जम्मू-कश्मीर में आखिरकार भाजपा और पीडीपी का बेमेल गठबंधन खत्म हो गया। बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछताय- वाली कहावत चरितार्थ हुई। अव्वल तो भाजपा को पीडीपी के साथ जाना ही नहीं चाहिए था और अगर गठबंधन किसी मजबूरी या रणनीति का हिस्सा था तो इसका हासिल क्या हुआ, भाजपा को मंथन करना चाहिए। वैसे भी कस्मीर अशांत पहले से ही है और पीडीपी-भाजपा की सरकार बनने के बाद इसमें इजाफा ही हुआ। भाजपा ने सरकार से अलग होने का फैसला तब लिया, जब पानी सिर से ऊंचा हो चुका था। रोज सुरक्षा बलों की हत्या से देश में वैसे ही गुस्से की स्थिति थी और इसमें पलीता तब लग गया, जब शुजात बुखारी जैसे प्तरकार की हत्या कर दी गयी।
घाटी के पत्थरबाजों पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार ने नोटबंदी के तकलीफदेह हालात में पूरे देश को झोंक दिया। पत्थरबाजों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार बनाने के पीछे भाजपा की मंशा यही रही होगी कि इससे अशांति पर काबू पाया जा सकेगा। पर, हुआ इसके ठीक उल्टा। भाजपा नरमी बरतती रही और घाटी में आतंकी उत्पात मचाते रहे। उत्पात के बावजूद भाजपा ने रमजान में सीज फायर के जरिये मुफ्ती को एक मौका दिया और घाटी के ऐवाम को भी कि आतंकी और उनको शह देने वाले सुधर जायें, लेकिन इसका कोई सकारात्मक असर नहीं हुआ। उल्टे सुरक्षा बल के जवान रमजान के पाक महीने में भी अपनी करतूतों से बाज नहीं आये।
बहरहाल, भाजपा ने जो निर्णय लिया है, उस पर टीका-टिप्पणी होती रहे, लेकिन इस बात को खुले मन से कबूल करना चाहिए कि फैसला उचित है। भाजपा ने संवैधानिक संकट खत्म करने के लिए पीडीपी से बेमेल गठबंधन कर लिया था और यह आतंकियों या आतंकियों को पनाह देने वाले सूबे के तत्वों को संकेत था कि सुधर जायें लोग तो विकास की गंगा बहेगी घाटी में। बाढ़ की विपदा के वक्त भी भाजपा ने ऐसी उदारता दिखायी थी, लेकिन आतंकियों का कोई समाजशास्त्र नहीं होता।
- दीपक कुमार