पटना। BJP ने कस दी नीतीश की नकेल। आगे और भी उनकी राह मुश्किल हो सकती है। फिलवक्त उनके पास एनडीए में बने रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक सीट के आफर को ठुकरा कर उन्होंने भाजपा पर सीट बंटवारे की तरह दबाव बनाने की फिर कोशिश की, लेकिन भाजपा ने उनकी नहीं सुनी-मानी। सच तो यह है कि भाजपा को अब किसी सहयोगी के आगे झुकने की कोई जरूरत ही नहीं रह गयी है। अकेले बहुमत से अधिक सीटें हासिल कर भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि कोई साथ रहे या जाये, लेकिन वह किसी की शर्तों पर अब झुकने-चलने वाली नहीं।
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भाजपा को जिस कदर लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश ने अपने डंडे से हांका है, अगर उसका बदला उसी अंदाज में भाजपा ले तो कोई आश्चर्य नहीं। भाजपा को अपनी मर्जी के मुताबिक उन्होंने कई मौकों पर मजबूर किया है। पुरानी बातों को छोड़ भी दें तो ताजा कुछ घटनाएं ऐसी हैं, जो निश्चित ही भाजपा के लोगों को नागवार गुजरी होंगी।
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सबसे पहले तो उन्होंने लोकसभा सीटों के बंटवारे में भाजपा को अपनी जीतीं पांच सीटें छोड़ने पर मजबूर किया। राम मंदिर पर अध्यादेश टालने पर भाजपा को विवश किया। पूरे चुनाव के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह देश में घूम-घूम कर कहते रहे कि कश्मीर से धारा 370 और 35 ए खत्म करेंगे, लेकिन उन्होंने इसे गैरजरूरी बताया। यहां तक चुनाव परिणाम आने के बाद भी उन्होंने मीडिया के सामने कह दिया कि धारा 370 हटाने के वे खिलाफ हैं। इसी मुद्दे पर नीतीश ने अपनी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र तक जारी नहीं किया।
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नीतीश यह भूल गये कि महाराष्ट्र में भाजपा की सहयोगी शिवसेना के 18 सांसद हैं, लेकिन उसके एक आदमी को मंत्रिमंडल में जगह मिली। शिवसेना ने कोई चूं-चपड़ नहीं किया, लेकिन नीतीश 16 सदस्यों के बूते 2 सदस्यों को मंत्रिमंडल में जगह देने के लिए अपनी नाराजगी का इजहार कर दिया। बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन सबसे बढ़िया रहा और उसके 18 सांसद चुने गये। भाजपा को वहां अपनी जमीन पुख्ता करनी है, इसलिए कि 2021 में वहां विधानसभा के चुनाव होने हैं। फिर भी बंगाल के दो सदस्यों को ही मंत्रिमंडल में जगह मिली।
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भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरोध के नीतीश के कई कारनामे हैं। बिहार में बाढ़ राहत के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के नाते नरेंद्र मोदी ने जब राहत राशि भेजी तो नीतीश ने लौटा दिया था। भाजपा के साथ सरकार चलाने के बावजूद चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी का आगमन रोकने के लिए टांग अड़ा दी थी। जब 2014 में नरेंद्र मोदी को भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया तो नीतीश ने भाजपा से रिश्ता ही तोड़ लिया। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू जब साथ आये तो उन्होंने मोदी के बारे में क्या-क्या नहीं कहा। फिर उसी भाजपा के साथ उन्होंने तब रिश्ता जोड़ लिया, जब राजद को छोड़ना पड़ा।
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यह सामान्य समझ की बात है कि जिस भाजपा के बारे में उनके खयालात और आचरण इस तरह के रहे हैं, वह अपनी स्थिति मजबूत होने के बाद उन्हें कैसे बरदाश्त करेगी। नीतीश अगर टिके रहना चाहते हैं तो उन्हें भाजपा की शर्तों पर अब चलना होगा, न कि अपनी शर्तें भाजपा पर थोपनी पड़ेंगी।
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