सईदा खान की ट्रेजिडी भरी दास्तां  सुन रूह कांप जाती है

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सईदा खान
सईदा खान
  • वीर विनोद छाबड़ा 

सईदा खान की ट्रेजिडी भरी दास्तां सुन कर रूह कांप जाती है। साठ के सालों में एक्ट्रेस होती थीं, सईदा ख़ान। खूबसूरत तो नहीं, मगर दिलकश जरूर थीं और टैलेंटेड भी। उन्होंने किशोर कुमार, राज  कुमार, मनोज कुमार, बिस्वजीत, फ़िरोज़ ख़ान, अजीत आदि प्रसिद्ध एक्टर्स के साथ काम किया।

उनकी पहली फिल्म थी- अपना हाथ जगन्नाथ (1960), जिसमें वो किशोर कुमार की हीरोइन थीं और आखिरी फिल्म थी- ‘वासना’ (1968), जिसमें वो राजकुमार को रिझाने वाली चमेलीबाई के साइड रोल में थीं। इस बीच उन्होंने हनीमून, मॉडर्न गर्ल, कांच की गुड़िया, मैं शादी करने चला, चार दरवेश, सिंदबाद अलीबाबा और अलादीन, ये ज़िंदगी कितनी हसीन है और कन्यादान में अच्छे रोल किये। मगर आठ साल के कैरीयर में मात्र 17-18 फ़िल्में ही उनके हिस्से में आयीं।

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शायद इसका कारण उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रही। दरअसल, वो बदनाम अनवरी बेगम की बेटी थीं। सईदा की कमाई से घर चलता था। मगर तभी उनकी ज़िंदगी में अच्छे पल लेकर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर ब्रिज सदाना आये। उन्होंने न केवल उनकी मदद की, बल्कि शादी भी कर ली, इस शर्त पर कि उनकी मां और भाई-बहन के पालन-पोषण का खर्च ब्रिज उठाते रहेंगे।

ये वही ब्रिज सदाना हैं, जिन्होंने साठ और सत्तर के सालों में दो भाई, ये रात फिर न आएगी, उस्तादों के उस्ताद, एक से बढ़ कर एक, विक्टोरिया नंबर 203, नाइट इन लंदन, यक़ीन, प्रोफेसर प्यारेलाल जैसी हिट फ़िल्में दीं। मगर ज़िंदगी में पैसा, शोहरत, प्यार और भावुकता ही काफी नहीं होती, एक-दूसरे पर विश्वास होना भी ज़रूरी है। ब्रिज हमेशा शक़ करते रहे कि सईदा की छोटी बहन शगुफ़्ता वास्तव में उसकी नाजायज़ औलाद है।

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उन्हें बताया गया था कि शगुफ़्ता को अनवरी बेगम ने गोद लिया था। फ़िल्म इंडस्ट्री में सईदा और शगुफ़्ता को लेकर तरह-तरह की बातें भी होती थीं। शगुफ़्ता की सूरत में सईदा की छाया है और सईदा उसका कुछ ज़्यादा ही ख़्याल रखती है। ब्रिज ये सब देखा-सुना करते थे। इसी बात को लेकर उनका सईदा से अक्सर झगड़ा होता रहा।

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और आख़िर 21 अक्टूबर 1990 को वो हुआ, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। पूरी फिल्म इंडस्ट्री कांप उठी। उस दिन ब्रिज ने ज़रूरत से ज़्यादा नशा कर लिया। घर आये, जहां बेटे कमल की बीसवीं सालगिरह मनाई जा रही थी। अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से सईदा, बेटी नम्रता और बेटे कमल पर गोली चला दी। और, फिर खुद को भी गोली मार दी। सबको अस्पताल पहुंचाया गया। मगर तब तक सब ख़त्म हो चुका था। संयोग से कमल बच गया। शायद उसकी नियति में लिखा था कि वो दुनिया को बताये कि उसके पिता ने अच्छा काम नहीं किया था।

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कमल सदाना को संभलने में काफी वक़्त लगा। वो काजोल की पहली फ़िल्म ‘बेख़ुदी’ के हीरो रहे। उन्हें चाकलेटी हीरो कहा जाता था। मगर बदकिस्मती उनके पीछे भी पड़ी रही। रंग, बाली उमर को सलाम, रॉक डांसर, कर्कश आदि एक के बाद एक फ्लॉप हो गयीं। उन्होंने पिता ब्रिज की ‘विक्टोरिया नंबर 203 का रीमेक भी बनाया लेकिन बात बनी नहीं।

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मगर अभी कहानी ख़त्म नहीं हुई। सईदा की हत्या के बाद उसकी छोटी बहन शगुफ़्ता रफ़ीक़ अकेली पड़ गयीं। मां और भाई के लिए उन्हें पहले बार-गर्ल बनना पड़ा, जिस्म का सौदा भी करना पड़ा। मगर शगुफ़्ता बहुत स्ट्रांग थी। इसीलिए जल्दी ही इस दलदल से निकल आयी। तक़दीर ने भी साथ दिया। महेश भट्ट ने उसे आसरा दिया। ज़िंदगी के कड़वे तजुर्बों को उसने कलमबद्ध किया। मालूम हो कि वो लम्हे, आवारापन, राज़ 2, राज़ 3, जिस्म 2, मर्डर 2, आशिक़ी, हमारी अधूरी कहानी शगुफ़्ता ने ही लिखी हैं। कुछ ज़िंदगियां ऐसे ही चलती हैं, ट्रेजिक फिल्म की तरह।

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