- श्याम किशोर चौबे
राहत पैकेज में कोरोना संक्रमण काल के दौरान उत्पन्न अप्रत्याशित आर्थिक संकट से उबरने के लिए दूरगामी सोच का स्पष्ट दर्शन दिखता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के पैकेज में दूरगामी सोच दिखती है। रुपये के राहत पैकेज की परतें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा जिस प्रकार दिन-ब-दिन खोली जा रही हैं, उससे यही लगता है कि सरकार महामारी से बाहर निकलकर आगे की सोच पर काम कर रही है। वित्त मंत्री हर दिन सेक्टरवाइज राहत पैकेज पेश कर रही हैं। 15 मई शुक्रवार को उनकी प्रेस कांफ्रेंस में किसानों और कृषि प्रक्षेत्र पर फोकस करते हुए 1.63 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का खुलासा किया गया। इसके तहत आठ घोषणाएं और तीन प्रशासनिक सुधारों की मंशा की बात उन्होंने कही। पूर्व में वे 16.04 लाख करोड़ के अलग-अलग पैकेजों में उद्योग, व्यापार, मजदूर, सीमांत किसान, शहरी मध्य वर्ग आदि-आदि के लिए सरकारी उपायों की घोषणा कर चुकी हैं। इस प्रकार अब 2.33 लाख करोड़ के पैकेज का खुलासा बाकी रह गया था। इसे भी आज घोषित कर दिया है। इस पर हम कल चर्चा करेंगे।
प्रधानमंत्री ने 12 मई को अपनी घोषणा में जो बात नहीं कही थी, उसको वित्त मंत्री ने तीन दिनों बाद शुक्रवार को यह कह कर स्पष्ट कर दिया कि सरकार कोई विशेष सीधी राहत नहीं पहुंचाने जा रही, अलबत्ता उसकी मंशा सबको अपनी ताकत जुटाने लायक बनाना है। यानी यह राहत खुराक एक दीर्घकालीन योजना की तरह है, जिससे तुरंत परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि कोविड महामारी पर मचे हाहाकार से बाहर निकलकर सरकार आगे की सोच रही है।
प्रधानमंत्री ने जब इतने बड़े राहत पैकेज की घोषणा की थी, तब कई लोगों ने समझा था कि कोविड के साथ आई आर्थिक महामारी का इलाज उनके सामने पेश किया जाएगा। इतना ही नहीं, एक बड़ा वर्ग तो मन ही मन आबादी के सापेक्ष सीधी आर्थिक राहत की गणना भी करने लगा था। इसके बाद हर दिन राहत पैकेज का पिटारा जब खोला जाने लगा, तभी अहसास हो गया कि यह कोई दूसरी चीज है, जिसका अधिकतर हिस्सा बैंकों के दरवाजे तक जाता है। वित्त मंत्री ने अंततः शुक्रवार को खुलकर कह दिया कि जहां सीधी मदद की जरूरत होगी, सरकार उतना ही करेगी, क्योंकि यह आर्थिक इलाज नहीं, खुराक है। इस नजरिए से देखा जाये तो अबतक का सबसे बड़ा आर्थिक पैकेज एक बड़ा नीतिगत बदलाव है, जिसका विशाल हिस्सा बैंको से कर्ज और क्रेडिट गारंटी के रूप में सामने आया है। सरकार कोविड महामारी को गंभीर बीमारी मान रही हो तो भी राहत के बतौर उसके कदम दीर्घकालिक सुधार की ओर बढ़ रहे हैं। इस लिहाज से इसको कोविड राहत पैकेज माना जाये या नहीं, अर्थशास्त्रियों के लिए यह विचारणीय विषय है।
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बहरहाल, कृषि प्रक्षेत्र पर केंद्रित वित्त मंत्री की घोषणाओं को देखा जाये तो वह बजट का पुनर्पाठ, पुनर्गठन और संसाधनों के पुनर्वितरण जैसा प्रतीत होता है। उन्होंने राहत पैकेज के नाम पर जिस प्रकार कोल्ड चेन की स्थापना और कटाई के बाद फसल प्रबंधन, औषधीय पौधों की खेती को प्रोत्साहन, माइक्रो फूड इंडस्ट्री को औपचारिक करने, पशुओं का टीकाकरण, मधुमक्खी पालन, मछली पालन, डेयरी सेक्टर को प्रोत्साहन और आपरेशन ग्रीन में फल-सब्जियों को भी शामिल कर ढुलाई में सबसिडी देने की बात कही। कुछ ही अरसा पहले पारित बजट को देखा जाये तो ये सभी किसी ने किसी रूप में उसमें शामिल मिलेंगे। बजट में इनके अलावा भी अन्य योजनाएं हैं, बात बस इतनी है कि राहत पैकेज के लिए इनको छांट-छांट कर पैकेजिंग कर दी गई है। इनका बजटीय प्रावधान भी लगभग इतना ही था। मछुआरों और उनकी बोट का इन्श्योरेंस, पशुओं का टीकाकरण जैसी बातें भी नई नहीं हैं।
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इतना तो हर कोई जानता है कि अभी एक्यूट क्राइसिस का काल है। यह अप्रत्याशित परिस्थिति है, जिसमें तत्काल आजीविका के साधन चाहिए। रही बात कृषि उत्पादों के लिए मार्केटिंग में रिफार्म्स की तो ये बातें 1955 से ही की जा रही हैं। अपनी कृषि मार्केटिंग की व्यवस्था सबसे अधिक पिछड़ी हुई है। जब कभी कृषि और किसानों पर संकट आता है, सरकारें नींद से जगकर तुरंत एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कंपलेक्स और आवश्यक वस्तु अधिनियम आदि कानूनों में बदलाव की बातें करने लगती है। इन कानूनों की जद में किसान, व्यापारी और अधिकारी आते हैं। ये कानून एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मंडी कानून यानी एपीएमसीए में बदलाव की ओर केंद्र सरकार ने 2014 में ही कदम उठाया था। उसने माॅडल एक्ट बनाकर राज्यों को भेज भी दिया था लेकिन कई राज्यों, जिनमें भाजपा शासित राज्य भी शामिल थे, इसका विरोध कर दिया।
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चूंकि कृषि उत्पादों के बड़े व्यापारी भी इससे प्रभावित होते हैं और वे वोट बैंक भी हैं, इसलिए जब कभी इन कानूनों में बदलाव की बात उठी, तुरंत दब भी गई। संकट के समय सरकारें यह सोचती दिखती हैं कि किसान, जिनको अन्नदाता कहकर दुलराया-मल्हराया जाता है, परेशान हैं। चेन्नै में उत्पादित कार हर सूबे में बेची जाती है लेकिन किसान अपना अनाज अपनी मंडियों से अलग नहीं ले जा सकते। इस कारण स्थानीय व्यापारी उनका शोषण करते हैं। इसलिए किसानों को खुला बाजार दिया जाना चाहिए। जहां उनको अधिक कीमत मिले, वहीं बेचें। जैसा कि वित्त मंत्री ने कहा, सरकार इन कानूनों में बदलाव लाएगी तो सवाल उठता है कि राज्य सरकारें अनाज व्यापारियों को नाराज करने का जोखिम उठाने को तैयार हैं क्या? आढ़तियों का देश भर में विशाल नेटवर्क है। उसको तोड़ना कतई आसान न होगा। फूड प्रोडक्ट और एग्रो कमोडिटीज संबंधी कानून में सुधार का संकल्प देश का सबसे पुराना संकल्प है। इसको यह सरकार परिणाम तक पहुंचा दे तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है?
आवश्यक वस्तु अधिनियम एक ऐसा अधिनियम है, जिसका सरकारें मनमाना इस्तेमाल करती हैं। कीमतें बढ़ीं तो स्टाॅक लिमिट लगा दिया, सामान की लिमिट बढ़ी तो आवश्यक वस्तु अधिनियम की प्रक्रिया शुरू कर दी। ऐसे में आज तक स्पष्ट नहीं हो सका कि सरकारें महंगाई से डरती हैं या किसानों को मिलनेवाले फायदे से। स्पष्ट इतना ही है कि बढ़ी कीमतों का ज्यादातर फायदा व्यापारी ही उठाते हैं। इस सूरत में स्टाॅक लिमिट को लिबरलाइज करने की मंशा निश्चय ही सराही जाएगी, बशर्ते वह जमीन पर उतरे। एपीएमसीए हो कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, ये बेहद दिलचस्प गुत्थियां हैं, जिनको सुलझाना आसान नहीं होगा।
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केंद्र सरकार कृषि उत्पाद कानूनों में रिफाॅर्म लेकर आती है तो निश्चय ही बड़ा बदलाव आएगा, लेकिन राज्य सरकारें और राजनीति इसमें कौन सा रोल प्ले करती हैं, यह देखना भी दिलचस्प होगा। ये कानून राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील रहे हैं, जिनसे किसान और व्यापारी दोनों जुड़े हुए हैं और दोनों ही राजनीतिक रूप से संवेदनशील कंस्टीचुएंसी भी हैं।
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