पटना। बिहार में एक बार फिर सियासी खिचड़ी पक रही है। इस बार फर्क यही है कि विपक्ष पूरी तरह नीतीश को नेता मानने को तैयार है। चर्चा है कि नीतीश कुमार अगले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा से खुद अलग होंगे या भाजपा ही उन्हें किनारे कर अकेले चुनाव लड़ेगी। नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में सांकेतिक एक पद ठुकराने के बाद नीतीश ने तीसरे ही दिन राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार कर दिया। विस्तार की खास बात यह रही कि नये 8 मंत्रियों में भाजपा का कोई सदस्य शामिल नहीं हुआ। इसे भाजपा से नीतीश की खटास के रूप में पहला कदम माना जा रहा है।
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भाजपा-जदयू मनमुटाव के और भी कारण नजर आ रहे हैं। हिन्दस्तान अवामी मोर्चा (सेकुलर) के नेता जीतन राम मांझी बिना बुलाये रविवार को जदयू द्वारा आयोजित दावत-ए-इफ्तार में पहुंच गये। उनका स्वागत भी नीतीश कुमार ने गर्मजोशी से किया। सोमवार को मांझी ने दावत-ए-इफ्तार का आयोजन किया है, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शामिल होने की अपनी सहमति दे दी है।
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इधर भाजपा नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में नीतीश कुमार ने शामिल होने से परहेज किया। अलबत्ता लोक जनशक्ति पार्टी के लोग जरूर शामिल रहे। नीतीश ने तो लोजपा की इफ्तार पार्टी में जाने से ही मना कर दिया है। दिल्ली से शुरू हुई खटास ने अब पटना में रंग दिखाना शुरू कर दिया है।
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राजनीतिक विश्लेषक कन्हैया भेलारी मानते हैं कि राजनीति में इधर-उधर आना-जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। गुट-गिरोह बनाना भी पुरानी बात है। नीतीश बिहार के सर्वमान्य नेता हैं और विपक्ष के लोग उनकी छत्रछाया में आते हैं तो इसमें अटपटा कुछ नहीं। भाजपा ने उनके साथ जो सलूक किया है, उस हिसाब से वे अपनी रणनीति बनाते हैं तो कुछ बुरा नहीं होगा।
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कांग्रेस से नीतीश की नजदीकी की बात अब आम हो गयी है। राबड़ी देवी ने भी उनके प्रति नरम रुख अख्तियार कर लिया है। मुसलमानों को नीतीश से कोई नफरत नहीं है, सिवा भाजपा के साथ उनके सटने के। ऐसा माना जा रहा है कि नीतीश कुमार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में सांकेतिक एक पद देने का प्रस्ताव भाजपा का ट्रेलर है। विधानसभा चुनाव तक वह असली फिल्म भाजपा नीतीश को दिखा सकती है। शायद यही वजह है कि नीतीश अपनी ताकत बढ़ाने की जुगत में लग गये हैं।
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