मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत की हालत शर्मनाक !

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बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।
बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।

मीडिया के हालात पर वरिष्ठ पत्रकार अनिल भास्कर ने संजीदा टिप्पणी की है। मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत की हालत शर्मनाक है। आप भी पढ़ें, उन्होंने क्या लिखा हैः

  • अनिल भास्कर

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (फ्रांस की गैरसरकारी संस्था) द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर पिछले वर्ष जारी इंडेक्स में भारत का स्थान दुनियाभर के 180 देशों के बीच 142वां रहा। नेपाल, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार से भी गया-बीता। जाहिर तौर पर यह स्थिति चिंताजनक के साथ-साथ शर्मनाक भी है। मुमकिन है कुछ लोग इस सर्वे को मीडिया पर सरकारी नियंत्रण और अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़कर देखें। लेकिन भारतीय मीडिया के संदर्भ में इसकी व्याख्या सीधे तौर पर एजेंडे और स्वलाभ की पत्रकारिता से जोड़कर होनी चाहिए। या यों कहिये कि स्वलाभ के एजेंडे वाली पत्रकारिता के संदर्भ में।

आईआरएस (इंडियन रीडरशिप सर्वे) की रिपोर्टों पर भरोसा करने वाले जानते हैं कि वर्ष 2019 की पहली तिमाही से ही अखबारों का प्रसार निरंतर अधोगामी रहा है। इस गिरावट की कई वजहें हैं या हो सकती हैं। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें एक बहुत बड़ी वजह संपादकीय गुणवत्ता का निरंतर क्षरण और लगातार गहराता साख का संकट है। तमाम प्रकाशन/प्रसारण के लिए साख का यह संकट मीडिया हाउसों द्वारा हाल के वर्षों में गढ़ी गई उस नई सम्पादकीय व्यवस्था ने खड़ा किया है, जिसमें पत्रकारिता ने सत्तासेवा के पर्याय की शक्ल अख्तियार कर ली है। लिहाज़ा निष्पक्षता की पहली शर्त वाली पत्रकारिता को अब गोदी मीडिया, प्रेस्टीच्यूट जैसे अलंकरण मिल रहे हैं। जो इस अलंकरण की परिधि से बाहर रह गए हैं वे मोदी विरोधी, विपक्षपोषक, वामपंथी ठहराए जा रहे हैं। यानी दोनों पक्ष कहीं न कहीं निष्पक्षता और सत्योदघाटन की प्रथम प्राथमिकता से दूर एजेंडे की पत्रकारिता में जुटे हैं।

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जब पाठक/ दर्शक प्रकाशन/ प्रसारण देख-सुनकर ही अखबार/ चैनल को सत्ता समर्थक या विरोधी के तौर पर पहचानने लगें तो विश्वसनीयता स्वत: बेमानी हो जाती है। चिंता की सीमा यहीं खत्म नहीं होती। हाल के वर्षों में कई  मीडिया हाउसों ने सरकारी योजनाओं/ कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष भागीदारी कर सत्ता के एजेंडे को आगे बढ़ाने की नई कवायद भी शुरू कर दी है। अपने इस कदाचार को नाम दिया है- इवेंट जर्नलिज्म। जाहिर है इस इवेंट जर्नलिज्म में जनता और विपक्ष की आवाज़ कहीं सुनाई नहीं देने वाली।

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मीडिया को अब जनसरोकारों से भी कोई सरोकार नहीं।  पत्रकारिता का यह कुरूप स्वरूप क्षणिक या तात्कालिक रूप से धनोपार्जक तो हो सकता है मगर जनाकांक्षी नहीं। दीर्घायु तो कतई नहीं। जाहिर है मीडिया घरानों का यह नया प्रयोग देर-सबेर ताला उद्योग को बढ़ावा देने वाला साबित होगा।

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(‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर सालाना सर्वे रिपोर्ट जारी करता है। 2019 में जारी रिपोर्ट में भारत का स्थान 140वां था, जो पिछले वर्ष और फिसलकर 142वां हो गया। इस वर्ष की रिपोर्ट आना अभी बाकी है।)

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