सूरज पालीवाल के आलोचना-लोक का विराट है आलोक वृत्त

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सूरज पालीवाल ने अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहते कृपाशंकर चौबे को तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राव से गलतफहमी दूर करायी थी।
सूरज पालीवाल ने अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहते कृपाशंकर चौबे को तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राव से गलतफहमी दूर करायी थी।
सूरज पालीवाल ने अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहते कृपाशंकर चौबे को तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राव से गलतफहमी दूर करायी थी। इस रोचक प्रसंग का जिक्र कृपाशंकर चौबे ने अपने आलेख में किया है। 
  • कृपाशंकर चौबे

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में 2009 में जब मैं रीडर पद पर नियुक्त होकर आया तो फादर कामिल बुल्के छात्रावास के एक कमरे में सूरज पालीवाल रहते थे और उससे लगे दूसरे कमरे में मैं रहता था। कहना चाहिए कि हम साथ ही रहते थे। उसी दौरान किसी ने तत्कालीन कुलपति विभूतिनारायण राय से कह दिया कि ज्ञानरंजन को दो दिन पहले अमुक सूचना मैंने दी है। जब सूचना की बात मुझ तक पहुंची तो मैं पालीवाल जी के साथ कुलपति आवास गया और राय साहब के सामने ही मैंने पालीवाल जी से आग्रह किया कि ज्ञानरंजन जी को फोन कर स्पीकर आन कर सूचना के बारे में पता कीजिए।

विभूति नारायण राय (दायें) के साथ डा. कृपाशंकर चौबे
विभूति नारायण राय (दायें) के साथ डा. कृपाशंकर चौबे

ज्ञानरंजन जी ने पालीवाल जी को बताया कि उनकी मुझसे सालभर से कोई बात नहीं हुई है। और तब जाकर राय साहब की गलतफहमी दूर हुई। इस तरह के अनेक संस्मरण पालीवाल जी के बारे में मेरे पास हैं, जो बताते हैं कि वे साथ खड़े होनेवाले व्यक्ति हैं। जिस ज्ञानरंजन का अभी उल्लेख किया, वे हिंदी के जितने समर्थ कथाशिल्पी हैं, उतने ही समर्थ संपादक। ज्ञानजी अपनी पत्रिका ‘पहल’ में पालीवाल जी से स्तंभ लिखवाते हैं। उस स्तंभ में पिछले पांच वर्षों में 16 उपन्यासों पर पालीवाल जी ने तीक्ष्ण आलोचनात्ममक लेख लिखे।

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ज्ञानजी ने लिखा है कि पालीवाल जी का यह स्तंभ ‘पहल’ के लिए अपरिहार्य बन चुका है। उस स्तंभ में पालीवाल जी ने ममता कालिया, मृणाल पांडेय, चित्रा मुद्गल, सुजाता चौधरी, मधु कांकरिया, महेश कटारे, संजीव, अब्दुल बिस्मिल्लाह, ऋषिकेश सुलभ समेत 16 लेखकों के उपन्यासों की सांगोपांग समीक्षा की है।

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हिंदी कथा साहित्य प्रेमचंद के जमाने में ही बदलने लगा था। यशपाल और अज्ञेय हिंदी कहानी को गांव से शहर में ले गए। रेणु उसे अंचल में ले गए। रेणु के कालजयी उपन्यासों-‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ की संरचना में जो टटकापन है, उसके मूल्यांकन के लिए सूरज पालीवाल ने अपनी आलोचना पुस्तक ‘फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य’ में एक नए सौंदर्य-शास्त्र को निर्मित किया। पालीवाल जी बताते हैं कि रेणु का कथा साहित्य प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, उनसे कैसे अलग है और अपने समकालीन कथाकारों से भी कैसे भिन्न है। पालीवाल जी बताते हैं कि रेणु का कथा साहित्य अपनी संरचना में कैसे एक नवीन पहचान लेकर उपस्थित हुआ। इसी भांति सूरज पालीवाल ‘महाभोज’ व अन्य उपन्यासों का गंभीर विवेचन करते हैं।

हिंदी जगत में सूरज पालीवाल की प्रतिष्ठा मुख्यतः कथालोचक के रूप में है किंतु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनकी कहानियों के दो संग्रह-‘टीका प्रधान’ और ‘जंगल’ प्रकाशित होकर समादृत रहे हैं। उनकी कहानी ‘टीका प्रधान’ वर्णभेद की सशक्त कहानी है। वह कहानी आकाशवाणी से 1981 में प्रसारित हुई थी। गांव के धनी चमार टीका को ग्राम प्रधान नहीं बनने दिया जाता। वह जाटों की बहुलता और ब्राह्मणों की कूटनीति के कारण हार जाता है।

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इसी तरह सूरज पालीवाल की कहानी ‘अजनबी’ वर्गभेद की कथा है। ब्राह्मण होकर भी गरीब रामधन अपने गैर सवर्ण, किंतु सम्पन्न मित्र के सद् व्यवहार के बावजूद वर्ग भेद की दीवार नहीं तोड़ पाता। सूरज पालीवाल की हर कहानी में कठिन व जटिल होते जीवन संग्राम की अभिव्यक्ति हुई है। सूरज पालीवाल जब साहित्य की आलोचना करते हैं तो उनके भीतर के आलोचक के साथ उनका रचनाकार भी समान रूप से सक्रिय रहता है।

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‘फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य’, ‘संवाद की तह में’, ‘रचना का सामाजिक आधार’, ‘आलोचना के प्रसंग’, ‘साहित्य और इतिहास- दृष्टि’, ‘महाभोज: एक विमर्श’, ‘समकालीन हिंदी उपन्यास’, ‘हिंदी में भूमंडलीकरण का प्रभाव और प्रतिरोध’ तथा ‘कथा विवेचन का आलोक’ जैसी आलोचनात्मक कृतियां दरअसल ‘टीका प्रधान’ और ‘जंगल’ जैसे कहानी संग्रहों के रचयिता का आलोचना-लोक हैं। उस आलोचना-लोक का आलोक वृत्त विराट है। पालीवाल जी की पुस्तक ‘कथा विवेचन का आलोक’ हिन्दी कहानी की विकास यात्रा से परिचित कराती है। वह पुस्तक हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों का पुनर्मूल्यांकन तो है ही, अपने समय का पाठ भी उसमें प्रस्तुत हुआ है।

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