मौत के साथ गिद्ध भी तो आएंगे ही, ऐसे ‘गिद्धों’ की पेश है संक्षिप्त कहानी। Covid-19 के लिए घोषित राहत पैकेज पर ऐसे ‘गिद्धों’ की नजर जरूर होगी। महामारी के तौर पर पूरी दुनिया में उभरी Covid-19 (कोरोना वायरस) से निपटने के लिए अपने देश में लगातार राहत पैकेज की घोषणाएं हो रही हैं। केंद्र की सरकार के साथ राज्य सरकारें घोषणा कर रही हैं। अभी तक राहत के जितने काम शुरू हुए हैं या जितने पैसे आ रहे हैं, उनका वास्तविक लाभ लोगों तक पहुंच जाये तो हालात बदल सकते हैं। लेकिन देश में पहले जैसा होता रहा है, उस नजरिये से देखें तो कुछ ‘गिद्ध’ ऐसे अवसरों की तलाश में हमेशा रहते हैं। इस बार भी ऐसे गिद्धों की नजर जरूर लगी होगी। वे सक्रिय भी हो गये होंगे।
बिहार में बाढ़ जैसी त्रासदी को ऐसे ही ‘गिद्ध’ अपने लिए अनुकूल अवसर मानते रहे हैं। पिछले ही साल पटना जब जल जमाव से जूझ रहा था तो उससे निपटने की सरकारी कोशिशों में अपनी अतिरिक्त आमदनी का अवसर तलाशने में ये ‘गिद्ध’ पीछे नहीं रहे। इस बार भी कोरोना जैसी महामारी में ये ‘गिद्ध’ यकीनन सक्रिय हो गये होंगे। ऐसे ‘गिद्धों’ के बारे में संकेतों में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर। पढ़िए उन्हीं के शब्दों मेः
कई दशक पहले की बात है। उत्तर बिहार में भारी बाढ़ आई हुई थी। प्रजा में हाहाकार मचा था। आसपास के राज्यों से राहत सामग्री पटना पहुंच रही थी। स्वाभाविक है कि गिद्ध भी खूब सक्रिय हो उठे थे। इधर का माल उधर हो रहा था। उधर सभी बाढ़ पीड़ितों तक राहत सामग्री जरुरत से कम पहुंच पा रही थी।
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कैसे पहुंचती? इस बीच मंत्री बना एक गिद्धराज ‘राजा’ से नाराज हो गया। ‘गिद्धराज’ को शिकायत थी कि उन्हें कम ‘मौके’ मिल पा रहे थे। राजा ने किसी को आदेश दिया-दो ट्रक माल मंत्री जी के घर पहुंचा दिया जाए। पहुंचा दिया गया।
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मंत्री जी ने उसे औने-पौने दाम में व्यापारियों को बेच दिया। उन्हीं व्यापारियों ने फिर अधिक दाम पर उसे अत्यंत जरुरतमंद बाढ़ पीड़ितों तक पहुंचवा दिया। मौजूदा कोरोना विपत्ति में जब पता चला कि पटना के पास के एक गांव में शासन ने एक्सपायरी डेट का डेटाल बंटवा दिया तो कुछ जागरूक लोग नाराज हो गए।
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स्वाभाविक ही है। जान से खिलवाड़? अरे भई, अभी तो जानकारियों की शुरूआत हुई है। आगे-आगे देखते जाइए गिद्धों-महा गिद्धों की जांच का कमाल! पक्षीराज गिद्ध की भले कमी हो रही है, पर मनुष्य के रूप में गिद्धों की संख्या तो बढ़ती ही जा रही है। अन्यथा, आजादी के बाद इस देश को एक बार फिर सोने का चिड़िया बनने से भला कौन रोक सकता था!
सिर्फ 1947 से 1985 के बीच में सौ पैसे घिसकर 15 पैसे नहीं हो गये होते तो आज स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत संरचना की जो भारी कमी महसूस की जा रही है, वह कमी रहती।
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