रामविलास पासवान सामाजिक समरसता के अग्रदूत थे 

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बिहार में इलेक्शन भले खत्म हो गया, लेकिन सियासी गर्मी अब भी बरकरार है। बिहार में राज्यसभा की एक सीट पर चुनाव होना है। एलजेपी नेता रामविलास पासवान के निधन से यह सीट खाली हुई है।
बिहार में इलेक्शन भले खत्म हो गया, लेकिन सियासी गर्मी अब भी बरकरार है। बिहार में राज्यसभा की एक सीट पर चुनाव होना है। एलजेपी नेता रामविलास पासवान के निधन से यह सीट खाली हुई है।
रामविलास पासवान आज पंचतत्व में विलीन हो गये, लेकिन कई लोगों को कई यादें छोड़ गये हैं। कोई उनकी सज्जनता तो कई लोग उनकी सामाजिक समरसता की चर्चा करते हैं। इसी क्रम में पढ़ें साहित्यकार और लंबे वक्त तक रेल महकमे में रहे रामदेव सिंह की रामविलास पासवान के बारे में कुछ यादेंः
  • रामदेव सिंह
रामदेव सिंह
रामदेव सिंह

रामविलास पासवान जी से मेरी जितनी अनौपचारिक और आत्मीय मुलाकातें थी, उतने में कोई दूसरा होता तो अनेक तरह के लाभ ले सकता था।  वे हर मुलाकात में अपना विजिटिंग कार्ड देते रहे। मेरे हाथ में कोई पत्रिका होती तो उसके किसी ब्लैंक स्पेस पर अपनी कलम से अपने घर पहुंचने के लिए लेआउट समझाते और अन्त में कहते, अच्छा…छोड़िये, आप फोन कर दीजियेगा, मैं गाड़ी भेज दूंगा।

मैं भी चिर-संकोची, दिल्ली तो अक्सर जाना होता था, लेकिन उनसे मिलने कभी नहीं गया। रेलमंत्री बनने के बाद तो संयोगवश भी कभी मुलाकात नहीं हुई। न उनसे मिलने का मैंने कोई प्रयास किया। लेकिन शुरुआत की कुछ मुलाकातें याद हैं। 1977 में जब वे रिकॉर्ड मतों से जीतकर संसद पहुंचे थे तो उनके साथ एक बड़ा ग्लैमर जुड़ गया था। औरों की तरह मैं भी उनकी राजनीतिक आभा से प्रभावित था। तब ‘दिनमान’ में उनकी तस्वीर के साथ एक टिप्पणी भी छपी थी।

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हमारी पहली मुलाकात 1983-84 में मुगलसराय में हुई थी। मैं तब आधे मन से ही नौकरी कर रहा था। टीसी की नौकरी मुझे पसंद नहीं थी, इसलिए दूसरी नौकरियों के लिए भी प्रयास जारी था। रात के बारह बजे से मेरी नाइट शिफ्ट ड्यूटी थी। तब रात में जागने की आदत नहीं थी, सो प्रायः मैं लेट हो जाता था। प्लेटफार्म स्थित अपने आफिस में साइन करने जा रहा था तो  बाहर सीमेंट वाली बेंच पर बैठे व्यक्ति को पहचानने में देर नहीं लगी कि ये तो रामविलास पासवान हैं! मैंने रुक कर पूछा- आप रामविलास जी हैं न? वे तुरंत उठकर खड़े हो गये और मुस्कुरा कर बोले- जी….!

फिर तो पहले बिहार, फिर मधेपुरा, खगड़िया आदि हमारे परिचय का सूत्र बना, बाद में वैचारिक धरातल। साहित्य उनकी रुचि का विषय भले नहीं था, लेकिन हमारी बातचीत में साहित्य भी आया था। वे राजधानी एक्सप्रेस से मुगलसराय उतरे थे और सुबह साढ़े पांच बजे वाराणसी-आसनसोल पैसेंजर से सासाराम जाना था। उन्होंने बताया था कि अगले दिन वहाँ कोई कार्यक्रम है। उनके साथ एक राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे, जिनके पास कार्यक्रम सम्बंधित पोस्टर का एक बंडल  था। उनकी गाड़ी आने तक हमने दो बार चाय पी। उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर दिया और पुरजोर आग्रह किया कि आप दिल्ली आइये। आपको तो टिकट भी नहीं लगना है।

अगली मुलाकात एकाध वर्ष बाद हुई। रात के साढ़े दस बजे दिल्ली जाने वाली विक्रमशिला एक्स्प्रेस खड़ी थी।  एक अदद बर्थ के लिए यात्री कन्डक्टर के पीछे भाग रहे थे। गाड़ी में जगह नहीं थी, इसलिए कन्डक्टर किसी की सुन ही नहीं रहा था। यह रोजमर्रे की घटना थी, सो मैं बुक स्टाल पर खड़े-खड़े कोई पत्रिका उलट-पलट रहा था। तभी रामविलास जी की नजर मुझ पर पड़ी होगी। वे पास आकर हांफते हुए बोले- सिंह साहब, आइये एक बर्थ दिलाइए! यहाँ तो कोई हमको पहचान ही नहीं रहा है!!

मैं तेजी से उनके साथ कंडक्टर के पास गया। उनके कान में रामविलास जी का परिचय दिया। पहले तो कन्डक्टर असमंजस में पड़ा, फिर बोला- अच्छा अभी मेरे बर्थ पर बैठिये। रामविलास जी गाड़ी में चढ़े कि गाड़ी खुल गयी। वे देर तक हाथ हिलाते रहे।

एक बार संसदीय चुनाव के बाद वे अपनी जीत का सर्टिफिकेट लेकर ब्रह्मपुत्र मेल से पटना से  दिल्ली जा रहे थे। मैं भी उसी गाड़ी से पटना से मुगलसराय आ रहा था। गाड़ी के खुलते- खुलते वे स्टेशन पहुंचे थे। एसी टू टियर के पहले केबिन में बर्थ नं 1 और 2 उनके लिए आरक्षित था। मैं तीन नंबर बर्थ पर बैठा था। रामविलास जी के आते ही मैंने उन्हें बधाई दी कि आपने अपना ही रिकॉर्ड स्वयं तोड़ा! वे मुस्कुराये- ये आप लोगों का स्नेह है! उन्होंने अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराया कि जिन दिनों मुगलसराय में मुझे कोई नहीं पहचानता था, सिंह साहब ही थे, जो मुझे अच्छी तरह जानते थे।

वे लोग थोड़ी देर औपचारिकता में भले बैठे बात कर रहे थे, लेकिन नींद से झुक रहे थे। मैंने कहा- आप लोग सो जाइए। रामविलास जी ने बताया कि कई रातों से वे सो नहीं पाये हैं। वे लोग सो गये तो मैं दूसरे केबिन में चला गया।

एक बहुत ही दिलचस्प और आत्मीय मुलाकात की याद आ रही है। वीपी सिंह की सरकार गिर चुकी थी, जिसमें वे शायद कल्याण मंत्री थे। कुछ ही दिनों बाद वे बाबा साहेब अम्बेडकर पर आयोजित किसी कार्यक्रम में शामिल होने बनारस आये थे। अगले दिन मुगलसराय होते पटना जाना था। मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। यह संयोग ही था कि उन्हें सुबह की कोई गाड़ी पकड़नी थी और मैं ड्यूटी आफ करके बाहर निकल रहा था। 1-2 नंबर प्लेटफार्म के फुट-ओवर ब्रिज पर यात्रियों की आवाजाही वाली भीड़ थी। इसी भीड़ से एक हाथ मुझे घेर कर अपनी ओर खींच लेता है- कहाँ भाग रहे हैं? कॉफी पिलाने के डर से भाग रहे हैं?

उनके साथ दस-बारह लोगों का काफिला था, जो उन्हें विदा करने बनारस से मुगलसराय आया था। जिनमें स्थानीय नेता अतहर जमाल लारी भी थे। खैर,  हम सभी कैफिटेरिया आये। संयोग से उस वक्त फारुक स्टाल पर था, जिसने बहुत बढ़िया कॉफी पिलाई। वे जाड़े के दिन थे। रामविलास जी नीले रंग का सूट पहने थे और मैं भी बंद गले वाला रेलवे का गरम सूट पहना था। उनकी तरह मेरी दाढ़ी भी ‘परमानेंट’ थी। लारी जी ने कहा कि सर, आप लोग तो बड़े भाई-छोटे भाई लग रहे हैं। रामविलास जी  मुझसे सटकर खड़े हो गये और बोले- भाई तो हमलोग हैं ही!

रामविलास जी ने उस दिन भी टोका- आखिर आप दिल्ली नहीं ही आये? मैंने कहा- क्या करता जाकर? भारत सरकार के मंत्री से मिलना इतना आसान होता है क्या? मैं जाता और पता चलता कि मंत्री जी व्यस्त हैं। सोचिये कितनी निराशा होती। रामविलास जी मेरी बात से थोड़े आहत हुए, बोले- सिंह साहब, एक भी आदमी ढ़ूंढ़ कर ला दीजिये, जो कहे कि रामविलास पासवान उससे नहीं मिला? बल्कि इन दिनों मैं ज्यादा व्यस्त हूँ, जब मंत्री नहीं हूँ।

एक बार मैंने उनसे कहा था कि रेलवे में मेरी कैटेगरी चेंज करवा दीजिये। मुझे इस काम में मन नहीं लगता है। वे हंसकर बोले- दूसरे लोग इस विभाग में आने के लिए पैरवी करते हैं और आप हटना चाहते हैं! यह काम तो मैं कभी भी करवा दूंगा, लेकिन मेरे ख्याल से आप जैसे लोगों को इस विभाग होना चाहिए!

उसके बाद हमारी कोई सांयोगिक मुलाकात नहीं हुई। न मैंने मिलने का कोई प्रयास किया। रेलमंत्री बनने के बाद भी। मेरे मन के किसी कोने में यह भाव भी रहा होगा कि अपने किसी दौरे में जब वे मुगलसराय से गुजरेंगे तो उन्हें जरूर मेरी याद आयेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बावजूद इसके, मैं उनका प्रशंसक था। वे सामाजिक समरसता के सबसे बड़े पैरोकार थे। उन्होंने कभी भी सामाजिक और जातीय कटुता को अपनी राजनीति का औजार नहीं बनाया। मुझे एक ही बात का मलाल था कि उन्हें कुछ वर्षों तक बिहार का मुख्यमंत्री होना चाहिए था। ऐसा होता तो बिहार में जातीय द्वेष संसदीय राजनीति का आधार नहीं होता।

उन्हें सादर नमन!

 

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