जयंती विशेष: बिहार के आरा के थे ‘आवारा’ व ‘श्री 420’ जैसी फिल्मों के गीतकार शैलेंद्र

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  • नवीन शर्मा

आरा (बिहार): प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र की जब हम बात करतें हैं तो हमारे ज़हन में उनकी रचनाएं घूमने लगती है। जैसे, ‘पान खाय सैंया हमार’, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’, ‘आवारा हूं’ इत्यादि और न जाने कितने सुपरहीट गीत। लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि गीतकार शैलेंद्र का बिहार से खास रिश्ता है।

बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था। उनका जन्म 30 अगस्त, 1921 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में हुआ था। वहां उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल (जो मूरी केंटोनमेंट एरिया में था) में ठेकेदार थे। शैलेन्द्र का अपने गांव से कोई ख़ास जुडाव नहीं रहा क्योंकि वे बचपन से अपने पिता के साथ पहले रावलपिंडी और फिर मथुरा में रहे। उनके गांव में ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर थे।

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रावलपिंडी वाया मथुरा वाया बंबई

पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेन्द्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गयीं कि उन्हें और उनके भाईयों को बीड़ी पीने पर मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये। इन सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद, शैलेन्द्र ने मथुरा से इंटर तक की पढ़ाई पूरी की। परिस्थितियों ने शैलेन्द्र की राह में कांटे बिछा रखे थे और एक वक्त ऐसा आया कि वे इकलौती बहन का इलाज नहीं करवा सके और उसकी मृत्यु हो गई।

किसी तरह पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने बम्बई जाने का फैसला किया। यह फैसला तब और कठोर हो गया जब उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कर कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि ‘अब ये लोग भी खेलेंगे।’ इससे खिन्न होकर उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। शैलेन्द्र को यह जातिवादी टिपण्णी गहरे तक चुभी।

बम्बई में उन्हें माटुंगा रेलवे कें मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।

राजकपूर की टीम में हुए शामिल

काम से छूटने के बाद वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ। उन्होंने सबसे पहले बरसात फिल्म के लिए दो गीत लिखे हमसे मिले तुम सजन बरसात में और पतली कमर है तिरछी नजर है। मुकेश के गाए ये दोनों गाने खूब चले। इसके बाद  वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र।

इस टीम ने कई फिल्मों आवारा, श्री 420, तीसरी कसम और संगम में बेहतरीन गीतों की सौगात दी है।

आवारा हूं गीत देश के बाहर भी लोकप्रिय हुआ

राज कपूर की सुपर हिट फिल्म आवारा का टाइटल सॉन्ग आवारा हूं भी शैलेंद्र की कलम का ही कमाल था। ये गीत देश के बाहर भी पसंद किया गया खासकर सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में। इसके अलावा मेरा जूता है जापानी गीत भी हिट हुआ था।

उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।

उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -”हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा हैष्। यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।

तीसरी कसम जैसी क्लासिकल फिल्म बनाई

शैलेंद्र ने निर्माता के रूप में साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ”मारे गए गुलफाम” पर आधारित ”तीसरी कसम” फिल्म बनायी। फिल्म की असफलता और आर्थिक तंगी ने उन्हें तोड़ दिया। वे गंभीर रूप से बीमार हो गये और आखिरकार 14 दिसंबर, 1967 को मात्र 46 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गयी। फिल्म की असफलता ने उन पर कर्ज का बोझ चढ़ा दिया था। इसके अलावा उन लोगों की बेरुखी से उन्हें गहरा धक्का लगा जिन्हें वे अपना समझते थे। अपने अन्तिम दिनों में वे शराब बहुत ज्यादा पीने लग गए थे

बाद में ‘तीसरी कसम’ को मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारत की आधिकारिक प्रविष्ठी होने का गौरव मिला और यह फिल्म पूरी दुनिया में सराही गयी। पर अफसोस शैलेन्द्र इस सफलता को देखने के लिए इस दुनिया में नहीं थे।

शैलेंद्र के गीतों में हमें जीवन को लेकर उनका नजरिया पता चलता है। उदाहरण के लिए हम उनका एक गीत ले सकते हैं।

‘किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार’

“जीना इसी का नाम है…”

भोजपुरी का इफेक्ट

कोई संजीदा कलाकार अपने जन्म स्थान या कहें पूर्वजों के निवास स्थान से परिस्थितियों के कारण भले दूर चला जाए लेकिन वो अपनी जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है और ये प्रयास उसकी रचनाओं और कृतित्व में साफ देखा जा सकता है। अब शैलेंद्र का ही उदाहरण लें तो पंजाब में जन्में फिर उप्र के मथुरा में पढ़ाई की और फिर बंबई चले गए। वे बिहार में नहीं रहे लेकिन अपने पूर्वजों की भूमि की सभ्यता व संस्कृति से उनका जुड़ाव बना रहा। यह लगवा उनके भोजपुरी भाषा में लिखे गीतों में साफ झलकता है।

  • ‘पान खाय सैंया हमार’,
  • ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’,
  •  ‘अब के बरस मोरे भैया को भेजो’,
  •  ‘चलत मुसाफिर मोह लियो पिंजरे वाली मुनिया’,
प्रेम के रंग

चोरी चोरी (1956) में ‘ये रात भीगी भीगी’ में अपने प्रेमी के साथ के लिए उठने वाली तड़प के मीठे दर्द का वर्णन कविता के जरिये शैलेंद्र से बेहतर कौन कर सकता था। इसी तरह श्री 420 (1955) का गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ प्रेमियों का पसंदीदा गीत रहा है।

गाइड के सुपर हिट गीतों के रचयिता

देव आनंद की गाइड (1965) फिल्म की सफलता में उसके लाजवाब गीतों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वहीदा रहमान पर फिल्माया गया गीत ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’  शैलेंद्र की कलम की जादूगिरी है। वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां में अलग  ही जीवन दर्शन है।

इस फिल्म के सारे गीत कमाल के हैं:

पिया तोसे नैना लागे रे

गाता रहे मेरा दिल

तेरे मेरे सपने अब एक ही रंग हैं

दिन ढल जाए रात ना

क्या से क्या हो गया

शैलेन्द्र को उनके गीतों के लिये तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

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