ओमप्रकाश अश्क की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर का एक अंश
कोलकाता में एक चैरिटी अस्पताल है- आनंदलोक। चलता तो है एक ट्रस्ट के तहत, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसके सर्वेसर्वा है देव कुमार सर्राफ। आम लोगों की जुबान पर यह नाम संक्षिप्त होकर डीके सराफ हो गया है। कोलकाता में रहते उनसे घरेलू रिश्ता बन गया था। कई बार उन्होंने अपनी पीड़ा जाहिर की। उनका कहना था कि वे अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन अपने कामों को बताने के लिए उन्हें अखबारों में इश्तेहार का सहारा लेना पड़ता है। गरीब लड़कियों की शादी कराते हैं, सुनामी के वक्त उजड़े लोगों के लिए मकान बनवाये, बाजार से एक चौथाई पैसे पर हार्ट की बाईपास सर्जरी (यह सन् 2000-2006 की बात है) अपने अस्पताल में कराते हैं। बंगाल के ही एक इलाके रानीगंज में बड़ा अस्पताल बनवाया। झारखंड में भी अस्पताल खोलने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री से मुलाकात की थी। सच में आश्चर्य होता है कि अकेले अपने दमम पर इतने काम के बावजूद उन्हें वाजिब पहचान क्यों नहीं मिली।
डीके सराफ और उनके अस्पताल आनंदलोक का जिक्र प्रसंगवश आ गया। दरअसल कहना दूसरी बात चाहता हूं। प्रभात खबर कोलकाता में रहते हुए एक विचित्र अनुभव हुआ। दैनिक जागरण का संस्करण वहां से शुरू होना था। मेरे कई साथी एक साथ छोड़ कर अचानक चले गये। उन्हीं में रिपोर्टिंग के एक साथी भी थे। फिलहाल वह प्रभात खबर में ही हैं। जान-बूझ कर नाम नहीं दे रहा हूं।
जिस दिन उन्होंने प्रभात खबर छोड़ा, उसके दूसरे-तीसरे दिन ही उनके पेट में भीषण दर्द हुआ। डाक्टर से दिखाया तो उसने गाल ब्लाडर स्टोन या ऐसी ही कोई बीमारी बतायी। डाक्टर की सलाह थी कि तुरंत आपरेशन करा लें, वर्ना यह कभी भी फट सकता है। वे परेशान हुए। घर में कमाऊ पूत अकेले। मां-पिता और बहन देखरेख उनके ही जिम्मे। उम्र बढ़ने के कारण पिता से भाग-दौड़ या किसी तरह के सहयोग की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
दफ्तर से अमूमन मैं रात 11 बजे तक घर लौट आता था। घर आकर कपड़े बदले और जब तक पत्नी खाना ले आतीं, तब तक तीसरे तल्ले के अपने फ्लैट की बालकनी में हवाखोरी के लिए बैठ गया। इतने में मोबाइल की घंटी बजी। देखा, यह फोन उसी साथी का है, जो दो दिन पहले मुझसे मुंह मोड़ चला गया था। अनुमान लगाया कि शायद वह लौटना चाह रहा है, इसलिए इतनी रात को फोन किया होगा।
खैर, फोन उठाया तो उधर से रुंधी आवाज में उसने कहा- भैया, लगता है मैं नहीं बचूंगा। पूछने पर उसने पेट दर्द की बीमारी और डाक्टर की सलाह की जानकारी दी। मैंने कहा, घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा। मैं हूं ना। उसने कहा कि पैसे भी नहीं हैं। इसके लिए भी मैंने आश्वस्त किया कि सारा इंतजाम हो जाएगा। कोशिश करूंगा कि कल ही एडमिट करा दूं। ढांढ़स-दिलासा के शब्द किसी कारगर औषधि से कम नहीं होते।
अगले दिन अपने एक साथी पुरुषोत्तम तिवारी, जो मूल रूप से शिक्षक हैं, लेकिन प्रभात खबर के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं, से कहा कि आनंदलोक में डा. रामपुरिया जी से बात कर लीजिए। रामपुरिया गाल ब्लाडर आपरेशन के एक्सपर्ट माने जाते हैं। उनकी पत्नी रजनी सर्राफ आंखों की डाक्टर हैं। समाज सेवा में भी रुचि रखती हैं। इस नाते रजनी-रामपुरिया परिवार पर कभी खबर बनवायी थी। पुरुषोत्तम ने उनसे बात की तो वे उस दिन बाहर थे। उन्होंने कहाल कि एडमिट करा दीजिए, कल मैं सुबह एयरपोर्ट से सीधे अस्पताल ही जाऊंगा।
मेरे सामने दो समस्या थी। अव्वल तो कुछ पैसे का इंतजाम करना और डीके सराफ से आपरेशन खर्च में कुछ छूट दिलवाने के लिए बात करना। तब वह आपरेशन उनके अस्पताल में 10-12 हजार रुपये में होता था और दूसरे अस्पतालों में 18-20 हजार लगते थे। सराफ जी से मैंने फोन पर मदद मांगी तो उनका रटा-रटाया जवाब था- मुझसे पैसा ले लीजिए और कहीं से अलीगढ़ का ताला खरीद लाइए। अस्पताल के गेट पर लगा दीजिए। वैसे ही मेरे अस्पताल का रेट दूसरे अस्पतालों से कम है और आप इसमें भी छूट मांग रहे हैं। उनके इस तरह के जवाब से मैं वाकिफ था। पहले भी कई सिफारिशें पैसे कम करने को लेकर की थीं। पैसा भी उन्होंने कम किया था, लेकिन पहले यह जवाब जरूर सुनाते थे।
अब पैसे का बंदोबस्त कहां से करूं, यह सवाल खड़ा था। समाजसेवी भूमिका में कई लोगों से मैंने मदद करायी थी। एक पालीटिशियन सुदीप बंद्योपाध्याय, जो तृणमूल कांग्रेस के फिलवक्त सांसद हैं, अक्सर मेरे पास आया करते थे और घंटों बैठते थे। उनसे सामाजिक आयोजनों में अमूमन मुलाकात होती रहती थी। इसलिए उनसे हम थोड़ा खुले हुए थे। संयोगवश उस वक्त वे मेरे पास आये। मैंने सीधे समस्या बतायी और कहा- दादा, किसी से मदद करा दें। उन्होंने खुद कुछ रुपये दिये। कितने थे, ठीक-ठीक याद नहीं।
अगले दिन आपरेशन होना था। उसे गाउन पहना कर आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया। मैं भी उस साथी के आपरेशन के वक्त मौजूद रहना चाहता था, लेकिन डा. रामपुरिया की फ्लाइट थोड़ी देर से पहुंची तो मैं दफ्तर लौट गया, लेकिन पुरुषोत्तम तिवारी को वहां रहने के लिए छोड़ दिया। डाक्टर आये और आपरेशन थियेटर में पहुंचे मरीजों की जांच रिपोर्ट देखनी शुरू की। बाकी तो लगभग उन्हीं के मरीज थे, एक मेरा साथी ही नया मरीज था। उसकी रिपोर्ट देखी और कहा कि आपका आपरेशन नहीं हो सकता। विस्तार से उस वक्त बताया नहीं, कहा- निकलते हैं तो बात करते हैं।
अब नयी मुसीबत थी। मेरे साथी ने फोन किया और बताया कि मुझे आपरेशन थियेटर से बाहर कर दिया। कहा कि आपरेशन थियेटर से निकल कर बताते हैं। इस बार भी वह परेशान था। मैंने फोन पर पता करने की कई बार कोशिश की तो हर बार यही बताया जाता कि अभी आपरेशन थियेटर में हैं। निकलते ही बताते हैं। वह निकले तो अस्पताल में ही काम करने वाले मेरे एक परिचित ने उनसे बात करायी। उन्होंने कहा कि आपरेशन की जरूरत नहीं है। एक आपरेशन में मुझे छह हजार मिलते हैं। इतने भर के लिए बेवजह मैं भेड़-बकरी की तरह उसका पेट कैसे फाड़ दूं। उसे गैस्ट्रो के एक डाक्टर के पास जाने की सलाह दी है।
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वहां जाने पर डाक्टर ने कुछ जांच के बाद हेपेटाइटिस बी के लक्षण पाये। फिर इलाज चला और आज वह साथी बिल्कुल ठीक है। हां, हेपेटाइटिस का नाम सुनते ही उसे आपरेशन से भी बड़ा डर लगा था। इसलिए कि उसके भाई की असमय मौत का कारण हेपेटाइटिस की ही बीमारी थी।
यह प्रसंग बताने के पीछे मेरा मकसद यह था कि मैं अपने इसी आचरण की बदौलत साथियों में सर्वस्वीकार्य था। जो मेरा साथ छोड़ कर चले गये, उन्हें भी मुझसे हमेशा उम्मीद रहती थी। जाने वाले साथियों को मैंने कभी नहीं रोका। दुखी भी नहीं हुआ। चुपके से चले गये साथी भी मेरे उतने ही आत्मीय रहे, जितना साथ काम करने वाले। दूसरे संस्थानों में जाने वाले साथियों को मैं अपना ब्रांड अंबेसडर मानता था।
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