- सुनील जयसवाल
एक देश, एक चुनाव पर इतना जोर क्यों दे रही सरकार, यह जानना जरूरी है। लोकसभा चुनाव 2019 सम्पन्न हुए एक माह से कुछ ही दिन अधिक हुए हैं। मंत्रिमंडल तय हो चुका है। संसद के पीठाध्यक्ष ओम बिड़ला का चयन हो चुका है। अब राष्ट्रपति रामनाथ के एक अभिभाषण के साथ संसदीय कार्य भी शुरू हो चुका है। उन्होंने पांच वर्ष में 350 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य रखा है। साथ ही उन्होंने “एक देश एक चुनाव” अभियान में विपक्षी दलों से सहयोग की अपील सरकार की ओर से की। इसी सत्र में पूर्णकालिक बजट पेश किया जाना है। 17वीं लोकसभा के सदन में संसदीय कार्य शुरू होने से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित भाई शाह ने एक देश एक चुनाव का एजेंडा एनडीए सांसदों के लिए तय कर दिया है। अब पूरी क़वायद 2024 तक इसके इर्दगिर्द घूमने वाली है। राम मंदिर, जम्मू-काश्मीर के लिए धारा 370 और 35ए पर जो कुछ निर्णय लेना है, सुप्रीम कोर्ट को लेना है। पाक सीमा, बीएसएफ और कश्मीर घाटी अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है।
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लोकसभा चुनाव के दौरान देश के 90 करोड़ मतदाताओं में से भाजपा समर्थित वोटर नया राष्ट्रवाद की घुट्टी पीकर अभी भी मस्त है। वर्ल्ड कप के शुरुआती मैच में भारत, पाकिस्तान को करारी शिकस्त दे चुका है। अब तय है कि फाइनल संभवतः इंग्लैंड के साथ खेला जाना है। अगला लोकसभा चुनाव अब 5 वर्ष बाद होना है। इसलिए फ़िलहाल तीन वर्षों तक आम जनता को भाइयों-बहनो संबोधन देने की जरूरत नहीं है।
2021 विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल, ममता विरोधी आंधी में वैसे ही आम के टिकोरे की तरह भाजपा की झोली में बस गिरने ही वाला है। 2020-22 तक तीन और राज्यों- हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। दो पर कब्ज़ा पक्का ही होगा। अब प्लानिंग 2024 के बाद की है। केंद्र में 2029 तक काबिज़ रहने की है। अगर प्लानिंग फिट बैठ गई तो रोका भी नहीं जा सकता।
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एक कमाल की बात यह कि मोदी-शाह जोड़ी जिस भरोसे के साथ देश में एक देश, एक चुनाव की नीति पर जोर लगा रही है, मानो सफलता तय है। किसी को भी इससे शायद ही इनकार होगा कि यदि यह जोड़ी इस सवाल का जवाब दे सके तो प्रमाणित भी हो जाएगा कि अभियान की सफलता निःसंदेह है। सवाल है हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य विधानसभा चुनाव को निधार्रित कार्यकाल से पूर्व 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ ही करा लिए जाने के सुझाव को मानने से क्यों इनकार कर दिया था? अगर सहमत हो जाते तो इसे मिसाल बना बाकी के राज्यों को भी मनाया जा सकता था।
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जाहिर-सी बात है कि जोड़ी की ओर से जवाब नहीं मिलेगा। क्योंकि नोटबंदी, जीएसटी, अयोध्या पर वादाखिलाफी, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, कालाधन वापसी, 15 लाख का जुमला देने के बाद भी जब महज सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक की उपलब्धि को राष्ट्रवाद से जोड़ कर 303 की आशातीत सफलता मिलती हो तो राज्यों के सरोकारों पर ठोस जवाब और चिंता की आशा बेमानी है।
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देखा जाए तो भारत में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाते रहे हैं। आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे। तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूटा गया।
वैसे वर्ष 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की सिफारिश की। इसके बाद वर्ष 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिपारिश की थी। तो फिर मोदी-शाह के सुझावों पर हाय-तौबा क्यों? “एक देश, एक चुनाव” का विरोध क्यों?
एक देश एक चुनाव के विरोध में विश्लेषकों का मानना है कि संविधान ने हमें जो संसदीय ढांचा प्रदान किया है, जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाएँ पाँच वर्षों के लिये चुनी जाती हैं, परन्तु एक साथ चुनाव कराने के प्रावधान को लेकर देश का संविधान मौन है। संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं, जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं। जैसे कि अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य राज्य बना सकती है। ऐसी स्थिति में यहां अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं। इसी प्रकार अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पाँच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
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इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के पार्टीगत राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलट-फेर होने से वहाँ दुबारा से चुनाव की संभावना बन जाती है। ये सारी परिस्थितियाँ एक देश एक चुनाव के सिद्धांत के बलकुल विपरीत हैं।
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एक देश एक चुनाव के विरोध में दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि यह विचार देश के संघीय ढाँचे के विपरीत है और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक साबित हो सकता है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ राज्यों के सत्ताधारी दल के मर्जी के खिलाफ उनके विधानसभाओं के कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। भारत का संघीय ढाँचा संसदीय शासन प्रणाली से प्रेरित है और संसदीय शासन प्रणाली में चुनावों की निरंतरता से इनकार नहीं किया जा सकता।
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एक देश एक चुनाव के विरोध में तीसरा तर्क यह है कि अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएं या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें। कारण यहकि लोकसभा के चुनाव जहाँ राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए होते हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिए होते हैं।
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इसके विरोध में चौथा तर्क यह है कि लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार उत्तरदायी बने रहना पड़ता है। इसके अलावा कोई भी राजनीतिक पार्टी या उसके नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता, क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है। विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो ऐसा होने की आशंका बढ़ जाएगी। विधानसभा या लोकसभा को मध्यावधि में भंग किया ही नहीं जा सकेगा।
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एक देश एक चुनाव के विरोध में पाँचवा तर्क यह दिया जाता है कि 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जहां 90 करोड़ मतदाता हों लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव को एक साथ कराया ही नहीं जा सकता। क्योंकि उस स्थिति चुनाव आयोग को बहुत बड़ी संख्या में वर्क फोर्स की जरूरत होगी। ईवीएम से लेकर उनकी सुरक्षा, रखरखाव के इसलिए काफी बड़ी बुनियादी सरंचना की जरूरतों को कैसे पूरा किया जाएगा।
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उपरोक्त विरोध में दिए जा रहे तर्कों से इतर इस अवधारणा के समर्थन प्रधानमंत्री मोदी जी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का सिर्फ इतना भर तर्क हैकि एकदेश एक चुनाव की लोकतांत्रिक व्यवस्था आ जाने से हजारों करोड़ रुपए के चुनावी खर्च को बचाया जा सकता है। इससे देश की अर्थव्यवस्था को सीधा लाभ मिलेगा। दूसरा लोकसभा और विधानसभा के अलग-अलग चुनावों में चुनाव आयोग को जो मानव संसाधन लगाने पड़ते हैं। उसमें बचत होगी और उसका उपयोग अन्य ढांचागत कार्यों में हो सकेगा। चुनावों में सुरक्षा व्यवस्था के लिए लगने वाले अर्द्धसैनिक बलों, राज्य पुलिस प्रशासन के कर्मियों के डिप्लॉयमेंट होने वाले करोड़ों रुपए के खर्च को बचाया जा सकेगा।
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तीसरा तर्क यह कि देश में मौजूदा चुनाव प्रणाली की वजह से हर वर्ष या दो वर्ष के अंतराल में किसी ना किसी राज्य में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव का सिलसिला लगातार जारी रहता है। इसकी वजह से लगने वाले चुनाव आचार संहिता की वजह से एक से दो महीने तक विकास कार्य प्रभवित होते हैं। इससे देश की जनता को राहत मिलेगी।
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वैसे देखा जाए तो एकदेश एक चुनाव की अवधारणा में कोई खामी नहीं है। विश्व के 50 लोकतांत्रिक देशों में यह व्यवस्था जारी है। वह सिर्फ इस वजह से की उन देशों में दो से अधिकतम 4 बड़ी राष्ट्रीय राजीतिक पार्टियां हैं। परन्तु भारत के संदर्भ में विचार करें तो यहां की संघीय व्यवस्था कई मायने में विश्व के उन देशों से काफी अलग है। हमारे देश में हर राज्य से दो से तीन राजनीतिक दल राष्ट्रीय पार्टियां हैं। भाजपा और कांग्रेस दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय दल हैं जिसके लाखों-करोड़ों समर्थित मतदाता भारत के हर राज्य में हैं। मगर उन्हें उन राज्यों की क्षेत्रीय परन्तु राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों से बड़ी व प्रभावकारी चुनौती मिलती है। जिनमें से कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, राजग से भाजपा को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ेगा।
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इसके साथ ही भारत विकासशील देश है। यहाँ के हर राज्य की अपनी अलग संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, भाषा-बोली, जातिगत समीकरण, धार्मिक मान्यताएं, भूगोल-इतिहास, साक्षरता प्रतिशत, आर्थिक स्थितियां, राजनीतिक परिस्थितियां, राज्य की समस्याएं, जन सरोकार, मुलभुत बुनियादी ढांचा आदि में काफी भिन्नताएं मौजूद हैं। जबकि राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को यही सारी परिस्थितियां और स्थितियां प्रभावित करती हैं। इन्हीं के इर्दगिर्द चुनाव लड़े व लड़वाएँ जाते हैं।
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अब सवाल उठता है कि मोदी-शाह की जोड़ी इन तमाम तरह की आशंकाओं और तर्कों के बावजूद एकदेश एक चुनाव की अवधारणा को किस जादुई व इंद्रजालिय शक्ति से अमलीजामा पहनाएंगे? देखना होगा। देश के तमाम बड़े राजनीतिक विश्लेषकों और संविधान विशेषज्ञों की मौजूदा विचार यही है कि निकट के दशक तक भारत में एकदेश एक चुनाव संभव नहीं है। इसके साथ ही अध्यक्षीय शासन व्यवस्था की कल्पना भी आकाश कुसुम है। यदि फिर भी प्रधानमंत्री यह तर्क रखतें हैं कि जब एकदेश एक कर प्रणाली यानि जीएसटी लागू किया जा सकता है, एक देश एक कानून, एक देश एक निशान की कोशिशों को बड़ा जन समर्थन मिल रहा है तो “एकदेश एक चुनाव ” क्यों नही। इसपर मेरा सिर्फ यह कहना है कि जीएसटी से लेकर राष्ट्रीय झंडे तक का मामला विधि व कानून के अंतर्गत आते हैं। इसके लिए बाध्य किया जा सकता है। सजा दी जा सकती है। मगर एकदेश एक चुनाव लोकतांत्रिक व संवैधानिक चुनावी व्यवस्था व प्रावधान हैं जिसकी संतुति को लेकर संविधान मौन है।
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