- राणा अमरेश सिंह
पटना। लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, महागठबंधन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की स्वीकार्यता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। वहीं कोलकाता के बिग्रेड परेड मैदान में सीएम ममता बनर्जी की रैली ने राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकार्यता बढ़ा दी है। ममता बनर्जी का यह कहना कि जिस प्रदेश में जो मजबूत है, वो वहां से भाजपा के विरोध में चुनाव लड़ेगा, कांग्रेस को महागठबंधन में मात देनेवाली रणनीति प्रलक्षित होती है। पहले ही उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को किनारे कर गठबंधन कर लिया है। राष्ट्रीय जनता दल के कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव ने सपा-बसपा को बिहार में प्रत्याशी देने का आफर देकर कांग्रेस को सकते में डाल दिया है। हालांकि सपा-बसपा ने बिहार में कैंडिडेट देने संबंधी आफर की पुष्टि नहीं की है। वहीं, कांग्रेस ने बिहार में राजद को अपने हिस्से की सीटें देने की नसीहत दे डाली।
कोलकाता की महारैली ने विपक्षी एकजुटता का संकेत तो दे गई और नरेंद्र मोदी नीत भाजपा सरकार के सामने चुनौती पेश कर गई, लेकिन यह मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के लिए शुभ संकेत है या नहीं, अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, मगर लक्षण अच्छे नगीं दिख रहे। दरअसल मोदी विरोधियों में एकजुटता की कवायद के बीच महागठबंधन में अंदरूनी खींचतान और ज्यादा तेज हो गई है।
महागठबंधन के नेता बनने को लेकर कांग्रेस के साथ साथ तृणमूल और बसपा भी अपनी दावेदारी की ताल ठोंकने लगी हैं। संभवतः लोकसभा चुनाव से पहले ही यह साबित करने की कोशिश होने लगी है कि सबसे ज्यादा स्वीकार्य नेतृत्व उनके पास है। और यही कारण है कि इनमें से किसी भी दल की ओर से अब तक किसी की प्रधानमंत्री दावेदारी पर मुहर नहीं लगाई गई है।
कोलकाता के ब्रिगेड मैदान की रैली में ममता बनर्जी ने भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर लाने में अधिक उत्साह दिखाया। और वह इसमें कामयाब भी रहीं। खासकर पांच माह पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बुलाई गई विपक्षी दलों की रैली से कई मामलों में यह दमदार और अलग रही। दरअसल कांग्रेस की सभा में ममता, अखिलेश, मायावती, केजरीवाल समेत कई अन्य बड़े नेताओं ने शिरकत नहीं की थी। उसका नेतृत्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया था। ममता ने मोदी विरोध के लिए थोड़ा दमदार तरीके से हौसला और दिखाया। इसमें सपा अध्यक्ष अखिलेश समेत कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और दिल्ली के मुख्यमंत्री के अलावा राकांपा नेता शरद पवार जैसे दिग्गज व द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन भी मंच पर आये। कश्मीर से फारूख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला के अलावा चौधरी अजीत सिंह और जयंत चौधरी भी आये। भाजपा में नाराज चल रहे उसके सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और पूर्व नेता यशवंत सिन्हा ने ममता बनर्जी के मंच पर शिरकत कर सबको चौंका दिया।
एक प्रकार से ममता बनर्जी कांग्रेस को यह दिखाने में सफल रहीं कि उनका ममत्व किसी के नेतृत्व से ज्यादा बड़ा है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह सपा और बसपा ने कांग्रेस को किनारे किया, उसके बाद ममता के इस शक्ति प्रदर्शन का असर सीटों के बंटवारे पर होना लाजमी है। इसी का संकेत ममता ने यह कह कर दिया कि जो जहां मजबूत है, वहीं भाजपा के विरोध में लड़ेगा।
मायावती और अखिलेश का बार-बार यह कहना कि जिसके पास अधिक संख्या बल होगा, वो ही प्रधानमंत्री बनेगा, साफ संकेत करता है कि विपक्ष के सर्वमान्य नेता कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी नहीं हैं।
दरअसल उत्तर प्रदेश के हालिया उपचुनावों में सपा-बसपा की मिली सफलता ने उन्हें कुल 80 लोकसभा सीटों में अधिक सीटें जीतने का हौसला दे दिया है। बसपा-सपा गठबंधन में रालोद को शामिल करने की कोशिश से मायावती यह साबित कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी बड़ी है। मायावती अकेली ऐसी राजनेता हैं, जिसके पास बाकी सभी नेता आते हैं, पर वह खुद कहीं नहीं जाती हैं। दूसरी ओर ममता की तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले पूरे देश में उनकी पार्टी का जनाधार है और छोटे स्तर पर ही सही, वह इसका दावा कर सकती हैं। दलित जनाधार वाले पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भी वह साथी दलों को समर्थन देकर अपने पक्ष में कर सकती हैं।
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अब लोकसभा चुनाव के बमुश्किल ढाई माह रह गये हैं। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को महागठबंधन के अंदर पनपती महत्वकांक्षा पर लगाम लगना मुश्किल लगता है। बिहार में महगठबंधन में सीट शेयरिंग से इसके कुछ संकेत पटल पर जरूर आयेंगे।