- नरेंद्र अनिकेत
अयोध्या में राम मंदिर के सवाल पर कई बार उबाल आ चुका है। अदालत भी इस सवाल में उलझी हुई है। लेकिन इस सवाल में एक चीज गौण हो गई है वह है रामकथा। असल में भारतीय समाज ने अपनी गाथाओं और मिथकीय कथाओं की गहराई को समझा ही नहीं है। नास्तिक पंथ या विचार के लोगों ने राम को ही काल्पनिक कह किनारे किया तो भगवान के धुर भक्तों ने अपनी असीम आस्था दिखते हुए हर संदेश को लीला कह स्थिर कर दिया है। राम को काल्पनिक भी मान लिया जाय तो भी कथा का महत्व कम नहीं हो जाता है। यह सवाल खड़ा होता है कि उस काल में जहां राम को अवतार कहा गया उसकी जरूरत क्या थी? क्या भारतीय समाज किसी अवतार के लिए आतुर था या उसे इसकी दरकार थी? अवतार माना जाय तो हर सवाल का उत्तर तत्कालीन भारतीय समाज के रावण के उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना हो जाता है। लेकिन यहां हम एक बात भूल जाते हैं और वह कि यह कथा दो भिन्न सभ्यताओं या जीवन शैलियों के बीच टकराव को सामने रखती है।
अपने छात्र जीवन में एक पत्रिका के लिए लिखे गए एक लेख में मैंने कहा था कि राम और कृष्ण की कथा का पुन: विवेचन और मंथन किए जाने की आवश्यकता है। रामकथा के मूल में भारतीय जीवन है। वह भारतीय जीवन जो इस परिवेश की शक्ति की है। ऐसे में रामकथा में जो बिंदु हमारे सामने हैं उसे नजअंदाज नहीं किया जा सकता है। राम भगवान थे या नहीं यह सवाल विचारणीय नहीं है। दोनों ही स्थितियों में कथा का महत्व कम नहीं होता है। साहित्य के लिहाज से भी इसकी समीक्षा करने की जरूरत है। इसका कारण यह नहीं कि यह कथा भारतीय जीवन से संबद्ध है, बल्कि इसे आज के बाजारवादी युग के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। स्पष्ट रूप से कहा जाय तो रामकथा दो भिन्न सभ्यताओं और जीवन शैलियों के बीच का द्वंद्व है। एक ओर राम अभावों के बीच बसे सहज जीवन धारा के प्रतिनिधि के रूप में खड़े हैं तो दूसरी तरफ रावण समृद्ध और उद्दाम जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं। राम और रावण के बीच के इस अंतर को गहराई से देखा जाय तो राम समृद्धि के विरुद्ध खड़े नायक हैं। यही खूबी राम की लोकग्राह्यता को विस्तार देती है। यही लोकग्राह्यता राम को काल और देश की सीमा के पार ले जाता है। राम केवल भारत के ही नहीं रहते हैं, बल्कि समय के बाद वह भू सीमा की परिधि को लांघ जाते हैं। राम के इस विस्तार पर अलग से लिखा जा सकता है, लेकिन वह गहरे अध्यवसाय का विषय है।
रामकथा पर विचार करते हुए एक बात पर ध्यान देना अनिवार्य है कि इस कथा को सिर्फ अयोध्या के राज परिवार की गाथा के रूप में न देखा जाय। यह कथा सिर्फ बहुविवाह और उससे उपजे पारिवारिक विद्वेष तक ही सीमित नहीं है। राम एक ऐसे नायक हैं जो कई संदेश समेटे हुए हैं। राम को समझने के लिए हमें भारतीय जीवन में आए विभिन्न नायकों को भी देखना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि राम जिस काल में हुए वह भारतीय जीवन का कौन सा चरण है। इस रूप में विचार करते ही राम के असली स्वरूप का विवेचन स्पष्ट हो जाता है। हिंदू धर्म या भारतीय दार्शनिक चिंताधारा में और भी कई अवतार हुए हैं। कृष्ण और भगवान बुद्ध भी इसी भारत भूमि के पात्र हैं। ये सभी अवतार या नायक कृषि युगीन भारत में हुए थे और उन्होंने जीवन को दिशा दी थी। राम अपने वनवास के दौरान वनवासियों के जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य किए गए थे। उनका नगर में प्रवेश वर्जित था। जो जीवन शैली उन्हें अपनानी थी वह उस भारतीय समुदाय की थी जिसे हम वंचित कहें तो अतियुक्ति नहीं माना जाएगा। एक राजसत्ता भोगने वाले का यह जीवन उस भारतीय समाज ने स्वीकार किया जो वंचित था। राम को राजसत्ता से पृथक किया जाना और फिर राजसत्ता के उनके जीवन पर आक्रमण के साथ ही अपनी मूल सत्ता से सैन्य सहयोग नहीं लेना ऐसे बिंदु हैं जो विचारणीय हैं। इस लिहाज से राम वैभव के विरुद्ध खड़े आम आदमी के नायक हैं।
यह ऐतिहासिक सत्य है कि कृषि युग में भारत न केवल सबसे बड़ा उत्पादक था, बल्कि यही सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता भी था। हिमालय और उसकी नदियां इसकी सबसे बड़ी शक्ति रही। यही कारण है कि हमारे जीवन में नदियों को भी अवतरित माना गया और उसकी भी कथाएं किसी से छिपी नहीं हैं। नदियां जीवन के लिए अनिवार्य जल स्रोत होने के साथ ही उत्पादन की धुरी भी रही। समय बदला तो ये नदियां ही ऊर्जा का स्रोत भी बनीं हैं। जीवन का मूल आधार होने के साथ ही कृषि उसकी सहजता का कारक भी है। उसी काल में व्यापार और समृद्धि भी बढ़ी। इसी समृद्धि के साथ भारतीय जीवन धारा में सोने का प्रवेश हुआ। सोना समृद्धि का प्रतीक भी बना और जीवन में संघर्ष का कारण भी। रामकथा में इसका समावेश हमें इसी ओर ध्यान दिलाता है। कथा के वनवास खंड में राम की कुटिया के सामने से सोने के मृग का गुजरना और राम का उसपर मुग्ध होना स्वाभाविक माना जा सकता है, लेकिन तत्क्षण सीता का उसपर मोहित होना और राम को उसका शिकार करने के लिए उद्धत करना हमारे सामने एक सवाल रखता है। जिस राम के लिए कैकेयी ने तापस वेश विशेष उदासी। चौदह वर्ष राम वनवासी।। की शर्त रख दी थी और उन्हें कंदमूल, फल खाना था। ऐसे में वह किसी जीव के शिकार के लिए क्यों बढ़े? इसका सीधा सा उत्तर कालिदास के मेघदूतम में मिल जाएगा। कालिदास रचित मेघदूतम के पूर्वमेघ सर्ग में लिखा है –
‘धूमज्योति: सलिलमरुतां संनिपात: क्व मेघ:
संदेशार्था: क्व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:।
इत्यौत्सक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनुषु।।’
इस श्लोक का अर्थ यही है कि कामार्त पुरुष जड़ और चेतन का अंतर भूल जाता है। यही कारण है कि यक्ष बादलों को ही अपनी प्रिया के लिए संदेशवाहक मान अपनी व्यथा सुनाता है। कालिदास के इस श्लोक का उल्लेख करने पर खास तौर से आस्तिक धारा के लोग विवाद कर सकते हैं। लेकिन तुलसीदास कृत रामचरित मानस में सीता हरण के बाद की एक चौपाई पर ध्यान दिया जा सकता है। राम सीता को खोजते फिर रहे हैं और कहते हैं – हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी। तुम देखिय सीता मृग नैनी।। इस चौपाई से महाकवि तुलसी राम का मानवीकरण करते हैं। रामावतार में राम का मानवीकरण ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। यही उन्हें विस्तार में स्वीकृति दिलाता है। इसी कारण राम लोकजीवन के नायक लगते हैं। सोने के मृग के पीछे उनका जाना भी मानवोचित स्वभाव को सामने रखता है। यह तो काव्य और कारण है लेकिन सवाल यही है कि यहां सोने का मृग और सीता का मोहित होने का कारण क्या है?
रामकथा के इस बिंदु पर गौर किया जाना चाहिए। जो सोने का मृग कुटिया के सामने आया वह माया मृग था। राम के लिए उसका सौंदर्य मुग्धकारी तो था लेकिन उसकी उपादेयता उनके लिए नहीं थी। सीता उसकी काया पर मोहित होती है और उसे अपने शृंगार का साधन बनाना चहती हैं। राम के लिए अपनी पत्नी की इस इच्छा का निषेध करना या उसकी उपेक्षा करना संभव नहीं था। यहां सोना, माया और मृग तीनों का अपना संदेश है। सोना वैभव का प्रतीक है, माया बाजार का छलावा और मृग उसकी चंचलता है। ये तीनों जब भारतीय जीवन में आए तो मधुर रिश्ते भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सके होंगे।
बाजार की अपनी माया होती है और उत्पाद रूपी मृग ही उपभोक्ता को आकर्षित करते हैं। औद्योगिकरण के बाद की दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आए और जो उत्पाद आए उनपर गहरी दृष्टि डालिए तो रिश्तों की बदलती परिभाषाएं और उसमें टूट साफ दिख जाएंगे। फिर रामकथा उस समय की है जब उद्योग और उद्यम खेती तक सिमटा था। उस समय बाजार जिस परिधि में खड़ा हो रहा था उसमें सोना ने आदमी के रिश्ते को प्रभावित किया होगा। स्त्री-पुरुष के रिश्ते पर उसका प्रभाव पड़ा होगा। इसी प्रभाव को रामकथा में रखा गया है। उस समय वैभव के उस प्रतीक से प्रभावित राम की संवेदना विद्रोह करती है और वह युद्ध की ओर झुकते हैं। राम अपने देश की सेना का साथ ले सकते थे, लेकिन वह ऐसा नहीं करते हैं। वह जिन वनवासियों के बीच जीते हैं और जिनकी जीवनशैली को अपनाते हैं उसे ही वैभव साम्राज्य के विरुद्ध एकजुट करते हैं। यहां राम वामपंथी नायक की भूमिका में आ जाते हैं। वैभव और समृद्धि की लालसा से दूर सहज जीवन जीने वाले ही रावण के शक्ति संपन्न और समृद्ध सत्ता को चुनौती देते हैं और उसे अपनी सीमित लेकिन एकजुट शक्ति से पराजित करते हैं। राम के जीवन का यह वामपंथ ही उन्हें लोकजीवन का सबसे ग्राह्य, स्वीकृत और अनुकरणीय बना देता है।
राम के बाद दूसरे सर्वाधिक स्वीकृत अवतार भगवान बुद्ध माने गए हैं। हैरत है कि जो बुद्ध अपने जीवन काल में खुद को अवतार के रूप में स्थापित नहीं करते हैं, कहीं कोई चमत्कार नहीं दिखाते हैं और केवल उपदेश देते हैं उन्हें उनके परवर्ती अनुयायी भगवान का अवतार घोषित कर देते हैं। भारतीय हिंदू मान्यताओं में वह भगवान विष्णु के नौवें अवतार मान लिए जाते हैं। लेकिन उनकी स्वीकृति और उनका विस्तार इस मान्यता पर नहीं टिका है। राम की तरह वह भी राज सत्ता से दूर होते हैं, लेकिन अपनी इच्छा से। उन्हें कोई निर्वासित नहीं करता है। वह अपनी पत्नी और पुत्र को छोड़ जाते हैं। बुद्ध जीवन की जो शैली अपनाते हैं वह वृहत्तर समुदाय का जीवन है। वह समुदाय जो प्रकृति से उत्पीडि़त है और सत्ता से उपेक्षित भी। साम्राज्यों का संघर्ष उनके समय में भी है और इन साम्राज्यों में वह वैशाली गणराज्य को दरकिनार नहीं करते बल्कि उसकी खूबियों को स्वीकार करते हैं और उसे बेहतर पाते हैं। बुद्ध जिस तरह के समाज की अवधारणा पेश करते हैं वहां उत्पादन अधिशेष और अधिशेष भूमि का संघर्ष समाप्त हो जाता है। समाज के लिए जीने की लालसा रखने वालों को मुक्ति का जो मार्ग वह देते हैं वही एकजुट होकर संघ के रूप में सामने आता है। इसे गौर से देखा जाय तो भगवान बुद्ध कृषि युगीन भारत के साम्यवादी माने जा सकते हैं। भगवान बुद्ध और राम का यही साम्य है जिससे आगे चलकर जातक रामायण की रचना हुई जिसमें उन्हें राम का अवतार माना गया। भगवान बुद्ध भी वैभव के संघर्ष के विरुद्ध खड़े आम आदमी के प्रतिनिधि हैं।
यदि इस दृष्टि से रामकथा और अन्य कथाओं का विवेचन किया जाय तो भारतीय समाज एक नई प्रेरणा ग्रहण कर सकेगा। असल में मंदिर-मस्जिद के बीच के संघर्ष से कहीं ज्यादा बेहतर असली राम की खोज है जो रामकथा में छिपे हैं। इस कथा का समयानुकूल विवेचन करने की जरूरत है।