कोलकाता। ममता बनर्जी और बीजेपी में कहां किससे चूक हुई या किसके किस काम से किसे नुकसान हुआ, यह सवाल बंगाल विधानसभा चुनाव में अब उठने लगा है। ओपिनियन पोल में ममता बनर्जी बीजेपी से लगातार बढ़त बनायी हुई हैं तो इसका आधार भी उनके ऐसे कुछ कदम हैं, जो बीजेपी भी उठा सकती थी, पर चूक गयी। बीजेपी की जमीन जरूर बंगाल में अब भी पुख्ता है, लेकिन उसकी कुछ कमियां अगर उसके परिणाम पर असर डाल दें तो इसकी वजह निश्चित तौर पर ममता बनर्जी की रणनीति मानी जाएगी।
वाम दलों के 34 साल के शासन में उनकी कामयाबी की एक बड़ी वजह चुनाव से दो-ढाई महीने पहले उम्मीदवारों के नामों की घोषणा को मानी जाती थी। बंगाल में दीवार लेखन चुनाव प्रचार का सबसे बेहतर माध्यम रहा है। नारे, उम्मीदवारों के नाम और उनके पक्ष में बनाये गये कार्टून मतदाताओं को आकर्षित करते रहे हैं। वाम दलों के ही नक्शेकदम पर चलते हुए ममता बनर्जी ने चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद अपने 291 प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिये। इससे ममता की पार्टी टीएमसी के उम्मीदवारों को दीवार लेखन कर अपना प्रचार करने की खुला मौका मिल गया। अगर उम्मीदवारों के चयन को लेकर किसी नेता-कार्यकर्ता में नाराजगी दिखी तो उसे मनाने-समझाने का अवसर ममता को मिल गया। या फिर ऐन मौके पर उसने पार्टी छोड़ी तो उस रिजेक्टेड नेता को बीजेपी ने प्रसन्न मुद्रा में अपना लिया।
ममता बनर्जी का चुनाव प्रचार पहले शुरू हो गया। जनसभाएं होने लगीं, लेकिन बाकी दलों के उम्मीदवार अभी इंतजार की मुद्रा में हैं। खासकर बीजेपी ने अभी तक दो लिस्ट जारी की है, जिसमें 29 सीटों के मुकाबले सवा सौ के आसपास नाम घोषित हुए हैं। वाम दलों, कांग्रेस और आईएसएफ में वाम दलों को छोड़ बाकी दलों ने भी अपने कोटे के सभी उम्मीदवारों की घोषणा अभी तक नहीं की है। 2019 से ही विधानसभा की तैयारी में जुटी बीजेपी की हालत तो और खराब है। उसे अभी तक सारी सीटों पर उम्मीदवार ही नहीं मिले, जो झटके में सबसे नाम जारी कर सके। हालत तो यह है कि बीजेपी ने राज्यसभा के एक और लोकसभा के तीन सदस्यों को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतारा है। अगर सूत्रों का दावा सही है तो बीजेपी अभी और सांसदों को चुनाव के मैदान में उतार सकती है। इनमें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष के साथ कद्दावर नेता मुकुल राय के नाम भी शामिल हैं। पहले से बीजेपी ने सांसद बाबुल सुप्रियो, लाकेट चटर्जी समेत लोकसभा के तीन और राज्यसभा के एक सदस्य को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्र आवंटित कर दिया है।
ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा पहले ही कर दी थी। ऐसा उन्होंने अपनी पार्टी से निकले और बीजेपी का हिस्सा बने शुभेंदु अधिकारी को उनकी औकात का अहसास कराने के लिए किया था। अमूमन मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के चेहरे पक्की जीत के लिए दो-दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ते रहे हैं। 2014 में खुद नरेंद्र मोदी ने दो जगहों से पर्चे दाखिल किये थे। जीत दोनों जगहों से हुई, लेकिन बाद में उन्होंने वाराणसी को ही मूल क्षेत्र माना। लेकिन ममता बनर्जी खुद के लिए पूर्व घोषित नंदीग्राम सीट से ही चुनाव लड़ने की जिद ठान कर एक नजीर पेश कर रही हैं।
नंदीग्राम में ममता बनर्जी जख्मी हुईं। उन्होंने आरोप लगाया कि उन पर हमला किया गया। हालांकि इस आरोप को चुनाव आयोग ने अपने पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट पर हमला मानने से इनकार कर दिया। लेकिन प्लास्टर चढ़े पांव लेकर व्हील चेयर पर ममता बनर्जी का चुनाव प्रचार करना उनके प्रति सहानुभूति तो पैदा करता ही है। भले ही इस घटना के बाद नंदीग्राम के डीएम-एसपी और सीएम सिक्योरिटी में तैनात अफसरों को बदल कर चुनाव आयोग ने नंदीग्राम की पुनरावृत्ति रोकने का ईमानदार प्रयास किया है, लेकिन इससे ममता की मुश्किलें बढ़ गयी हैं। वे अपने दौरे में आम लोगों से खुल कर मिलती थीं, अब इस पर उनकी सुरक्षा में तैनात अफसर-जवान इसकी इजाजत नहीं देते।
चुनाव के ऐन वक्त जिस तरह केंद्रीय जांच एजेंसियां विरोधी दलों के खिलाफ सक्रिय हो जाती हैं, उस पर पहले से ही केंद्र सरकार पर सवाल उठते रहे हैं। इस बार बंगाल में भी यही हो रहा है। एजेंसियों की जांच के कारण बिल्कुल वाजिब होते हैं, लेकिन अवसर अनुकूल नहीं होता। गौ तस्करी, कोयला तस्करी या बैंक खातों में लेन-देन की जांच के लिए केंद्रीय एजेंसियां- ईडी, आईटी और सीबीआई जिस तरह अभी पश्चिम बंगाल में सक्रिय हैं और ममता के करीबी, यहां तक उनके रिश्तेदार तक लपेटे में लिये जा रहे हैं, उससे ममता को जनता की सहानुभूति मिल जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।