- शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी ने हर कालखंड में तानाशाही को चुनौती दी। यह रामबाण की तरह असरदार भी रहा है। गांधीजी ने चंपारण में जो किया, वह ब्रितानी सत्ता को चुनौती थी। स्थापित सत्ता ही तानाशाही को चुनौती देने का गांधी जी का तरीका हर कालखंड में रामबाण की तरह असर करता है। आज़ादी की लड़ाई में 1919 से 1947 तक के इतिहास ने हर मोड़ पर देखा गया है कि उनकी बात को हमेशा ही बहुत ही गंभीरता से लिया जाता रहा है। 1920, 1930 और 1942 के उनके आंदोलनों को देखा जाए तो उनके समर्थकों में ही एक बड़ा वर्ग था, जो उनके नतीजों के बारे में सशंकित था। उनको लगता था कि जिन नतीजों की उम्मीद महात्मा गांधी कर रहे थे, उनको हासिल नहीं किया जा सकता था। लेकिन जब 1920 का आन्दोलन शुरू हुआ और हिन्दू मुसलमान, सिख, ईसाई सभी उनके साथ जुड़ गए। किसान-मजदूर गांधी के साथ खड़े हो गए। अकबर इलाहाबादी ने गांधी के इसी दौर में कहा था कि, “मुश्ते-खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं/ बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं।”
1920 के आन्दोलन के बाद अंग्रेजों को आम भारतीय जनमानस के बीच गांधी की अपील की ताक़त समझ में आ गई थी। अँगरेजों ने साफ़ देखा कि हिन्दू-मुसलमान एक हो गये हैं, मजदूर- किसान एक हो गये हैं। शहरी-ग्रामीण सब गांधी के साथ हैं। जिस बांकपन से गांधी ने चौरी चौरा के बाद आन्दोलन को वापस लिया था, वह अपने आप में गांधी के आत्मविश्वास और अपनी बात को स्वीकार करवाने की क्षमता का परिचायक है। 1930 के आन्दोलन में जब उन्होंने दांडी यात्रा की योजना बनाई तो देश के गांधी समर्थक बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी शंका से भरा हुआ था कि क्या नमक सत्याग्रह से वे नतीजे निकलेंगें, जिसकी कल्पना गांधी जी ने की थी। उनके बड़े समर्थक मोतीलाल नेहरू ने करीब बीस पृष्ठ की चिट्ठी लिखी और दावा किया कि दांडी यात्रा से कुछ नहीं होने वाला है। गांधीजी ने पोस्टकार्ड पर एक लाइन का जवाब लिख दिया कि “आदरणीय मोतीलाल जी, करके देखिये।” उसके बाद मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में नमक क़ानून तोड़ने की घोषणा की और गिरफ्तार कर लिए गए। उन्होंने गांधीजी को तार भेजा, जिसमें लिखा था, ” आदरणीय गांधी जी, करने के पहले ही देख लिया।” बाद में तो खैर, पूरी दुनिया ने देखा कि उस सत्याग्रह ने ब्रितानी सत्ता को इतना बड़ा आईना दिखा दिया कि उनको गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट लाकर मामले को शांत करने की कोशिश करनी पड़ी।
इस बीच भारत के नेताओं में जो लोग अंग्रेज़ी राज के वफादार थे, उन सबको भी गांधी को नाकाम करने के लिए सक्रिय कर दिया गया था, लेकिन जनता ने वही सुना, जो गांधी सुनाना चाहते थे। बाकी लोग उस समय के इंटेलिजेंस ब्यूरो के अफसरों के हुक्म के गुलाम ही बने रहे। 1942 में भी भारत छोड़ो के नारे की उपयोगिता पर भी कांग्रेस के अंदर से ही सवाल उठाए जा रहे थे। लेकिन गांधी जी ने किसी की नहीं सुनी। आज़ादी की लड़ाई के सभी बड़े नेताओं को अहमदनगर किले की जेल और महात्मा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस में बंद कर दिया गया। 1945 में जब जेल से लोग बाहर आये तो कई नेताओं की हिम्मत चुनाव में जाने की नहीं थी, लेकिन जब लोग भारत के शहरों और गाँवों में निकले तो उन्होंने देखा कि लगता था कि गांधी ने हर घर में सन्देश पंहुचा दिया था कि अंगेजों को भारत छोड़कर जाना है। कुछ इलाकों में अंग्रेजों की कृपापात्र मुस्लिम लीग को भी सफलता मिली, लेकिन पूरे देश में गांधी का डंका बज रहा था। पूरा देश गांधी के साथ खड़ा हो गया था। इतना बड़ा जनांदोलन महात्मा गांधी इसलिए चला सके क्योंकि उनकी जनता से संवाद स्थापित करने की क्षमता अद्भुत थी।
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