- श्याम किशोर चौबे
मध्य वर्ग पर कोरोना की असल मार पड़ी है। यह वर्ग सर्वाधिक बदहाल है। गरीबों को बचाने और अमीरों को उबारने की सभी सोच रहे। इनकी सुनने वाला कोई नहीं। कोरोना काल में गुजरे दो महीने के लाकडाउन के कारण विकसित नगरों/ महानगरों/ राज्यों का आसरा छोड़कर अपने-अपने देस की ओर लौटनेवाले कामगारों के नाम हर सक्षम प्राधिकार आठ-आठ आंसू बहा रहा है, लेकिन उस मध्य वर्ग पर किसी की नजर नहीं जा रही, जो तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाता है और अपनी बुद्धि की ही कमाई खाता है।
पहले से ही मंदी झेल रहे इस विशाल देश में लाकडाउन के कारण जो महामंदी दरवाजे पर आन खड़ी हुई है, उसकी असल मार तो मध्य वर्ग पर ही पड़ी है। जो बचा-खुचा है, उसके नतीजे लाकडाडन के खुलने के बाद सामने आना शुरू हो जाएंगे। सवाल यह है कि जीवन का एकमात्र आधार नौकरी गवां चुके या गंवाने की आशंका से घिरे हुए या वेतन कटौती के दौर से गुजर रहे मध्य वर्ग का वर्तमान जिस कदर चौपट हुआ जा रहा है, उसका भविष्य क्या होगा? अभी यह बस सोचा ही जा सकता है।
फर्ज करें कि किसी निजी कंपनी में काम करनेवाले मध्य आय वर्ग वाले कर्मी की आज की तारीख में सेवानिवृत्ति होती है। बेशक उसने अपने बच्चों की तालीम पूरी करवा दी है। कहीं किसी नगरीय इलाके में एक छोटा-मोटा घर/ फ्लैट का मालिक बन गया है और उसके पास अब 10-15 लाख रुपये बचे भी हैं तो वह आज का और कल का जीवन कैसे बिताएगा? ऐसा वर्ग अपना बुढ़ापा बची-खुची बचत को बैंकों के हवाले कर गुजारने के मंसूबे पाले रहता है। उसके पास आम सरकारी कर्मचारियों की नाईं पेंशन का भी सहारा नहीं होता। वह अगर ईपीएफओ से जुड़ा हुआ है तो भी वहां से क्या मिलता है, ऊंट के मुंह में जीरे की छौंक से कमतर ही। वह यदि आज की तारीख में अपनी बचत बैंक के सुपुर्द कर चैन से रहना चाहे तो उसका रिटर्न कितना मिलेगा। जीरे की छौंक के बराबर ही तो !
रेपो रेट को आए दिन क्षीणतर किए जाने की कहानी बता रही है कि इसका अभी क्लाइमेक्स नहीं आया है। बेचारा मध्य वर्ग प्रायः 21 लाख करोड़ के राहत पैकेज में अपने लिए कुछ ढूंढना चाहे तो उसको कितनी उम्मीद बंधेगी या नाउम्मीदी ही हाथ लगेगी, यह भी वह बखूबी समझ चुका है।
हिंदी पट्टी के झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार आदि राज्यों ने अबतक इतना ही विकास किया है कि ये विकसित राज्यों को मजदूरों की बड़ी-बड़ी खेपों की आपूर्ति कर देते हैं। इन राज्यों की सरकारें सुनहरे ख्वाब दिखाने में कभी नहीं चूकतीं कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और न जाने क्या-क्या का हब बना कर जल्द ही विकसित राज्यों की श्रेणी में इन्हें ला खड़ी करेंगी। महज सवा तीन करोड़ आबादीवाले छोटे से राज्य झारखंड में अबतक तीन लाख से अधिक मजदूरों की वापसी हो चुकी है, जबकि इससे दूनी से अधिक संख्या अभी प्रवास में ही है। इन मजदूरों में बहुतेरे हुनरमंद भी हैं। राज्य को सोचना चाहिए कि अपना हुनर वह किस कदर कौड़ी के मोल लुटाता रहा है।
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ये बातें सुनने में थोड़ी तीखी जरूर लगेंगी, लेकिन यह सच है कि जिनको हम श्रमिक कहते हैं, वे अपना श्रम ही तो बेचते हैं। हिंदी क्षेत्र के श्रमिक सप्लायर राज्य मनरेगा से अधिक सोच ही नहीं पाते, जबकि मनरेगा का असल मायने बैठे से बेगार भला वाला है। पता नहीं क्यों ये राज्य लगभग सवा दो सौ साल पहले लखनऊ में निर्मित प्रसिद्ध परिसर भूलभुलैया-बड़ा इमामबाड़ा की ओर देख ही नहीं पाते। अवध प्रान्त में 4-5 वर्षों से पड़ रहे दुर्भिक्ष से निपटने के लिए तत्कालीन नवाब आसफउद्दौला ने यह निर्माण कराया था। श्रम जाया ही करवाना है तो हर राज्य को एक-दो ऐसे निर्माण जरूर कराना चाहिए, जो ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के हों।
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लाकडाडन ने निश्चय ही निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं को भी अपनी चपेट में ले लिया है। ऐसे नियोक्ताओं में छोटे-मोटे रेस्तरां और मध्य दर्जे की परचून दुकानों से लेकर रीयल इस्टेट, एमएसएमई और मध्यम तथा ऊंचे दर्जे के उद्योग भी शामिल हैं। हर किसी का हाल बेहाल है। भारत एक कंज्यूमर स्टेट है, जिसके उद्योग-व्यापार का अधिकतर हिस्सा कर्ज आधारित है। मंदी और दो-तीन महीने की बंदी ने बाजार की कमर तोड़ दी है। ऐसे में कितने उद्योग-व्यवसाय पुराने अंदाज में कब खड़े हो पाएंगे, यह कहना मुश्किल है। इनमें से कितने बंद हो जाएंगे, यह भी अभी तय नहीं है। कोरोना का रक्षा कवच सोशल डिस्टेंसिंग रेस्तरां-होटल व्यवसाय के लिए एक तरह का काल ही तो है। नागिन जैसी लहराती मंदी और बंदी सैलरी कट और नौकरी कट का सबसे बड़ा कारण है।
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रिजर्व बैंक ने भले ही ईएमआइ और ब्याज अदायगी के लिए छह महीने की मोहलत दे दी है लेकिन सच यही है कि इससे जेब का सिरदर्द बढ़ना ही है, फौरी तौर पर जरूर राहत महसूस हो रही है। यह तय है कि जब उद्योग-व्यापार चलेंगे, नौकरियां तभी बरकरार रहेंगी और तरक्की भी होगी। उद्योगपति और व्यापारी सिर पीटते रहेंगे तो नौकरियों की खैर कतई नहीं। ग्लोबलाइजेशन के बाद ऐसी नौकरियों की उमड़ी बाढ़ का यह कोरोना काल प्रलय काल ही है।
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25-30 वर्ष पहले से ऐसी नौकरियां पाकर अलमस्त जीवन जीनेवाले मध्य वर्ग की पेशानियों पर आज की तारीख में छाया बादल कुछ और ही कहानी कह रहा है। इस वर्ग की तादाद कम नहीं है। आईटी सेक्टर हो कि मैनेजमेंट सेक्टर या ई-कामर्स सेक्टर कि ऐसा ही कोई और सेक्टर, दो-तीन दशकों से सरकारी नौकरियों में दिनोंदिन आ रही कमी का बेहद उम्दा सब्सिच्यूट बनकर उभरा था। ग्लोबलाइजेशन के ही कारण देश में उद्योगों की चांदी हो गई थी। छोटे-बड़े उद्योग-धंधों की चल निकली थी। निजी क्षेत्र में बड़ी तेजी से उभरे मध्य वर्ग ने देसी बाजार को बड़ा फलक दे दिया था। इस मामले में पिछड़े राज्यों में निश्चय ही सरकारी योजनाओं की बाढ़ के कारण ठेकेदारों का एक नया वर्ग पैदा हुआ, जिसके कारण बाजार में रौनक बढ़ी, छोटे-मोटे कस्बों में भी माल संस्कृति ने पांव पसार दिये। बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाना, ईएमआइ के भरोसे फ्लैट और गाड़ी तथा होटल-रेस्तरां का खाना, महंगे ब्रांड के कपड़े धारण करना स्टेटस सिंबल बन गया, जिसमें मध्य वर्ग बड़ी तेजी से कूद पड़ा।
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अब तुलना करिए, दूसरे राज्यों से अपने राज्य की ओर भाग रहे मजदूरों और ऊपर वर्णित मध्य वर्ग की। हालत किसकी अधिक खस्ता है? सरकार की नजरें किस वर्ग पर हैं? मजदूर वर्ग बड़ा वोट बैंक है। वह पांव पैदल चलने से लेकर हर तरह का काम करना और यहां तक रोना-हल्ला करना भी जानता है। उसको थोड़े में संतुष्ट कर आशीर्वाद लिया जा सकता है, जबकि सुविधाभोगी बन चुका मध्य वर्ग खुद को एलिट क्लास मानकर न खुलकर हंसता है, न सार्वजनिक तौर पर रो सकता है। अलबत्ता वह झूठी शान में घुटता जरूर रहा है। उसका भविष्य भी यही है। मजदूरों के समक्ष खुला आसमान है, जबकि मध्य वर्ग के आप्शन बेहद सीमित हैं। उसको ऐसा वोट बैंक माना जाता है, जो चकाचौंध पर कुरबान होने को तैयार-तत्पर रहता है। उसकी मुसीबत हरने कौन सामने आएगा? कोरोना की प्रलयंकारी मार से वह सुबक भी पाएगा या नहीं, वह खुद भी नहीं जानता क्योंकि ‘सेक्टर’ की नौकरी के मायाजाल ने उसको न तो गांव का रख छोड़ा है, न ही वह खुद को परचून की दुकान चलाने लायक समझता है।
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