- राणा अमरेश सिंह
नई दिल्ली। जपा नीत नरेंद्र मोदी सरकार ने सामान्य जाति के कमजोर युवाओं के लिए केंद्रीय सर्विसेज में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करने के लिए कैबिनेट से मुहर तो लगवा ली, लेकिन इसके अमल में आने में तमाम तरह के पेंच हैं। लोकसभा चुनाव से चार माह पहले इस तरह की भाजपा की कोशिश सवर्णों के प्रति सहानुभूति के स्टंट के अलावा कुछ नहीं। सबसे बड़ा खतरा उन 40 फीसदी समृद्ध सवर्णों को है, जिनकी आमदनी सालाना 8 लाख रुपये से अधिक है। भाजपा अगर 10 फीसद का आरक्षण सालाना 8 लाख रुपये तक वाले सवर्णों को देती है तो उसकै पारंपरिक सवर्ण वोटों में 40 फीसदी लोगों के कोप का भाजना भी होना पड़ सकता है।
सर्वविदित है कि इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा। संशोधन भाजपा के लिए आसान नहीं है। इसके कई कारण है। आरक्षण में पहला रोड़ा सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला है, जिसमें कहा गया था कि 50 फीसद से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। दूसरा रोड़ा राज्यसभा है, जहां भाजपा के पास इतना संख्या बल नहीं है, जिससे वह इसे पास करा सके। तीन तलाक का ताजा मामला सामने है। तीसरा सबसे बड़ा कारण वे क्षेत्रीय दल हैं, जिनमें ज्यादातर का जन्म ही जातीय आधार पर हुआ है। इसलिए सवर्ण बिरादरी के जो लोग आरक्षण के इस लालीपाप से इतरा रहे हैं, उन्हें अभी खामोश रहने में ही समझदारी है।
सबसे बड़ा खतरा उन 40 फीसदी समृद्ध सवर्णों को है, जिनकी आमदनी सालाना 8 लाख रुपये से अधिक है। भाजपा अगर 10 फीसद का आरक्षण सालाना 8 लाख रुपये तक वाले सवर्णों को देती है तो उसकै पारंपरिक सवर्ण वोटों में 40 फीसदी लोगों के कोप का भाजना भी होना पड़ सकता है। पहले से ही तमाम पिछड़ी जातियां जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी करने की मांग इसीलिए करती रही हैं कि उनके आरक्षण का दायरा बढ़ाया जा सके। इसी आधार पर क्षेत्रीय दलों का उदय भी हुआ। यानी एक को खुश करने में दूसरे तबके को नाराज करने का अवसर मिल जायेगा। एससी-एसटी ऐक्ट पर सवर्णों की नाराजगी का खामियाजा तीन राज्यों में भाजपा को भोगना पड़ा है। इसी डैमेज को कंट्रोल करने के लिए भाजपा ने यह चाल चली है।
वैसे पहली नजर में भाजपा की यह कोशिश सामान्य जाति के आर्थिक रूप से कमजोर युवकों के लिए खुश करनेवाली खबर दिखती है। लेकिन इसके पीछे की कूटनीतिक चाल भी लोग समझने लगे हैं। इतने कम समय में राजग सरकार इसे कानून की शक्ल नहीं दे पायेगी, यह सभी जानते हैं। कांग्रेस ने तो इसका समर्थन करने की बात कही है, लेकिन राज्यसभा में उसका रुख क्या होगा, यह बताना जल्दबाजी होगी। भाजपा के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है। यह भी हो सकता है कि यह मामला कुछ ही दिन में न्यायिक प्रकिया में फंस जाये। खासकर तब, जब अगले लोकसभा चुनाव की घोषणा होने में बमुश्किल से सौ दिन भी नहीं बचे हों। विरोधी दल पूरी कोशिश करेंगे कि भाजपा को इसका श्रेय नहीं मिल सके। हकीकत है कि भाजपा ने कैबिनेट से यह प्रस्ताव पास कर बाजी मारने का प्रयास किया है, लेकिन उसे भी पता है कि इसे अमल में लाना उसके बूते की बात नहीं है।
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कैबिनेट से पास होने के बाद इसे लोकसभा और राज्यसभा में पास कराना होगा। चूंकि संविधान में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं देने का प्रावधान है। इसके लिए सरकार को 10वीं अनुसूची में भी संशोधन करना होगा। सबसे बड़ी बात है कि भाजपा जब तीन तलाक को उच्च सदन यानी राज्यसभा में पास कराने में सफल नहीं हो पा रही है तो फिर 10 वीं अनुसूची को कैसे सुधारेगी। एक प्रकार से यह राजग का चुनावी शिगूफा लगता है।
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सियासत के धुरंधर नरेंद्र मोदी की यह एक साथ कई शिकार करने वाला तीर दिखता है। पिछले दिनों बासपा सुप्रीमो मायावती, लोजपा संसदीय दल के नेता चिराग पासवान ने भी सामान्य जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई थी और गुजरात में तो पटेलों के आरक्षण की मांग को वाले हार्दिक पटेल ने आंदोलन ही छेड़ रखा है। इन दलों को नरेंद्र मोदी ने धीरे, मगर जोर से झटका दिया है। अब समय आ गया है कि मायावती व हार्दिक पटेल समर्थित कांग्रेस लोकसभा और राज्यसभा में बिल को पास करने में साथ दें। अगर वे नहीं करते हैं तो यह कानून नहीं बन पायेगा और भाजपा इसी मुद्दे को लेकर चुनाव में जायेगी।
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राजनीतिक समीक्षकों की मानें तो अगर भाजपा इसे पिछले नवंबर में ही कैबिनेट से पास करा देती तो हालिया पांच राज्यों के परिणाम कुछ और ही होते। दरअसल भाजपा की कोर कमिटी ने हिंदी पट्टी में भाजपा के आधार वोट बैंक का खिसकना ही हार का कारण माना है। हजारों लोगों ने नोटा को चुना था।
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