लोकतंत्र के सामने छाए अंधेरे के खिलाफ एक दीया है- 18 मार्च!

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लोकतंत्र की रक्षा के लिए 1974 में छात्र आंदोलन के दौरान अपार भीड़ को संबोधित करते जयप्रकाश नारायण
लोकतंत्र की रक्षा के लिए 1974 में छात्र आंदोलन के दौरान अपार भीड़ को संबोधित करते जयप्रकाश नारायण
  • बिपेंद्र कुमार

लोकतंत्र के सामने छाए अंधेरे के खिलाफ एक दीया है- 18 मार्च! जनता को अपनी ताकत का एहसास कराने की तारीख है 18 मार्च। लोकतंत्र का जरूरी पाठ है 18 मार्च। साल में 365 तारीखें आती हैं और गुजर जाती हैं। कोई भी हर तारीखों को याद नहीं रखता। लेकिन इनमें कुछ तारीखें होती हैं जो इतिहास बनाकर दर्ज हो जाती हैं। लोग इस तारीख को बार-बार याद करते हैं। 18 मार्च भी एक ऐसी ही तारीख है।

साल 1974  का 18 मार्च!  आप मन से करें या बेमन से, भले से करें या बुरे से, लेकिन इस तारीख को याद करने से बच नहीं सकते। बार-बार याद रखना होगा। इसी तारीख को बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हुआ था। जिसे बाद में जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिला और बिहार आंदोलन के नाम से जाना गया। आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की लाठी खाने वाले, जेल में कांटों पर सुलाए गए, हजारीबाग जेल की चाहरदिवारी फांद कर मुक्त हो जाने वाले  जयप्रकाश को 72 साल की उम्र में आजाद भारत और उसके बिहार राज्य की पुलिस की लाठी खानी पड़ी। लेकिन 72 साल का यह बूढ़ा माना नहीं। बदलाव के लिए ललकारता रहा, लोग साथ भी होते गए।

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24 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान से इस बूढ़े शेर ने दहाड़ा तो हड़बड़ाई इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की भोर में पूरे देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया। उस दिन के पहले तक देश की बहुत बड़ी आबादी को आंतरिक आपातकाल  का मतलब भी नहीं मालूम था। कानून जानने वाले भी अनभिज्ञ थे, कि संविधान में ऐसा भी कोई प्रावधान है। लेकिन संविधान में इसका प्रावधान था और इसे खोज निकाला था इंदिरा गांधी के कानून मंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने। बहरहाल आपातकाल लगा और अहले सुबह या मध्यरात्रि में ही जयप्रकाश समेत देश के तमाम बड़े विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।

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इंदिरा को अपनी पार्टी के अंदर बगावत की बू आई और चंद्रशेखर, जगजीवन राम जैसे नेताओं के लिए भी जेल का बर्थ एलाट हो गया। फिर 1977 में चुनाव हुआ। पूरे हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस की बोहनी भी नहीं हुई। यहां तक कि खुद इंदिरा और उनका बेटा संजय भी चुनाव हार गये। दिल्ली की गद्दी पर पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बैठी….बाद में बिहार की सरकार भी बदली। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण सिंह, रविशंकर प्रसाद, अश्विनी चौबे, नरेंद्र सिंह, जैसे आज के तमाम बड़े नेता इसी आंदोलन की उपज हैं।

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बिहार में सत्ता और विपक्ष की कूंजी इन्हीं के हाथों में हैं। लेकिन बिहार आंदोलन जिन कारणों से हुआ था, उसका जो लक्ष्य था, उसे सबों ने मिलकर तिजोरी में बंद कर दिया है। उनका नाम लेने से सत्ता फिसलती नजर आने लगती है। निजाम बदल गए, लेकिन मुद्दे बरकरार हैं। फिर भी अब उन मुद्दों को याद करने की जहमत भी कोई नहीं उठाना चाहता। ना तो आंदोलन से जुड़ी विभिन्न राजनीतिक पार्टियां इसे जरूरी समझती हैं और ना ही मीडिया इन राजनीतिज्ञों  या जनता को उन चीजों की याद दिलाने की कोई जरूरत महसूस करता है। यही कारण है कि आज 18 मार्च है, यह बिहार की नई पीढ़ी को पता भी नहीं है, लेकिन उन्हें 18 मार्च का मतलब-बार याद दिलाते रहने की जरूरत है।

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