- भारत यायावर
रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’ अपने प्रकाशन के बाद धीरे-धीरे फैलता ही जा रहा था, लेकिन यह चम्बल घाटी में डाकुओं के बीच भी पहुँच गया, यह दुर्लभ संयोग ही था। प्रकरण इस प्रकार है : उस समय चम्बल घाटी में डाकुओं का गढ़ था। पूरा इलाका डाकुओं से भयभीत रहता था। तरह-तरह की डाकुओं की कहानियाँ देशभर में सुनी-सुनाई जाती थीं। डाकुओं के जीवन को लेकर राजकपूर ने ‘जिस देश में गंगा बहती है’ नामक फिल्म बनाई थी। सुनील दत्त ने ‘मुझे जीने दो’ नामक फिल्म। और ‘शोले’ तक डाकुओं को लेकर तरह-तरह की फिल्में बनाने का सिलसिला चलता रहा।
ऐसे में स्वाभाविक है कि पत्र-पत्रिकाओं में भी डाकुओं के बारे में छापने की माँग बहुत थी। लेकिन लिखने वाले लेखकों की कमी थी। तभी नए कथाकार के रूप में उभरने वाले रामकुमार भ्रमर ने तय किया कि वे डाकुओं पर लिखेंगे। वे चम्बल घाटी के डाकू प्रभावित गाँवों में भटकते रहते और डाकुओं के बारे में सूचनाओं को इकट्ठा कर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाते रहते थे।
यह बात डाकुओं के एक मुखबिर ने घाटी में जाकर डाकुओं को बताई। जिस गाँव में वे ठहरे हुए थे, वहाँ अचानक रात में कुछ डाकू आए और उनको बाँधकर उनके झोले सहित डाकुओं के सरदार के पास ले गए। उनके झोले में एक जोड़ी कपड़ा और मंजन आदि था। उनके सामान की जाँच की गई तो उसमें एक नोटबुक भी था और एक किताब। वह किताब ‘मैला आँचल’ थी।
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डकैतों ने उनसे कड़ी पूछताछ शुरू की। उन्होंने बताया कि वे पुलिस के जासूस नहीं हैं, बल्कि एक लेखक हैं। वे डाकुओं की समस्या पर लिख रहे हैं। डाकुओं का जीवन कितना मुश्किल भरा होता है, लिखकर बताना चाहते हैं। यही सब लोगों से जानकारी लेकर लिखना चाहते हैं।
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डाकुओं के सरदार ने पूछा, ” यह किताब क्या है? इसे अपने पास रखकर क्यों घूम रहे हो?” रामकुमार भ्रमर ने बताया, “यह है मैला आँचल! गाँव-देहात के बारे में इतना अच्छा अबतक किसी लेखक ने नहीं लिखा। मैं इसे रोज थोड़ा पढ़कर सोता हूँ। और हाँ, इसमें डाकुओं पर भी बहुत सुन्दर लिखा है।”
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डाकुओं के सरदार को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, “किस डाकू के बारे में लिखा है?” “जी, नछत्तर माली को चलित्तर कर्मकार नाम से लिखा है। उसको क्रांतिकारी के रूप में दिखाया है।” “अच्छा, ऐसा भी कोई लेखक है? क्या लिखा है पढ़कर सुनाओ!” तब रामकुमार भ्रमर ने ‘ मैला आँचल ‘ के चलित्तर कर्मकार प्रसंग को सुनाया:
चलित्तर कर्मकार आया है। किरांती चलित्तर कर्मकार! जाति का कमार है, घर सेमापुर में है। मोमेंट (अर्थात बयालीस के आन्दोलन) के समय गोरा मलेटरी इसके नाम को सुनते ही पेसाब करने लगता था। बम-पिस्तौल और बन्दूक चलाने में मसहूर! मोमेंट के समय जितने सरकारी गवाह बने थे, सबों के नाक-कान काट लिए थे चलित्तर ने। बहादुर है। कभी पकड़ाया नहीं। कितने सीआईडी को जान से खतम किया। धरमपुर के बड़े-बड़े लोग इसके नाम से थर-थर काँपते थे। ज्यों ही चलित्तर का घोड़ा दरवाजे पर पहुँचा कि ‘ सीसी सटक’। दीजिए चन्दा।… पचास! नहीं? … ठायँ! ठायँ!… दस ख़ूनी केस उसके ऊपर था, लेकिन पकड़ा नहीं गया। आखिर हारकर सरकार ने मुकदमा उठा लिया! …”
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डाकुओं का सरदार खुश हो गया। उसने भ्रमर जी को बन्धन से मुक्त कर दिया। अब भ्रमर जी डाकुओं के बीच बैठकर ‘मैला आँचल’ का वाचन रस ले-लेकर रोज करते। धीरे-धीरे सभी डाकुओं के भीतर ‘मैला आँचल ‘रच-बस गया। सभी डाकुओं ने एक स्वर से कहा, “यह किताब मुझे चाहिए!”
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सभी डाकुओं ने ‘मैला आँचल’ मँगवाने के लिए रुपये जमा कर भ्रमर जी को दिए। उन्होंने राजकमल प्रकाशन से थोक में प्रतियाँ मँगवा कर डाकुओं को दिए। इस क्रम में डाकुओं के बीच उनका आना-जाना शुरू हुआ और उन्होंने डाकुओं पर कई किताबें लिखीं। हिन्दी के साहित्यिक जगत में ‘मैला आँचल ‘प्रतिष्ठित तो लगातार होता जा रहा था, किन्तु डाकुओं के बीच बीच प्रतिष्ठित होना अपने-आप में अनोखा वृतांत है।
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