- संजय कुमार सिंह
हिन्दी पढ़कर कोई करेगा क्या, रोजी-रोटी तो मिलने से रही। वैसे तो मैंने हिन्दी नहीं पढ़ी और विज्ञान का छात्र रहा हूं, पर नौकरी हिन्दी अखबार में मिली थी। तो हिन्दी में ही रह गया। देश के नामी मीडिया संस्थान के अच्छे भले अखबार में नौकरी तो मिल गई पर वर्षों तरक्की नहीं मिली। वह भी तब जब परीक्षा लेने वाले ने ही कहा था कि उनकी जांच बहुत सख्त थी और उस परीक्षा की तुलना आईएएस की परीक्षा से की जाती रही है। नौकरी में रहते हुए तमाम विकल्प आजमा लिए और हिन्दी में लिखने से अच्छा काम मुझे अनुवाद का लगा और अभी भी अनुवाद के जितने पैसे मिलते हैं उतना मूल हिन्दी लेखन में नहीं है।
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बगैर तरक्की कितने दिन नौकरी होती। इसलिए जैसे ही वीआरएस का ऑफर आया – मैंने लपक लिया। दाल रोटी कमाने के लिए अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद की एजेंसी चलाता हूं। जैसे-तैसे, व्यवस्थित और संगठित रूप से यह सब करते हुए 30 वर्ष से ज्यादा हो गए हैं और अब कह सकता हूं कि हिन्दी में कोई ढंग का काम ही नहीं है। बच्चों को हिन्दी पढ़ाने, मुख्य रूप से गृहकार्य करवाने के अलावा किसी भी काम में न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती। मैं सामान्य काम और सामान्य भुगतान की बात कर रहा हूं- सेटिंग गेटिंग की दुनिया अलग है। पर वहां भी हालात अच्छे नहीं हैं। उसपर फिर कभी।
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हिन्दी पढ़ना, जानना और उसका विशेषज्ञ होना एक चीज है और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करना बिल्कुल अलग काम है। मुझे अनुवाद का ही काम मिलता रहा है और वह भी अंग्रेजी से हिन्दी में। हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद का काम भी मल्टी नेशनल कंपनियों और उत्पादों के खिलाफ एफआईआर से ज्यादा कुछ नहीं है। ऐसे में सरकार हिन्दी पढ़ने पर जोर दे – तो किस लिए। और हम इस पर चर्चा भी क्या और क्यों करें। सरकार हिन्दी पढ़ने की जबरदस्ती करे उससे किसी को क्या मिलना है? हिन्दी में काम सरकार भी कहां करती है। आवश्यक अनुवाद भी नहीं कराए गए हैं।
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अखबारों में हिन्दी की हालत खराब है ही, फिल्मों और टेलीविजन कार्यक्रमों में भी अब पहले जैसी हिन्दी नहीं है, भाग बोसडीके जैसे गाने बन रहे हैं (और पसंद भी किए जा रहे हैं)। हिन्दी-हिन्दी करने वाले टेलीविजन सीरियल बिग बॉस की बात करें या हिन्दी का हास्य प्रधान टेलीविजन कार्यक्रम- कपिल शर्मा का शो हो, कहीं भी सही और शुद्ध हिन्दी लिखने पर जोर नहीं है। गलतियां दिख ही जाती हैं। मशीन से किए जाने वाले सरकारी अनुवाद हर जगह हंसी का मसाला देते हैं पर काम की गंभीरता अभी भी स्थापित नहीं हुई है। उल्टे लगातार कम हो रही है।
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आज तक देश भर के शहरों के नाम से लेकर रेलवे स्टेशन, डाकघर आदि मानक नहीं है। कोई उड़ीशा लिखता है कोई ओडिशा और सब चल रहा है। और यह स्थिति तमाम हिन्दी समितियों और हिन्दी के उत्थान के लिए किए गए काम के बावजूद हैं। ऐसे में हिज्जे और अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी विकल्पों की क्या बात करना। इसके बावजूद सरकार हिन्दी थोपना चाहती है तो यह राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। इसे वैसे ही लिया जाना चाहिए। हालत यह है कांच के उत्पाद बनाने वाली एक मशहूर कंपनी को अखंड दीया जैसे उत्पाद के डिब्बे पर दीया को दिया लिखा है। और यह ट्रेडमार्क है। ना इसे सही लिखने की जरूरत महसूस हुई ना लिखने वाले को पता चला कि उसने गलत लिखा है। इसमें यह सवाल तो रहेगा कि हिन्दी पढ़कर कोई करेगा क्या?
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