महात्मा गांधी के धुर विरोधी सी आर दास कैसे उनके मुरीद बन गये, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह। गांधी में अपनी बात मनवा लेने की अद्भुत क्षमता थी। अपनी बात आम जन तक पहुंचा देने की कला भी उनकी खासियत थी।
- शेष नारायण सिंह
आज के सौ साल पहले असहयोग आंदोलन की शुरुआत हो गयी थी। उस समय महात्मा गांधी की उम्र पचास साल थी। दुनिया के जनांदोलनों के इतिहास में असहयोग आन्दोलन का मुकाम बहुत ऊंचा है। अंग्रेजों की वादाखिलाफी को रेखांकित करने के लिए महात्मा गांधी ने पूरे देश को तैयार कर दिया था, लेकिन कुछ वक्त बाद आन्दोलन हिंसक हो गया और चौरी चौरा का हिंसक काण्ड हो गया। आन्दोलन के नेता खुद महात्मा गांधी थे। उन्होंने बिना कोई वक़्त गँवाए आन्दोलन को वापस ले लिया।
उस फैसले के बाद लोगों की मनोभावना पर बहुत ही उलटा असर पड़ा, लेकिन गांधी जी को मालूम था कि हिंसक आन्दोलन को दबा देना और उसको ख़त्म कर देना ब्रिटिश सत्ता के लिए बाएं हाथ का खेल है। 1857 में जिस तरह से हिंसक विरोध को अंग्रेजों ने नेस्तनाबूद किया था, वह 1919 के नेता को मालूम था। उसके बाद से गांधी जी लगातार प्रयोग करते रहे। कांग्रेस जो सीमित आबादी तक की पंहुच वाली पार्टी थी, उसको गांधीजी जनसंगठन का रूप दे रहे थे। इसके लिए वे शाश्वत संवाद की स्थिति में रहते थे। 1919 के आन्दोलन की तैयारी में भी उनकी सभी से संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता को बहुत ही बारीकी से देखा और समझा गया है।
असहयोग आन्दोलन के गांधीजी के प्रस्ताव का कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन में देशबंधु चितरंजन दास ने ज़बरदस्त विरोध किया था। उसके बाद नागपुर में उस प्रस्ताव को पक्का किया जाना था। सी आर दास ने तय कर लिया था कि गांधीजी के प्रस्ताव को हर हाल में फेल करना है। इसीलिये नागपुर जाने के पहले उन्होंने कांग्रेस के बहुत सारे डेलीगेट बनाए और सब को कलकत्ता से लेकर नागपुर गए। सबको गांधी जी के प्रस्ताव का विरोध करना था, लेकिन जब गांधी जी ने अपना प्रस्ताव रखा तो वही सी आर दास गांधी के प्रस्ताव के पक्ष में हो गए और उन सारे लोगों से गांधी के पक्ष में मतदान करने के लिए कहा, जिनको नागपुर लाये थे। जाहिर है प्रस्ताव लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया, क्योंकि कलकत्ता से नागपुर के बीच में गांधी के सबसे बड़े विरोधी मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका ख़त्म हो चुकी थी और अब सी आर दास अब गांधी के समर्थक थे।
हमने देखा है कि लोगों को अपनी बात समझा देने की क्षमता, गांधी की शख्सियत की सबसे बड़ी ताक़त थी। गांधी, संवाद की विधा के सबसे बड़े ज्ञाता हैं। उनके कार्य के हर पहलू के बारे में खूब लिखा गया है, बहुत सारे शोध हुए हैं, लेकिन यह एक पक्ष ऐसा है, जिसपर उतना शोध नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था। महात्मा गांधी के हर आन्दोलन की बुनियाद में अपनी बात को कह देने और सही व्यक्ति तक उसको पंहुचा देने की क्षमता की सबसे प्रमुख भूमिका होती थी। (जारी)
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