, कौन सच्चिदा बाबू? जो जेपी के प्राइवेट सेक्रेटी थे?’ इसी तरह डा. सच्चिदानंद सिन्हा के बारे में बिहार सरकार के एक मंत्री बस इतना ही बता पाए कि वे एक महान व्यक्ति थे। उस मंत्री को यह भी नहीं मालूम कि बिहार की सबसे बड़ी लाइब्रेरी सिन्हा लाइब्रेरी उन्हीं की देन है। बेचारे मंत्री जी को पढ़ने-लिखने से कोई मतलब होता तो वे जरूर कभी पटना की सिन्हा लाइब्रेरी गये होते! यदि गये होते तो उन्हें पता होता तो वे कौन थे।
उस सच्चिदानंद सिन्हा का बस एक यही योगदान नहीं है कि उन्होंने बिहार की सबसे बड़ी लाइब्रेरी दी, बल्कि उनकी अगुवाई में चले अभियान के कारण ही अप्रैल 1912 में बिहार, बंगाल से अलग हुआ था। वे डा. राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व के भी निर्माता थे और संविधान सभा के पहले सभापति भी थे। उनके बाद ही डा. राजेंद्र प्रसाद सभापति बने। जिन डा. बी.आर. आम्बेडकर को संविधान निर्माता कहा जाता है, वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के प्रधान थे।
10 नवंबर 1871 को शाहाबाद जिले में जन्मे डा. सच्चिदानंद सिन्हा की जयंती बिहार ने जब मनाई तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उस समारोह में शामिल हुए। हाल में बिहार सरकार को इसकी याद भाजपा नेता हरेंद्र प्रताप ने दिलाई थी। मुख्यमंत्री ने कहा कि हर साल अब ‘बिहार दिवस’ भी मनाया जाएगा।
महारथियों के बारे में जन मानस में काफी कम जानकारी अब इसलिए भी रह गई है कि न तो उनकी जीवनी पढ़ाई जाती है और न ही उनकी जयंती ठीक ठाक ढंग से मनाई जाती है। अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर के इस दौर में वैसे लोगों को भला कौन याद करता है! हां, कुछ वर्षों तक लालू प्रसाद की जीवनी जरूर बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। उनके दल से सत्ता छिन जाने के बाद उसे कोर्स से हटा दिया गया।
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डा. सिन्हा कोई मामूली व्यक्ति नहीं थे। वे अपने जमाने से बहुत आगे थे। महात्मा गांधी के साथ वे लंदन में कानून की पढ़ाई करते थे। डा. सिन्हा जब लंदन से वापस आये थे तो उन्हें अपने गांव में प्रायश्चित करना पड़ा था, क्योंकि तब के दिनों में समुद्र पार करना पाप माना जाता था। उन्होंने एक और कथित ‘पाप’ किया था। उन्होंने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी। उसी पत्नी राधिका सिंहा के नाम पर पटना में सिंहा लाइब्रेरी है। उस लाइब्रेरी में उनकी अपनी भी काफी किताबें हैं, जो जिन्हें उन्होंने खुद पढ़ने के लिए खरीदा था।
शिक्षाविद, लेखक, वकील और पत्रकार डा. सिन्हा ने कई पत्रों का संचालन और संपादन किया। वे बिहार विधान सभा के 1920 में सदस्य थे। पटना विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। 6 मार्च 1950 को उनका निधन हो गया।
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9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के सभापति का पद ग्रहण करने के बाद संविधान निर्माताओं से डा. सिन्हा ने जो कुछ कहा, उसका सार यह है कि ‘मेरी कामना है कि आपका प्रयत्न सफलीभूत हो। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि वह आपको अपना मंगलमय आशीर्वाद दे जिससे आपकी परिषद की कार्यवाही केवल विवेक, जन सेवा की भावना और विशुद्ध देश भकित से ही परिपूर्ण नहीं हो, बल्कि बुद्धिमत्ता, सहिष्णुता, न्याय और सबके लिए सम्मान, सदभावना से भी ओतप्रोत हो। भगवान विधान परिषद के कार्य संचालन में आपको वह दूरदष्टि दे, जिससे भारत को पुनः अपना गौरवपूर्ण अतीत प्राप्त हो और उसे विश्व के महान राष्ट्रों के बीच प्रतिष्ठा और समानता का स्थान मिले।’
डा. सिन्हा ने इस अवसर पर कवि इकबाल की यह कविता सुनाई, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जमां हमारा।’
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डा. सिन्हा जैसी हस्तियों ने जिन उम्मीदों के साथ संविधान बनाया था, क्या आज के शासक वर्ग व राजनीतिक वर्ग उस उम्मीद को पूरा करने के लिए कितना कुछ कर रहा है, यह देखना महत्वपूर्ण है। यदि नहीं कर रहा है कि तो डा. सिन्हा जैसों को याद करके उसके कुपरिणामों के प्रति जनता का आगाह करना भी जरूरी जान पड़ता है।
(डा. सिन्हा पर कई साल पहले लिखा यह लेख प्रस्तुत है)