बाढ़ की विभीषिका झेल रहे केरल की मदद के लिए भारत सरकार किसी दूसरे देश की मदद स्वीकार नहीं करेगी। सरकार के इस फैसले के बाद इस पर बहस छिड़ गयी है। बहस के बीच आम आदमी यह समझ नहीं पा रहा कि सामान्यतया मदद तो दुर्दिन भी ही ली या दी जाती है। बहस के क्रम में पेश हैं प्रवीण बागी की टिप्पणी, जो उनके फेसबुक वाल से ली गयी है
केरल में बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए सयुंक्त अरब अमीरात (यूएई ) की 700 करोड़ की मदद की पेशकश को केंद्र द्वारा ठुकराने का औचित्य समझ से परे है। विपत्ति के समय दुनिया के देश एक दूसरे की मदद करते हैं, यह एक मान्य परंपरा है। प्राकृतिक आपदा में भारत भी दूसरे देशों की मदद करता रहा है।
इसी आधार पर यूएई समेत अन्य देशों ने भी मदद की पेशकश की है, लेकिन केंद्र सरक़ार यह हवाला दे रही है क़ि अपने संसाधनों से ही आंतरिक आपदा से निपटने नीति 15 वर्षों से चली आ रही है। अगर प्राकृतिक आपदा में विदेशी मदद नहीं लेने की कोई नीति है भी तो यह घोर तोता चश्मियत है। यह तो ऐसा ही है जैसे 2008 में बिहार में कुसहा त्रासदी के समय गुजरात सरकार ने बिहार सरकार को भेजी मदद वापस लौटा दी थी।
उधर केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहना है कि साल 2016 में घोषित आपदा प्रबंधन नीति में स्पष्ट है कि यदि किसी दूसरे देश की राष्ट्रीय सरकार स्वेच्छा से सद्भावनापूर्ण कदम उठाते हुए सहायता की पेशकश करती है तो केंद्र सरकार यह पेशकश स्वीकार कर सकती है।
यह कितना हास्यास्पद है की एक तरफ तो आप कर्ज और विदेशी मदद के लिए विदेशों कि ख़ाक छानते रहते हैं, वही संकट काल में जब कोई देश मदद का हाथ बढ़ाता तो आप सिद्धांत बघारने लगते हैं ! केंद्र सरकार को अविलंब यूएई समेत अन्य देशों की मदद स्वीकार करनी चाहिए।
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