विगत 16 से 20 जून तक ,पटना में , कार्ल मार्क्स (5 . 5 . 1818 – 14 .3 . 1883 ) के दो सौवें जन्म -वर्ष पर ,एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस आयोजित हुआ ,जिसमे दुनिया के लगभग हर हिस्से से तकरीबन सौ विशिष्ट बुद्धिजीवी शामिल हुए . पांच दिवसीय इस आयोजन में सैंतीस स्मारक व्याख्यान हुए और सतरह आलेख प्रस्तुत किये गए . इस संगोष्ठी का आयोजन बिहार की प्रमुख संस्था आद्री (एशियन डेवलॅपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट ) ने किया .
यह समारोह ऐसे समय में हो रहा था ,जब मार्क्स का नाम लेने ,या चर्चा करने से लोग बचना पसंद करते हैं . पूरी दुनिया में एक तरह से प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथ की आंधी चल रही है . जिस रूस में 1917 में लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक क्रांति हुई ,और जहाँ पहली दफा मार्क्सवादी विचारों से जुड़े लोग राजसत्ता पर काबिज हुए ,जहाँ पहली दफा समाजवादी समाज की स्थापना के प्रयोग हुए ,वहां आज पुतिन जैसा एक राजनेता सत्तासीन है ,जो वैचारिक रूप से फासिस्ट है . चीन के हाल भी लगभग वही हैं . अमेरिका से लेकर पूरे यूरोप और हमारे भारत की स्थिति सबके सामने है . ऐसे में मार्क्स को इस रूप में याद करना एक साहसपूर्ण कार्य ही कहा जायेगा . इसके लिए आद्री के शैबाल गुप्ता और उनके सहयोगियों की जितनी भी तारीफ की जाय ,कम होगी .
इस छोटे -से पोस्ट में पूरे आयोजन की विवेचना मुश्किल है . पटना कोई महानगर नहीं है .पिछड़े हुए बिहार का एक ऐसा शहर ,जहाँ रेनेसां की कोई पृष्ठभूमि नहीं है . पूरे प्रदेश में ढंग की न कोई यूनिवर्सिटी है ,न कोई अन्य शैक्षणिक संस्थान . प्रतिभावान छात्रों -अध्यापकों का पलायन हो जाता है . बावजूद इसके इस कांफ्रेंस को लेकर पटना के बुद्धिजीवियों में एक उत्साह था . पांच दिनों तक पटना मार्क्समय बना रहा . हालांकि समारोह अपने स्वरूप में आभिजात्य बना रहा . पटना के सबसे बड़े होटल मौर्या के वातानुकूलित कक्ष में हो रहे इस आयोजन में यदि सिरे से कुछ अनुपस्थित था ,तो वह था मज़दूर और सर्वहारा ,जिसके लिए मार्क्स ने जीवन भर चिंतन और संघर्ष किया . एक दूसरा अभाव भी मैंने लक्षित किया . संगोष्ठी में विभिन्न कम्युनिस्ट दलों से जुड़े कुछ नेता -कार्यकर्त्ता प्रतिदिन बने रहे . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े वयोवृद्ध ( 95 वर्षीय ) गणेशशंकर विद्यार्थी पूरे समय तक पांचो दिन बने रहे . माले और सीपीआई से जुड़े लोग भी रहे ,लेकिन कोई सोशलिस्ट साथी भूलकर भी झाँकने नहीं आया . इसी पटना में कभी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना (1934 ) जयप्रकाश नारायण के प्रयासों से हुई थी . इस देश में मार्क्सवाद का प्रचार -प्रसार सोशलिस्टों ने बढ़ -चढ़ कर किया . आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश जी मार्क्सवाद के अधिकृत विद्वान् और अध्येता माने जाते थे . लेकिन इनकी राजनीतिक संततियों को शायद इस बात का भी ध्यान नहीं है कि समाजवादी मूलतः मार्क्सवादी होते हैं . मंडलवाद की बॉउंड्री के बाहर जाने में उनकी कतई दिलचस्पी नहीं होती . यहां वे अपने आर्कीडिया में सुरक्षित और सुखी महसूस करते हैं . सोचने -विचारने -पढ़ने की अब कोई प्रवृति उनके बीच नहीं है . अस्तु .
कांफ्रेंस में जिन लोगों ने भाग लिया उनमे कुछ प्रमुख लोगों के नाम का उल्लेख करना चाहूंगा . अंजन मुखर्जी , मेघनाद देसाई ,दीपक नैय्यर ,दीपांकर गुप्ता , Seongin Jeong ,Shapan Adnan , Shannon Brincat , Edward Palmer , Giulitto Chisa , Kipton Jenson , Jean Joseph Boillet , Chun Lin , गायत्री चक्रवर्ती स्पीवॉक, प्रशांत धर , ईश मिश्र , अजित सिन्हा , रमा वासुदेवन , Barbara Harriss , Helene Fleury , Maryam Aslang , Kelvin Sanders , Tian yu Cao , Samuel Hollander , Roberto Massari , Mikhail yu Pavlov , Ndongo Samba Sylla , Andrew J Douglas , Jared Loggins , Marcello Musto ,Michael Brie , Kohei Saito , Peter Hudis , Elvira Concheira , Paula Rauhhala , Peter Beilnarz , Cynthia Lucasttewitt , Jan Toporowaski , दीपक ज्ञवाली , नवयुग गिल . सतीश जैन आदि .
संगोष्ठी में जो व्याख्यान हुए उनकी समीक्षा तो पोस्ट में संभव नहीं है ,लेकिन यह जरूर कह सकता हूँ आज भी विश्व भर के बुद्धिजीवियों को मार्क्स किसी न किसी रूप में आकर्षित करते हैं . अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर गायत्री चक्रवर्ती का कहना था मार्क्सवाद कोई जड़ विचारधारा नहीं है . मार्क्स ने स्वयं अपने जीवनकाल में कई दफा अपनी स्थापनाओं पर ही सवाल उठाये . मसलन 1872 में मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र को बीते जमाने की चीज कह दिया था . प्रोफ़ेसर मार्सेलो मुस्टो ने भी थोड़े भिन्न कोण से इसी बात को आगे बढ़ाया . उनका कहना था मार्क्स अपने आलोचकों को पसंद करते थे क्योंकि उनसे हमेशा उन्हें नए विचारों की प्रेरणा मिलती थी .
संगोष्ठी में जो स्मारक व्याख्यान हुए , वे विश्व के जाने -माने मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट योद्धाओं को समर्पित थे . कार्ल मार्क्स मेमोरियल लेक्चर पहला था और कोजो उनो मेमोरियल लेक्चर आखिरी .इसके बीच रजनी पाम दत्त ,एडम स्मिथ , अंटोनिओ ग्राम्शी , मानवेंद्रनाथ राय , एंगेल्स , मौरिस डॉब्ब , निकोलाय बुखारिन , डांगे , रुडोल्फ हिल्फेर्डिंग ,जोआन रॉबिंसन , फ्रैंट्ज़ फानोन , डेविड रिकार्डो , जैं पॉल सार्त्रे , ग्यॉर्गी लुकाच , प्लेखानोव ,मिचेल कलकी , पाब्लो नेरुदा , रोसा लक्सेम्बर्ग ,नम्बूदरीपाद , पॉल लफरगे, ट्रोट्स्की , चे गुएवारा ,लेनिन और यहां तक कि पी सी जोशी स्मारक व्याख्यान हुए ,लेकिन आयोजकों ने माओ च तुंग मेमोरियल व्याख्यान कराने की हिम्मत नहीं की . अब यह भूल वश हुआ ,या डर वश , यह तो आयोजक जानेंगें ;लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि माओ को याद किये बिना यह समारोह अधूरा ही कहा जायेगा .
आयोजन हुआ तब खूबियों के साथ कुछ कमियां रही होंगी ,लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि पूरी दुनिया में इतनी गंभीर और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कोई दूसरी गोष्ठी मार्क्स की द्विशती पर शायद ही हुई हो . मेरे जानते तो नहीं ही हुई है . यह समारोह बिहार में हुआ ,यह मुझ जैसे बिहारियों केलिए थोड़े गुमान की भी बात है . आयोजकों को एक बार फिर बधाईदेना चाहूंगा .
- प्रेमकुमार मणि के फेस बुक वाल से