विश्लेषण
नयी दिल्ली। कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में में हुई विपक्षी दलों की रैली का फलाफल लोग अपने-अपने अंदाज से आंकने लगे हैं। विपक्ष का इतना बड़ा जमावड़ा शायद ही हाल के वर्षों में हुआ हो। क्या नेताओं के इस जमावड़े और जुटी अपार भीड़ को विपक्ष की सत्ता पक्ष पर भारी पड़ती ताकत के रूप में देखना चाहिए। यह सवाल इसलिए वाजिब लगता है कि पिछले अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। अगर विपक्ष के गठबंधन ने सरकार बना भी ली तो उसका हस्र क्या होगा, यह अतीत के अनुभव साफ कर देते हैं। इसे समझने के लिए अतीत के ऐसे गठबंधनों की कामयाबी और नाकामी पर भी ध्यान देना जरूरी है। वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी इसमें किसी शुभ का लक्षण नहीं पाते हैं। उन्होंने सिलसिलेवार गिनाया है कि पहले जो गठबंधन की सरकारें बनीं, वे किस गति को प्राप्त हुईं। उनका कहना है कि पहली बार 1967 में नौ राज्यों में गठबंधन की सरकारें बनीं। इंदिरा हटाओ या कांग्रेस हराओ के नाम पर हुए गठबंधन की सरकारें बमुश्किल ढाई साल ही चल पाईं। कुछ ही दिनों में देश में राजनीतिक भूचाल आ गया।
दूसरी बार इंदिरा हटाओ के निहायत व्यक्ति केंद्रित राजनीति के विरोध में 1977 में गठबंधन बना, लेकिन ढाई साल में दो सरकारें ही चल पाईं। मोरार जी सवा दो साल चले और चौधरी चरण सिंह तो संसद का सामना भी नहीं कर पाए। इमरजेंसी की कोख से विपक्षी एकता का जन्म हुआ था और जनता पार्टी के बैनर तले चुनाव हुए थे।
1989 में तीसरी बार राजीव हटाओ और बोफोर्स घोटाले के खिलाफ विपक्षी दलों का गठबंधन बना, लेकिन वीपी सिंह सिर्फ 11 महीने और चंद्रशेखर सिर्फ चार महीने ही देश की कमान संभाल पाए। एक दूसरे की टांग खिंचाई में ही गठबंधन के घटक दलों के नेता लगे रहे। 1996 में सांसद खरीद कांड, हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाले के आलोक में नरसिंह राव हटाओ अभियान के तहत गठबंधन बना। सत्ता आई भी, लेकिन महज ढाई साल ही सरकारें चल पाईं। ढाई साल की सरकार का कार्यकाल देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल ने बांट लिया।
यह भी पढ़ेंः बिहार का छोरा ले आया बुल्गारिया की बहू, रचाई शादी
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। महज 13 महीने में ही गिर गई। इसलिए यह कहना कि राजग या संप्रग जैसे गठबंधन बना कर सरकार पूरे पांच साल तक किसी एक के नेतृत्व में चला पाना किसी के लिए अब तक संभव नहीं हुआ है। इसे अपवाद कह सकते हैं कि अगली बार चुन कर आई तो उसने अपना कार्यकाल पूरा किया।
यह भी पढ़ेंः नीतीश ने भाजपा को फिर दिया झटका, एनएचआरसी का विरोध करेंगे
मनमोहन सिंह की अगुआई में भी दो कार्यकाल तक गठबंधन की सरकारें चलीं। ये सरकारें स्थिर तो रहीं, लेकिन देश में भ्रष्टाचार को लेकर जो माहौल बना, वह जबर्दस्त रहा। तमाम तरह के घोटाले इस सरकार के कार्यकाल के दौरान सामने आये। इन्हीं घोटालों से खुन्नस खायी जनता ने उसे उखाड़ फेंका।
यह भी पढ़ेंः ममता के मंच से विपक्ष की हुंकार, 20 दलों के नेता मंच पर दिखे
भोजपुरी में कहावत है, ढेर जोगी, मठ के उजाड़। कुछ इसी अंदाज में गठबंधन की सरकारों की नाकामी की एक ही वजह रही- व्यक्तित्वों का टकराव। इस बार भी कोलकाता में विपक्षी पार्टियों की जैसी गोलबंदी दिखी, उसमें ज्यादा जोगी ही दिखे। मठ एक है और इतने सारे जोगी मठाधीशी के दावेदार हैं।
यह भी पढ़ेंः लोकसभा चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले की बन रही संभावना
यह भी पढ़ेंः भाजपा में मची भगदड़, पहले शत्रुघ्न व कीर्ति बागी बने, अब उदय सिंह