लाकडाउन 4 के साथ ही कारखानों से धुआं उठने लगा है, पर कामगारों का अकाल भी दिखने लगा है। उधर हाईवे पर दरिद्र भारत का समंदर है। समझना होगा कि इस दरिद्र भारत से ही हिंदुस्तान आबाद होगा। पढ़िए, कोरोना डायरी की अठारहवीं कड़ी। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।
कोरोना डायरी: 18
कोई रोकता तो रुक भी जाते। बस, दिखलाता आंखों में थोड़ा पानी। इतना ही कहता- यह शहर तुम्हारा भी तो है। मजदूर महानगरों में रुक नहीं रहे। कामगारों का कारवां चला जा रहा। अंतहीन, अनंत, रेला दर रेला। नर-नारी, बच्चे-बच्चियां, जवान-बूढ़े। सभी को जाना है गांव- अपने गांव। जैसे भी पहुंचना है गांव-अपने गांव।
वे शहर में नहीं रहेंगे, तो शहर कैसे चलेगा? कैसे चलेंगे उद्योग-धंधे, कौन हांकेगा मशीनों को, कौन उठाएगा बोझ? अभी तो पूरे गए नहीं, आधे हैं शहरों में अटके-ठिठके। 54-55 दिनों के बाद काम-धंधा शुरू हुआ, तो कामगारों की कमी होने लगी। खबरें आने लगीं। अब निहोरा भी शुरू होगा- आजा मोहन प्यारे। जब जा रहे थे, जब जा रहे हैं, तो रोकोगे नहीं। जब सब चले जाएंगे तो पछताओगे, बड़ा पछताओगे। मध्यप्रदेश की मंडियों में गेहूं ही गेहूं। अब उन्हें कौन पहुंचाए गोदामों तक। चाहिए बिहार और बुंदेलखंड के मजबूत मजदूर। ये सब तो चले गए गांव। जो बचे हैं, वे भी जा रहे। अब जाओ। रोको। करो निहोरा। औद्योगिक क्षेत्रों में मशीनें चलने लगीं, पर मजदूर कम पड़ रहे। आ रही हैं खबरें। अभी तो सब शुरू नहीं हुए, तब यह हाल, आगे क्या होगा? काश! सैलरी न रोकते। थोड़ी सुविधा देते। रोक लेते।
और ये अभागे कैसे भागे जा रहे। देखो, पढो़, सुनो तो कलेजा कांपता है। मन कराहता है। आंखें पनिया जाती हैं। बंद करो रे टीवी। फेंक दो अखबार। दबा दो मोबाइल। मन बोलता है ओह! आह! हाय! हे भगवान, कहाँ हो? कैसे जा रहे सब- पैदल, साइकिल, ट्रेन, बस, टेंपो, रिक्शा, ट्राला-ट्राली—टैंकर, मिक्सर—–साइकिल से तीन हजार किलोमीटर। पुणे से असम। भूखे-प्सासे। गिरते-पड़ते। जीते-मरते। छोड़ते-ढोते। गठरी-मोटरी। तकिया-बिछौना। बाल्टी-मग —अब न शहरिया रे भाई। शहरों में जैसे आग लगी हो। राक्षस दौड़ा रहा हो। पगली घंटी बजी हो। और दर्द के इस सफर में मौत ही मौत। ओरैया में 26, सागर में छह, नवगछिया, महोबा, इंदौर, प्रयागराज– ट्रक-बस में टक्कर। मुंह में भर गया चूना। चली गई जान। पाइप में दब गई मां। तीन साल की बच्ची पुकार रही- मैया गे मैया, कहां गेली गे मईया—। मां-बाप दोनों मर गए। अंजान पथ पर बच्चे रो रहे- बाबू हो बाबू, ये मईया, मय्या, ये बचवा हमर, मत रो बेटा, घायलों की कराह- अरे बाप रे, बचा ले भयैबा, ऐ भौजी, ये दोस्त अब न रे भाई। ऐ चौप, जिंदा है सांस चल रही, ऐ देखे, नहीं रे चला गया, बचाओ, बुलाओ गाड़ी, है कोई हैय्य-मय्यत, शव, जनाजा, कराह, पीडा़— बस करो काली माई। अब बस करो। करेजा फट गया। मन कहाँ गया?
गांव–। 1970-75 का गांव। बिजली नहीं। घुप्प अंधेरा। दूर पेड़ के पास टार्च जली। शौच के लिए जगी महिला ने देखा। डकुआ रे माई–डकैतवा सब–। कानाफूसी, घिसिर-पिसिर। आंगन वाला बड़ा- सा गांव। बिहार का गांव। सब जग गए। औरतों ने गठरी में बांध लिए गहने-जेवरात। किसी ने गेहूं की बोरी, किसी ने चूल्हे में डाल दी पोटली- डकैतवा चूल्हा थोड़ी न देखेगा? पुरुष भाला, गड़ासा, तलवार, लाठी, लेकर तैयार। आने दो अबकी सब को छोप्प देंगे। पिछली बार बच गए थे। सब लूट ले गए, अब बचा ही क्या है? आव, देखिए लेंगे, ये डरेगा नहीं कोई। आने दो सालों को। पर औरतें- हे काली माई, लौटा द। बचा ल। मरदाना सब टैट है। जुलूम हो जाएगा। दोहाई काली माई। अबकी काली पूजा में खस्सी पक्का—-। द्वारे पर से लौट जाए डकैतवा—-।
हारे को हरि नाम– दोहाई माई, रहम करो। ई मजदूरन सब पर। बहुत हुआ। अब नहीं मौत। अब जिंदगी। व्यक्ति जब हारता है, व्यवस्था से। सिस्टम से। सामने मौत हो, मौत का डकैत हो, तो किसे पुकारें। सिस्टम तो फेल है। है न? बस बचता है ऊपर वाला, ऊपर वाला- ये काली माई, हे शंकर बाबा, खुदा खैर करे—- बचा लो भगवान। ई मजदूरन को–ई मजबूरन को। सिस्टम फेल है भाई, दुहाई सरकार—
मंजर भी कैसे-कैसे हैं। ट्रेन, बस, ट्रक, जीप, सड़क पर जननी जन रही बच्चा। पर सफर थम नहीं रहा। चलो, बढते चलो। सड़क किनारे मिल रहे नवजात। कोई जननी छोड़, आगे बढ़ गई। ऐ मां, कैसी मां। अभी जन्म दी। अभी त्याग दिया। चिटियों से लड़ती नन्हीं जान को पुलिस वाले ले दौड़े अस्पताल। ऐ कोरोना, तुने कैसे दिन दिखाए। न तुम आते, न पलायन होता और न माएं कुंती बनती। सोचो, बच्चे-बच्चियों को छोड़ते समय क्या गुजरी होगी मांओं पर । यह दर्द तुम क्या जानो पापी कोरोना! दरिद्र होने का मतलब। वे जो हैं, मनी-मुद्रा संपन्न। उनके लिए है सेतु योजना, वंदे भारत योजना। पानी-जहाज, हवाई जहाज से वे आ गए, आ रहे हैं सकुशल। मरन तो दरिद्रों का है।
सुनो उनकी कहानियां। देखो, रोज के अखबार। खबरिया चैनल। मोबाइल इधर-उधर करो। मतलब सोशल मीडिया। एक पति रास्ते में जान गवां चुकी पत्नी के शव ढोकर ले जा रहा है। इसलिए कि मां ने कहा है-एक बार पुतहिया के देखा दे बेटा। ये बेटा रे। आंखें भर आती है कोरोना। पर तुम क्या जानो। तुम्हारी तो आंखें है नहीं। अंधा कहीं का। एक बाप मरे बच्चे को लिए जा रहा। घर वालों ने कहा है, नानी ने कहा है-नतिया के देखबई रे दैया। वह नाती, जो नहीं है अब। ममत्व, अपनत्व, अपनों को खोने की पीडा़ तुम नहीं समझ सकते—-तुम नहीं समझ सकते गठरी में बंधे, ट्रक में लदे शवों, गमकते शवों के साथ घायलों के सफर का दर्द।
कोरोना तुम रामपुकार पंडित को जानते हो? अधर्मी, तुम जान भी नहीं सकते। रामपुकार बिहार के बेगुसराय के हैं। दिल्ली के एक सिनेमा हाल में काम करते हैं। लाकडाउन के कारण दिल्ली में फंसे थे। गांव से पत्नी का फोन आया- बबुआ चला गया। आब हो , बबुआ के पापा—- तीन बेटियों के बाद बेटा। वह चला गया। मर गया। रामपुकार भागे स्टेशन। पुलिस की लाठियां खाते रहे। दौडते रहे। पहुंचे निजामुद्दीन।लगे पुकारने- ये पहुंचा दो रे बेगुसराय, पटना, बिहार। ये बेटा मर गया। रे भाई। गोड़ पड़ते हैं। है कोई रे भाई। तीन दिन पड़े रहे स्टेशन पर । रोते रहे। बड़बड़ाते रहे। पास की एक महिला देख रही थी। वह आगे आई। टिकट कटवाई। रेलवे की औपचारिकताएं पूरी की। पांच हजार रुपए दिए। खाने की पोटली दी। रेल में बैठा दिया। रोते-रोते रामपुकार पहुंच गए बेगुसराय। अब वे क्वारंटिन सेंटर में हैं। पुलिस वालों ने घर नहीं जाने दिया। इक्कीस दिन बाद ही होगी बाल-बच्चों से मुलाकात। क्या-क्या बताएं। कलेजा मुंह को आता है।
याकूब और अमित की कहानी सुनी। सुनो, हिंदू-मुस्लिम करने वालों। सूरत के कारखाने में काम करते थे याकूब और अमित। सूरत से भागे। रास्ते में अमित को उल्टी होने लगी। ट्रक वाले ने उतार दिया। याकूब भी उतर गया। सड़क किनारे दोस्त का सिर जांघ पर रख। मदद-मदद चिल्लाता रहा। कोई आगे आता, उसके पहले ही अमित चला गया। रोते-रोते याकूब की आखें लाल हो गई। वह जा रहा अमित का शव लेकर गांव-दोस्त है कहां छोड़ दें। नहीं छोड़ेंगे। किसी कीमत पर । जिसे जो कहना हो कहे— ।
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सिस्टम फेल हो जाए। लोग फेल नहीं होते। समाज मरा नहीं अभी। लोग दौड़ रहे, हाईवे की ओर। दवा, खाना-पानी, चप्पल, छाछ, जलजीरा लेकर। हां, सेनेटरी पैड भी। लोग मजदूरों की मनुहार कर रहे-थोड़ा रूक जाओ भाई, कुछ खा लो, थोड़ा सुस्ता लो। जगह-जगह लंगर खुल गए। शमियाने टंग गए। एक पत्रकार हैं डॉ. राकेश पाठक। ग्वालियर के पास हाईवे पर बंद ढाबा खोलकर बैठे हैं। दोस्तों को जमा किया। नाम दिया इंसानियत के फरिश्ते। दिन-रात जुटे हैं सेवा में। खाना-पानी, दवा, चप्पल-गमछा सब। श्री पाठक जैसे हजारों लोग-सब इंसानियत के फरिश्ते। उस दिन देखा सरदार जी लोगों को। दौड़-दौड़ कर ट्रेन में पहुंचा रहे रोटी-सब्जी। असरदार सरदार। मानवता जिंदाबाद। सामाजिकता जिंदाबाद। ऐ कोरोना, सुन लिख ले, तू पीड़ा दे सकता है, हमारे कुछ अपनों को छीन सकता है। पर पराजित नहीं कर सकता। हिंदुस्तान जिंदाबाद है, जिंदाबाद ही रहेगा।
(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)
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