मिथिला के सौराठ मेले का सांस्कृतिक सफर चीन के शंघाई तक

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  • मिथिलेश कुमार सिंह

आप अपनी सूचना दुरुस्त और अपडेट कर लें। सूचना यह है कि बिहार के मिथिला में सौराठ मेले की बड़ी सुघड़ और सुदीर्घ परंपरा रही है। वह परंपरा भयानक टेक्नोलाजी के इस जोखिम भरे दौर में भी जारी है।

सौराठ मेला वस्तुत: सुयोग्य और विवाह योग्य कन्याओं को उनके होने वाले ‘भाग्यविधाताओं’ तक पहुंचाने के प्रयास का अनुष्ठान है। पूरे मेला परिसर में जगह-जगह आपको खुले हुए और जमीन पर पुश्त टिकाये छाते दिख जाएंगे। हर छाते के पास  कोई न पुरोहित जरूर दिख जाएगा, जिसके पास अपने आसामी की सात या उससे भी अधिक पीढ़ियों की खतरा खतौनी (आप चाहें तो कुर्सीनामा भी कह सकते हैं) होती है। मसलन दूल्हे की नानी किस घराने से थी या है या दूल्हे का लकड़दादा कब गया था कलकत्ता कमाने और जब लौटा तो कैसे मैथिल समाज में उसका सिक्का  चलने लगा …. वगैरह वगैरह।

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अब यह कन्या पक्ष को तय करना है कि उसे कौन-सा वर चाहिए। अक्सर दोनों पक्ष मिल-बैठ कर किसी न किसी नतीजे पर पहुंच भी जाते हैं। आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि मेला लगा कर लड़का या लड़की ढूंढने की इस परंपरा को वक्त के साथ समाप्त हो जाना चाहिए था, फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? अब हम थोड़ा आगे बढ़ें।

चीन के शंघाई शहर में भी हूबहू ऐसा ही मेला सजता है हर सनीचर को। वही छतरी, वैसी ही भीड़। फर्क सिर्फ इतना कि वहां कोई पुरोहित नहीं होता। पुरोहित की जगह खुले छाते के एक छोर पर रखा रहता है एक लिफाफा, जिसमें रखा होता है बायोडाटा और बायाडाटा में होती हैं लड़की से जुड़ी तमाम जरूरी सूचनाएं। परंपराएं कितनी दूर तक का सफर करती हैं, यह बात समझनी हो तो दोनों मेलों के बुनियादी चरित्र को सामने रख कर देखें। कोई फर्क नजर आता है? इसीलिए कहा था, अपनी सूचना अपडेट कर

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