21 जनवरी पुण्यतिथि पर विशेष
- नवीन शर्मा
विश्व साहित्य में अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यास 1984 व एनिमल फार्म विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन कालजयी किताबों के लेखक जार्ज ओरवेल का जन्म 25 जून 1903 को बिहार के मोतिहारी में हुआ था। उनके पिता मोतिहारी के अफीम महकमे में एक अंग्रेज अफसर थे। ओरवेल का असली नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था। ऑरवेल जब सिर्फ एक साल के थे तो मोतिहारी से मां के साथ ब्रिटेन चले गए थे। इंग्लैंड में उनका बचपन बीता और वहीं स्कूल व कालेज की पढ़ाई हुई। वे 21 वर्ष की आयु में एशिया लौट आए और बर्मा में एक पुलिसकर्मी बन गए। यहां के अनुभवों पर उन्होंने अपने दो प्रसिद्ध काम- बर्माज डेज और “शूटिंग ए एलिफंट” किए। ऑरवेल को अपने कालजयी उपन्यास एनिमल फार्म को छपवाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। यह किताब 1945 में आई थी। इस किताब में उन्होंने स्टालिनवाद पर तंज कसा है। इस किताब में उन्होंने सुअरों के राज वाले एक देश की बात की है। ये सुअर इंसानों से नफरत करते हैं। बाद में सुअर और इंसान दोनों को एक होते हुए दिखाया गया है। लीसेस्टर के डी मोंटफोर्ट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर पीटर डेविसन ने जॉर्ज ऑरवेल की जिंदगी और उनके रचना संसार को काफी करीब से देखा है। उन्होंने ‘जॉर्ज ऑरवेल: ए लाइफ इन लेटर्स एंड डायरीज’ नाम से एक किताब का संपादन किया है। इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के लिखे खत और डायरी नोट्स के जरिए उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की गई है। इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के द टाइम के संपादक को लिखे एक खत का जिक्र किया गया है। इस खत में ऑरवेल ने ब्रिटिश सरकार को बदले की भावना से जर्मन कैदियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार के लिए लताड़ते हुए लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर कोई पिछले दस सालों के इतिहास पर नजर डालेगा तो उसे लोकतंत्र और फासीवाद में एक गहरा नैतिक फर्क दिखेगा, लेकिन अगर हम आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत के सिद्धांत पर चलते हैं तो इस फर्क को भुला दिया जाएगा। इस खत को द टाइम के संपादक ने नहीं छापा था, लेकिन ऑरवेल के ये विचार महात्मा गांधी के उन विचारों के करीब दिखते हैं, जब वे कहते हैं कि आंख के बदले आंख की भावना एक दिन सारे संसार को अंधा बना देगी।
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जॉर्ज ऑरवेल राजनीतिक लेखन के लिए सबसे अधिक जाने जाते है। वे अधिनायकवादी तानाशाही की बेबाकी से आलोचना करते हैं। ऑरवेल विशेष रूप से सोवियत रूस की आलोचना करते थे, जहां कम्युनिस्ट शासन ने नागरिक अधिकारों पर काफी प्रतिबंध लगाए थे। वे चिंतित थे कि भविष्य में अगर जनता सरकार को बहुत अधिक नियंत्रण रखने की अनुमति दे, तो भविष्य चिंताजनक हो सकता है।
ओरवेल मानते थे कि लोकतांत्रिक समाजवाद भविष्य का रास्ता था। वह स्पेन के गृहयुद्ध में लड़े, क्योंकि वह फासीवाद को पराजित करना चाहता था। इस गृहयुद्ध से मिले अनुभवों को उन्होंने ‘होमेज टू कैटेलोनिया’ में पिरोया है। वे युद्ध में घायल होने के बाद द्वितीय विश्व युद्ध से अलग हुए। उन्होंने बीबीसी के लिए भी काम किया, जहां उन्होंने शासनाध्यक्षों को विरोधी साम्राज्यवादी नाजी प्रचार का मुकाबला करने का काम किया।
ओरवेल को उनके सबसे अच्छे उपन्यास एनिमल फार्म के लिए जाना जाता है। यह 1945 में प्रकाशित हुआ था। एनिमल फार्म 1 9 17 की रूसी क्रांति तक की घटनाओं का एक राजनीतिक रूपक है, क्योंकि स्टालिन ने सोवियत सत्ता हासिल की थी। उन्होंने जोसेफ स्टालिन और लियोन त्रोटस्की को सूअरों के रूप में दर्शाया है, जो वे अपने खेत के मित्रों को कार्ल मार्क्स के कम्युनिस्टों के आदर्शों को रोजगार देने की कोशिश करते हैं। वे पशु फार्म से निकलते हैं और कॉल करते हैं। नेपोलियन (स्टालिन) जल्द ही स्नोबॉल (ट्रॉट्स्की) को उखाड़ देता है और उसे एक बलि का बकरा बनाता है, जो वह अपनी शक्ति बनाए रखने के लिए आसानी से उपयोग करता है।
1984 नागरिकों के दिमाग और जीवन पर सरकार को अधिक नियंत्रण रखने की अनुमति देने के खतरों के बारे में एक गंभीर चेतावनी है। विंस्टन स्मिथ बिग ब्रदर की अध्यक्षता वाली पार्टी द्वारा नियंत्रित दुनिया में रहता है और पार्टी के खिलाफ भाषण या विचारों को यातना या मृत्यु के द्वारा दंडनीय होता है। दुनिया एक निरंतर राज्य युद्ध में है, जो हर किसी को व्यस्त रखती है, जबकि सरकार यह सुनिश्चित करती है कि वे खुद को बेहतर नहीं समझते हैं। उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब 1984 है। यह किताब उन्होंने लिखी थी 1948 में, लेकिन इसका शीर्षक उन्होंने रखा था-1984। क्योंकि वे इसमें अपने समय से आगे जाकर एक समय की कल्पना करते हैं, जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नजर रखती है और उन्हें बुनियादी आजादी देने के पक्ष में भी नहीं है।
वह सत्ता के खिलाफ सवाल उठाने वाली आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देना चाहता है। वह विद्रोहियों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है। वह इस किताब में तकनीक से घिरे उस दुनिया की बात करते हैं, जहां आदमी की निजता के कोई मायने नहीं हैं। जहां निजता मानवाधिकार न रह कर सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही विशेषाधिकार हो चुका है। ऑरवेल अपनी इस किताब में ‘बिग ब्रदर इज वाचिंग यू’ जैसी अवधारणाओं की बात करते हैं, जो आज वाकई में तकनीक और गैजेट से घिरी हुई इस दुनिया में अस्तित्व में है।
1984 को प्रशंसित सफलता मिली थी, लेकिन ओरवेल के पास इसका आनंद लेने के लिए काफी समय नहीं था। 1950 में 46 वर्ष की आयु में तपेदिक की जटिलताओं से उनकी मौत हो गई। लेकिन उनके कार्यों ने निस्संदेह सरकारी शक्ति और हस्तक्षेप से एक सतर्क प्रतिरोध का रूप धारण कर लिया। वे राजनीति को केंद्र में रख कर साहित्य रचने वाले दुनिया के कुछ गिने-चुने लेखकों में से एक थे। वे पॉलिटिकल नॉवेल लिख कर भी बेहद लोकप्रिय हुए।
टाइम मैगजीन ने साल 2014 में 1945 के बाद के 50 सबसे महत्वपूर्ण ब्रितानी लेखकों की सूची तैयार की थी, जिसमें जॉर्ज ऑरवेल को दूसरे स्थान पर रखा गया था। इस सूची में ‘ए गर्ल इन द विंटर’ के लेखक फिलिप लैरकीन को पहले और भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपॉल को सातवें स्थान पर रखा गया था।
ब्रितानी पत्रकार इयान जैक ने 1983 में पहली बार जॉर्ज ऑरवेल के जन्म स्थान का पता लगाया था। पिछले कुछ साल में भारतीय मीडिया में इसे लेकर कई खबरें भी छपी हैं कि कैसे मोतिहारी शहर अंग्रेजी साहित्य के इतने बड़े साहित्यकार का जन्म स्थान वहां होने की बात से अंजान है। कुछ साल पहले बिहार की नीतीश सरकार ने उपेक्षित पड़े उनके टूटे घर को म्यूजियम बनाने का ऐलान भी किया था। पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर विश्वजीत मुखर्जी ने मोतिहारी और जॉर्ज ऑरवेल के ऊपर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है। उनका कहना है कि जॉर्ज ऑरवेल के बारे में पहले तो मोतिहारी के लोगों को पता ही नहीं था। अब धीरे-धीरे लोग जानने लगे हैं, लेकिन अब दूसरी समस्या खड़ी हो गई है कि लोग जॉर्ज ऑरवेल को एक महान लेखक की बजाए सिर्फ एक अंग्रेज के तौर पर देखने लगे हैं।
ओरवेल हाउस को म्यूजियम बनाने की बिहार सरकार की घोषणा पर अब तक अमल नहीं
मोतिहारी स्थित ‘ऑरवेल हाउस’ को म्यूजियम बनाने की नीतीश सरकार की घोषणा सिर्फ घोषणा ही बन कर रह गई है अब तक। वहीं पिछले साल जब चंपारण सत्याग्रह का सौवां साल मनाया जा रहा था, तब ठीक ‘ऑरवेल हाउस’ के बगल में ही एक भव्य सत्याग्रह शताब्दी पार्क का निर्माण किया गया।
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जॉर्ज ऑरवेल अपने दौर के उन चुनिंदा लोगों में से थे, जो फासीवाद, नाजीवाद और स्टालिनवाद की समान रूप से आलोचना करते थे और दोनों को ही मानवता का संकट मानते थे। वे किसी भी तरह के अधिनायकत्व के खिलाफ थे। 21 जनवरी 1950 को अपनी मृत्यु से पहले सिर्फ 47 साल की जिंदगी में जॉर्ज ऑरवेल ने अपने वक्त के साथ-साथ अपने आगे के वक्त को भी बखूबी देख लिया था। इसलिए वे इस दौर में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। समाज और व्यवस्था पर दूरदर्शी नजर रखने वाला साहित्यकार शायद इसे ही कहते हैं।
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