पुलवामा में हुए शहीदों की तेरहवीं को नरेंद्र मोदी ने अत्यंत वीरोचित रिवायत से आज (26 फरवरी) निष्पादित कराया। इस्लामी पाकिस्तान के सीमापार आतंकी शिविरों पर बम बरसा कर, भारत ने बता दिया कि फौजी दबंगई का जवाब होता है। दे भी दिया गया। इसी क्षेत्र में आठवीं सदी के उमय्याद आततायी गाजी इमदादुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम के काल से चली आ रही फौजी दहशतगर्दी का माकूल उत्तर आज दिया गया। इसी कासिम को इस्लाम अपनाने वाले गुजराती वणिकपुत्र मोहम्मद अली जिन्ना ने प्रथम पाकिस्तानी करार दिया था।
भारतीय कभी “आँख में भर लो पानी” वाला गीत गाया करते थे| उनके अगुवा थे जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने कश्मीर गँवाया, फिर अक्साई चीन (लद्दाख) और बोमडिला (अरुणांचल) को कटते देखा। वे अबतक पूर्वोत्तर सीमा पर छाये ही रहे। मगर मोदी ने सूक्ति बदल डाली| आज का नारा है, “जहाँ हमारा लहू गिरा है, वह कश्मीर हमारा है।”
मोदी की आभासी पुंसत्वहीनता का कई भारतीय, विशेषकर राहुल-कांग्रेसी, मजाक बनाते रहे। मगर आज राफेल को मिराज बमवर्षकों ने पछाड़ दिया। अब राहुल किस यान पर सवारी करेंगे, किस पर उड़ेंगे?
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हालांकि मोदी के अलोचक अन्य आधार खोजने लगे हैं। वे कह सकते हैं कि बालकोट, जिस पर भारतीय वायुसेना ने हमला किया, वह सीमारेखा पर है, न कि खैबर पख्तूनख्वा जिले में। अर्थात भारत ने केवल पाक कश्मीर पर, न कि इमरान खां के सुदूर गृहप्रदेश पर बम बरसाये। मोदी-आलोचक व्यंग्य कस सकते हैं कि जैशे मोहम्मद के सभी आतंकी सुरक्षित हैं, अजहर का जीजा भी (जीजा की रक्षा आखिर धर्म भी तो है) अर्थात यह हर्षदायिनी खबर होगी। परन्तु किस भारतीय के लिये? यह भी मोदी पर छींटा कसा जा सकता है कि “पुलवामा का बदला लोकसभा चुनाव के बाद भी लिया जा सकता था। अभी क्यों ?” आखिर सत्तर साल (नेहरू युग) से जब हर आतंक को भारत में सहा गया तो चन्द महीने और सह लेते।” अर्थात् मोदी को मनमोहन सिंह का अनुकरण करना था, जब मुम्बई हमले के बाद भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने अत्यधिक सहनशीलता और सब्र बनाये रखा। भले ही पुलवामा से वह अधिक जघन्य था। वहाँ ज्यादा मारे गये थे। हत्यारे कसाब की फांसी को रुकवाने वालों से यही अपेक्षा रही। चरारे शरीफ के आतंकी मेजर मस्त गुल को बिरयानी परोसने वाले वस्तुतः मानवाधिकार के रक्षक ही तो रहे।
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(के. विक्रम राव के फेसबुक वाल से साभार)
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