ओमप्रकाश अश्क
पिता को परिभाषित करने में अमूमन आदमी जैविक पिता को ही केंद्र में रखता है। मानस पिता की चर्चा कहीं नहीं होती। जो जन्म का कारक बना, उसे हम आजीवन याद करते हैं, लेकिन मानसिक विकास में जिसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, उसे मानस पिता तक कहना किसी को गवारा नहीं। मानस पिता की भूमिका में होते हैं वे गुरु, जिन्होंने व्यक्ति में अक्षर-शब्द और वाणी-लेखन के ज्ञान को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी हो। कक्षा और शिक्षण संस्थाओं के परिवर्तन के साथ गुरु बदलते रहते हैं। आसी स्थिति के बावजूद आदमी को कोई एक गुरु तो कभी नहीं भूलता, जिसने जीवन की दशा-दिशा बदल देने में अपना ज्ञान उड़ेल देने में कभी कोई कोताही न की हो। ऐसे किसी एक गुरु की बड़ी भूमिका मुझे अपने जीवन में नजर आती है तो वह हैं- केदार नाथ पांडेय। मैं उन्हें मानस पिता मानता हूं। मेरे जीवन का दुर्योग भी ऐसा रहा है कि जैविक पिता ने मेरे बाल्य काल तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन किया और असमय मुक्ति पा ली, लेकिन जीवन के पग-पग पर अपनी ज्ञान प्रदाता भूमिका के तहत आज भी मेरे मानस पिता और मार्गदर्शक केदार नाथ पांडेय बने हुए हैं। पितृवत प्यार के साथ जीवन में ज्ञान का संचार करने वाले को गुरु के संबोधन के बजाय मैं मानस पिता का दर्जा देने का पक्षधर रहा हूं। अपने स्कूली जीवन के आरंभ से पेशागत पृष्ठभूमि के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने के दरमियानी हालात पर गौर करता हूं तो सदैव मान पिता केदार नाथ पांडेय को सम्मुख पाता हूं। किसी के आग्रह पर कुछ लिखने के क्रम में मेरा यह अतिशय उद्गार नहीं, बल्कि भोगे हुए सत्य की यह हकीकत है, जिसे आप इसी लेख में कहीं न कहीं जान-समझ लेंगे।
स्कूली जीवन में साहित्य परिषद की कविता और निबंध प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का सिलसिला अखबार के दफ्तर के दरवाजे तक पहुंचने का जरिया बन गया। कविताएं और लेख छपवाने के चक्कर में मैं पत्रकार बन गया। उत्तर प्रदेश से प्रारंभिक शिक्षा के बाद मैंने बिहार आकर श्रीकृष्ण उच्च विद्यालय, कैलगढ़ में वर्ग आठ में एडमिशन लिया था। वह साल 1973 था। स्कूल के हिन्दी शिक्षक थे केदार नाथ पांडेय। उन्होंने विद्यालय में छात्रों के साहित्यिक विकास के लिए साहित्य परिषद बनायी थी। विद्यालय की एक पत्रिका भी भी निकलती थी, लेकिन मेरा दुर्भाग्य रहा कि तब पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया था। उन्हीं पत्रिकाओं में मैंने तब के दो छात्रों की रचनाएं पढ़ी थीं। आज भी मुझे दोनों नाम याद हैं- रवि और शशि। शशि से रवि बड़े थे। उनमें रवि आगे चल कर सांइंटिस्ट बन गये और शशि मार्क्सवादी साहित्यकार। रवि अमेरिका चले गये थे और शशि यहीं रह गये। मशहूर कवयित्री कात्यायनी से बाद में सशि का विवाह हुआ। छपी रचनाएं देख कर कविता और लेखन के प्रति रुझान बढ़ा। मैं नहीं जानता कि पांडेय जी ने तब मेरे भीतर कैसे साहित्यिक-पत्रकारीय प्रतिभा का अनुमान लगाया। उन्होंने स्कूल के पुस्तकालय की किताबें पढ़वानी शुरू कीं। उन्होंने मुझसे जो पहली पुस्तक पढ़वायी, वह राहुल सांकृत्यायन की- तुम्हारा क्षय हो- थी। मेरे जीवन की वह पहली साहित्यक पुस्तक थी और उसमें संकलित लेखों के कई शीर्षक आज भी मुझे याद हैं। तुम्हारे समाज का क्षय हो, तुम्हारे भगवान का क्षय हो- उस पुस्तक के दो लेखों के शीर्षक थे। किताब इतनी तार्किक ढंग से लिखी गयी है कि बचपन में उसे किसी को पढ़ा दिया जाये तो आजीवन अपना असर छोड़े बगैर नहीं रह सकती। बाल मन कोरा स्लेट होता है। उस पर आरंभ में जो दर्ज हो गया, उसे समूल मिटाना संभव नहीं। कक्षा आठ की परीक्षा के परिणाम संभवतः उस वर्ष 23 दिसंबर को आये थे। अगली सुबह मेरे जैवित पिता की हार्ट अटैक से मौत हो गयी। भारी अर्थ संकट के बीच आगे की पढ़ाई हुई। उस पर विस्तार से जाना विषय का भटकाव होगा।
बहरहाल, कक्षा नौ में पढ़ाई के दौरान जयप्रकाश नारायण का व्यवस्था परिवर्तन को ले आंदोलन शुरू हो गया था। जिला स्तर पर स्कूली छात्रों की निबंध प्रतियोगिता आयोजित हो रही थी, जिसका विषय था- दहेज प्रथा अभिशाप है। पांडेय जी के आदेश पर मैंने भी एक लेख लिखा और बाद में उनसे ही पता चला कि लेख को प्रथम पुरस्कार मिला है। पुरस्कारस्वरूप रामचरित मानस का गुटका (पाकेट डायरी से थोड़ा बड़े आकार का) मिला। अति उत्साह में मैं उस लेख को लेकर छपवाने के लिए तब मीरगंज (तब सारण और अभी गोपालगंज का शहर) से निकल रहे साप्ताहिक- सारण संदेश में गया। तब संपादक शत्रुघ्ननाथ तिवारी होते थे। उस लेख का संपादित अंश छप गया। छपास की बीमारी वहीं से शुरू हुई, जो बाद में मुझे पत्रकार बनाने की आधारशिला साबित हुई।
सीवन जिले के उस इलाके में, जहां पांडेय जी शिक्षक थे, लोगों ने रंगकर्म पहली बार जाना। मैंने भी उनके निर्देशन में कई नाटकों में हिस्सा लिया था। उन्होंने दो नाटक भी लिखे थे। उन्हीं नाटकों की प्रस्तावना में मैंने पहली बार जाना कि उनका घर कोटवां नारायणपुर (बलिया) है। उनके कैलगढ़ छोड़ने के बाद भी कुछ दिनों तक नाटकों का सिलसिला चला, जो बिल्कुल बंद है। इतना ही नहीं, उस इलाके के लोगों ने पहली बार जाना कि कवि सम्मेलन कैसा होता है। पांडेय जी की पहल पर हाईस्कूल में कवि सम्मेलन का पहला और आखिरी बार आयोजन हुआ था। हालांकि तब मैं कालेज का छात्र बन गया था।
अपने शिष्यों के प्रति उनकी सहृदयता के कई उदाहरण मिल जायेंगे। एक बार संस्कृत पढ़ाने वाले रमाशंकर पांडेय जी किल्हीं कारणों से अवकाश पर थे। मैट्रिक का फार्म भरने के पहले हुई सेंट अप परीक्षा में संस्कृत की कापी पांडेय जी को जांचनी पड़ी। पांडेय जी ने मुझे 92 अंक संस्कृत में दिये। तब मुझे लगा था कि पांडेय जी का करीबी शिष्य होने के कारण मुझे उन्होंने इतने अंक दे दिये हैं। लेकिन जब मैट्रिक का रिजल्ट आया तो उसमें भी मुझे संस्कृत में उतने ही अंक मिले थे। तब पांडेय जी की मूल्यांकन क्षमता पर मेरा विश्वास बढ़ गया। हालांकि छह अंकों से मेरा फर्स्ट डिवीजन छूट गया था। इस पर पहली बार पांडेय जी की प्रतिक्रिया मैंने सुनी थी- पढ़ने में तुम्हारा मन नहीं लग रहा। तुम ज्यादा रिपोर्टरी पर ध्यान दे रहे हो। उसके बाद उन्हीं की सलाह पर मैं उत्तर प्रदेश में इंटर की पढ़ाई के लिए चला गया। उन दिनों बिहार में समय पर न परीक्षाएं होती थीं और न परिमाम आते थे, जबकि यूपी में सबकुछ समय पर होता था। मैंने रामकोला (तब के देवरिया जिले का एक कस्बा) इंटर कालेज में एडमिशन ले लिया। मुझे ऐसा करने पर कष्ट इस बात का था कि अखबार कनेक्शन कट गया। मैं वहां से भाग आने के बहाने ढूढ़ रहा था, लेकिन गुरु का आदेश मानने का नैतिक दबाव भी मेरे मन पर था। संयोग से यूपी के इंटर कालेजों में लड़ताल हो गयी और तकरीबन तीन-चार महीने चली। मुझे बहाना मिल गया और मैंने गोपेश्वर कालेज, हथुआ (गोपालगंज) में नामांकन करा लिया। गोपेश्वर कालेज में नामांकन के बाद मैं मीरगंज में एक रूम का क्वार्टर लेकर रहने लगा। इसके दो फायदे थे। अव्वल तो अखबार से पुनः जुड़ने का मौका मिल गया और दूसरे वहां से महज दस पैसे किराया देकर हथुआ जा सकता था। पांडेय जी इसके पहले ही सीवान जिला माध्यमिक सिक्षक संघ के सचिव बन चुके थे। उनका रोज सीवान आना-जाना होता। वह कैलगढ़ से साइकिल चला कर मीरगंज आते और मेरे ही कमरे में साइकिल रख कर सीवान जाते। फिर सुबह वहां से लौटते और साइकिल लेकर कैलगढ़ के लिए निकल जाते। इसी दौरान सीवान जला माध्यमिक शिक्षक संघ का अपना भवन निरालानगर में बना।
एक बार मेरे पास पैसे खत्म हो गये थे। घर का किराया देना था। कोई उपाय नहीं दिख रहा था। एक तरकीब सूझी। पांडेय जी के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें अपनी जरूरत बताते हुए 20 रुपये की मांग की। पत्र को साइकिल की सीट पर रख कर नौ बजे मैं कालेज के लिए निकल गया। शायद उस दिन पहली ही घंटी से क्लास था। पांडेयजी सुबह साइकिल लेने आये तो उन्होंने पत्र देखा। उन्होंने उसी पत्र में 20 रुपये का नोट डाल कर उसे बिछावन पर रख दिया। मैं डंके की चोट पर कबूल करता हूं कि अपने शिक्षक और मानस पिता का वह कर्ज मैं अब तक नहीं चुका पाया।
पांडेयजी की किसी मुद्दे पर स्पष्ट समझ आज भी मुझे अच्छी लगती है। शिक्षकों की समस्याओं को तार्किक ढंग से उठाने की कला उनके अलावा मैंने कभी किसी में नहीं देखी। कोई सिक्षक जब कभी कोई समस्या लेकर उनसे मिलता था तो वह उसकी खूबी-खामी बड़ी साफगोई से समझाते थे। उपाय भी सुझाते थे। शायद यही वजह रही कि वह शिक्षकों के लोकप्रिय और सम्मानित नेता के रूप में आज स्थान बना चुके हैं। शिक्षा और शिक्षकों से जुड़ी सरकारी नीतियों का अध्ययन किये बगैर कोई उनके जैसा नहीं बन सकता है। शायद यही वजह रही कि वह विधान परिषद तक शिक्षकों के शुभेच्छु नेता के रूप में पहुंचे।
कैलगढ़ छोड़ने के बाद सीवान में उन्होंने एक हाईस्कूल की स्थापना की और उसके बाद पटना आ गये। विधान परिषद का सदस्य रहते हुए उन्होंने एक निजी विद्यालय शुरू किया। मेरा बेटा भी उनके विद्यालय का आरंभिक दिनों में शिष्य था, जो फिलवक्त बंगाल के एक डिग्री कालेज में असिस्टैंट प्रोफेसर है। इस बीच मेरा भी तबादला पटना से धनबाद, रांची, कोलकाता जैसे शहरों में होता रहा, लेकिन कई लोगों को आश्चर्य होगा कि 1973 में जिसे मानस पिता माना, उसने तकरीबन पांच दशक बाद भी अपने मानस पुत्र को याद रखा है। जिस शहर में मैं होता, अगर पांडेय जी वहां जाते तो निश्चित तौर पर फोन कर मेरी खोज खबर लेते। मेरे पेशे का कोई व्यक्ति उनके पास कभी गया तो उन्होंने मेरे बारे उससे जरूर पूछा। वह शहर चाहे रांची, धनबाद, देवघर, कोलकाता या पटना ही क्यों न हो, वहां मेरे परिचितों से वह जरूर पूछते कि आजकल मैं कहा हूं।
बेरोजगारी के दिनों में भी अगर जिन लोगों ने मेरी खोज खबर ली तो, उनमें पांडेय जी का नाम पहला होगा। इसी साल पटना आने के महीने भर पहले उन्होंने फोन कर पूछा कि क्या कर रहे हो। मैंने बताया कि गांव आया हूं अभी। फलहाल कुछ कर नहीं रहा। उन्होंने कहा कि कभी पटना आओ, बात करते हैं। अपने शिष्य की सुध लेने वाले ऐसे शिक्षक को अगर मैं मानस पिता कहता या मानता हूं तो इसमें किसी को न आश्चर्य होना चाहिए और अतिशयोक्ति का भाव।
(लेखक केदार नाथ पांडेय के शिष्य रहे हैं और प्रभात खबर, हिन्दुस्तान में संपादक रह चुके हैं। संप्रति राष्ट्रीय सहारा, पटना के संपादक हैं)
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