- बिपेंद्र कुमार
बात दशकों पुरानी है। साल याद नहीं। कुलदीप नैयर साहब पटना किसी कार्यक्रम में आये थे। गांधी संग्रहालय में ठहरे थे। रात 9 के आसपास हम तीन-चार मित्र दफ्तर का काम निबटा उनसे मिलने गए।
घंटों बात होती रही। करीब 12 बजे उन्होंने कहा कि बिना चाय की कितनी बात होगी। चलो चाय पीने। हम लोग कमरे से निकले, लेकिन तब तक गांधी संग्रहालय का गेट बंद हो चुका था। गेट बंद देख नैयर साहब ने कहा, यह तो लड़कियों के हॉस्टल जैसी व्यवस्था है। चलो गेट फांद जाते हैं। और फिर हम लोग गेट फांद कर गांधी मैदान बस अड्डा आ गए चाय पीने।
रास्ते में वे बताने लगे, ” ये गांधी संग्रहालय का गेट तो बहुत कम ऊंचा है। लाहौर में मैं जिस कॉलेज में पढ़ता था, वहां लड़कों और लड़कियों का हॉस्टल अगल-बगल था। लेकिन लड़कियों के हॉस्टल का गेट रात सात बजे ही बंद हो जाता था। ऐसे में हमलोग हॉस्टल की चहारदीवारी फांद कर लड़कियों के हॉस्टल में चले जाते थे और देर तक गप करते रहते थे।”
नैयर साहब इतने खुशमिजाज थे, यह उनसे ही जानने को मिला था। आज उनके निधन के बाद अचानक यह वाकया याद आ गया।
उमेश चतुर्वेदीः वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर नहीं रहे। गांव में जब रहता था तो वहां आने वाले दैनिक जागरण अखबार में उनका साप्ताहिक कॉलम ‘बिट्वीन द लाइंस’ पढ़ता था। पत्रकार बनाने में उस कॉलम का भी अवचेतन में बड़ा योगदान रहा।
बाद के दिनों में उनकी किताब पहले अंग्रेजी में The Scoop नाम से पढ़ी। उसका विस्तृत संस्करण हिंदी में ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ नाम से पढ़ी। नैय्यर ने इस किताब में पत्रकारिता जीवन से जुड़ी कई घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है।
दो घटनाओं और लोगों पर वे संकेत में ही बात कह कर निकल गए हैं। वे लालबहादुर शास्त्री के सूचना अधिकारी थे और इसी हैसियत से ताशकंद भी गए थे। लेकिन वहां हुए उनके निधन पर उन्होंने साफगोई से नहीं लिखा है।
इसी तरह स्टेट्समैन के संपादक रहते वक्त बंगाल से राज्यसभा में आए सांसद के घर उसके अनुरोध पर गए। उसकी माली हालत का बयान किया और बाद में वह सांसद राष्ट्र का बड़ा आदमी बना। अगर पाठक जागरूक ना हो, खासकर पत्रकारिता की पृष्ठभूमि का न हो, तो दोनों के बारे में सही-सही अंदाज नहीं लगा सकता। भले ही नैय्यर की अपनी विचारधारा थी, लेकिन वे बड़े पत्रकार थे।
उन्हें सादर नमन!
अनिल विभाकरः आज सुबह-सुबह भारत में पत्रकारिता के एक बेहद मजबूत स्तंभ कुलदीप नैयर के निधन की खबर ने मुझे उदास कर दिया। कल ही दैनिक जागरण में उनका एक अच्छा लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में वोट के लिए पाकिस्तान से मुसलमानों को कांग्रेस द्वारा बसाये जाने की बात कही है। यह बात उन्होंने फखरुद्दीन अली अहमद के हवाले से कही है। आज उनके निधन की खबर से अचानक दिल में एकदम से धक-सा महसूस हुआ। वे पत्रकारिता के एक मजबूत स्तंभ थे।
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उनसे हमारी पहली भेंट पटना के दैनिक आज कार्यालय में 1983 में हुई थी। उस समय मैं इस क्षेत्र में आया ही था। दिन में वे अचानक संपाकीय विभाग में आए और मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा- मेरा नाम कुलदीप नैयर है। यह सुनकर मेरे आनंद का तो कोई ठिकाना ही नहीं रहा। मैंने उन्हें आदर से बिठाया और चाय पिलाई। उनकी समस्या यह थी कि आज में उनके छपे लेखों का बहुत दिनों से भुगतान नहीं हुआ था। मैने उनकी बात स्थानीय प्रबंधन से करा दी। यहां से तो भुगतान होना था नहीं, भुगतान का काम तो मुख्यालय वाराणसी से होता था। सो, प्रबंधन ने गोलमोल जवाब देकर उनकी अपेक्षा पूरी नहीं की। उनसे अचानक मिलकर मुझे काफी गौरव महसूस हुआ था। मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!
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