- राज्यवर्द्धन
तेरह वर्ष की आयु में गांधी जी का ब्याह कस्तूरबा से हुआ था। गांधी जी लिखते हैं-“हम भाइयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाला है। उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर-यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढ़िया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा कोई खास बात रही हो, इसका स्मरण नहीं।”
गाँधी जी अपने ब्याह के बारे में आगे लिखते हैं- “तब तो सब कुछ योग्य और मनपसन्द ही लगा था। ब्याहने का शौक था और पिता जी जो कर रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं, ऐसा लगता था।” गाँधी जी और बा मंडप में बैठे, सात फेरे लिए, कंसार खाया-खिलाया और तभी से वर-वधु के रूप में साथ रहने लगे।
गाँधी जी शादी के प्रथम दिवस को याद करते हुए लिखते है- “वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने मुझे सिखलाया था कि मुझे पहली रात में कैसा बर्ताव करना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं।” वे आगे लिखते हैं- “हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें कैसे करनी है, क्या करनी है, सो मैं नहीं जनता था।…और प्राप्त सिखावन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस सम्बन्ध में कुछ सीखना जरूरी होता है? जहाँ संस्कार बलवान है, वहाँ सिखावन सब गैर जरूरी बन जाती है। धीरे-धीरे हम एक दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी के उमर के थे। पर मैंने ‘पति की सत्ता’ चलाना शुरू कर दिया।”
जिन दिनों गाँधी जी का विवाह हुआ था, उन दिनों घर-गृहस्थी से सम्बन्धित छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकलती थीं, जिसमें दंपति-प्रेम, कम खर्ची, बाल-विवाह जैसे विषयों की चर्चा रहती थी। गाँधी जी के हाथ में यदि ये निबन्ध पुस्तिकाएँ आ जातीं तो वे इसे जरूर पढ़ते थे। गाँधी जी की आदत यह थी कि पढ़े हुए में से जो पसंद न आये, उसे भूल जाना और जो पसन्द आये उस पर अमल करना। उन्होंने किसी निबन्ध में पढ़ा था कि एक पत्नी व्रत का पालन करना पति का धर्म है। यह बात गाँधी जी के हृदय में बस गई।
इस बारे में गाँधी जी लिखते हैं- “सत्य का शौक तो था ही, इसलिए पत्नी को धोखा तो दे नहीं सकता था और यह बात भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। हालांकि छोटी उम्र में एक पत्नी व्रत के भंग होने की संभावना बहुत कम ही रहती है।” पर गाँधी जी को लगा कि यदि वे एक पत्नी-व्रत का पालन करते हैं तो पत्नी को भी एक पति-व्रत का पालन करना चाहिए।
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इस विचार के कारण गाँधी जी को यह लगने लगा कि उन्हें जानना ही चाहिए कि उनकी पत्नी कहाँ जाती है या उनकी अनुमति के बिना कहीं जा ही नही सकती है। गाँधी जी लिखते हैं- “यह चीज हमारे बीच दुःखद झगड़े की जड़ बन गयी। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करने वाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती, वहाँ मुझसे बिना पूछे जरूर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती और त्यों-त्यों मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बन्द होना एक मामूली चीज बन गयी।
कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ। जिस बालिका के मन में पाप नहीं है, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करे? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ तो मुझ पर क्यों न डाले। यह तो अब (आत्मकथा लिखते वक्त) समझ में आ रहा है। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था।”
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