- शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी हमेशा प्रयोगधर्मी रहे। तरह-तरह के प्रयोग उन्होंने किये। संवाद स्थापित करने की दिशा में तरह-तरह के प्रयोग महात्मा गांधी की विरासत का हिस्सा है। उनके जाने के बाद उसका प्रयोग बार-बार होता रहा। महात्मा गांधी के बाद के दो दशकों तक तो पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे बहुत सारे दिग्गज थे, जिन्होंने उनके काम को रिपोर्ट किया था, उनके जीवनकाल में उनके बारे में लिखा पढ़ा था, लेकिन सत्तर का दशक आते-आते राजनीति में भी और पत्रकारिता में भी महात्मा गांधी के साथ काम कर चुके लोग हाशिये पर जाने लगे थे।
राजनीति में भी और पत्रकारिता में भी सत्ता के केंद्र की चाटुकारिता का फैशन चल पड़ा था। इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा था और चापलूसी का फैशन राजनीतिक आचरण में प्रवेश कर चुका था। इमरजेंसी के बाद जेल से बाहर आये और जनता पार्टी के सूचना प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की बात उस वक़्त की मीडिया को रेखांकित भी कर देती है। इमरजेंसी में जब सेंसरशिप की बात हुई तो उन्होंने पत्रकारों से मुखातिब होकर कहा था कि आपसे स्थापित सत्ता की तरफ से झुकने को कहा गया था और आप रेंगने लगे थे (You were asked to bend but you started crawling)।
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गांधी के रास्ते से दूर हो रहे समाज और राजनीति के इसी दौर में इमरजेंसी लगी थी। लेकिन उसके पहले गांधी के चम्पारण के साथी बृजकिशोर बाबू के दामाद और गांधी के असली अनुयायी जयप्रकाश नारायण ने स्थापित सत्ता के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया था। उस आन्दोलन ने बिहार की सरज़मीन से देशव्यापी रूप पकड़ना शुरू किया था। आज के बिहार के बहुत सारे वरिष्ठ नेता उन दिनों छात्र थे। उन लोगों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन के हरावल दस्ते में शिरकत की थी। अठारह मार्च 1975 के दिन एक हज़ार आदमियों का जो जुलूस पटना की सड़कों पर निकला था, उसमें आज के हमारे मनीषी कुमार प्रशांत भी शामिल हुए थे। मैंने पटना में इंसानी बुलंदी के उस पर्व को नहीं देखा था, लेकिन करीब पांच साल पहले कुमार प्रशांत ने उस वक़्त के माहौल को कलमबंद करके जनसत्ता अखबार में छापा था। मेरा मन तो कहता है कि उनके पूरे लेख को ही यहाँ उद्धृत कर दूं। बहरहाल उसके कुछ अंश उद्धृत किये बिना अपनी बात नहीं कह पाऊंगा।
कुमार प्रशांत के उस कालजयी लेख की शुरुआती पंक्तियाँ देश के उस समय के माहौल को साफ़ बयान करती हैं। लिखते हैं, ” छब्बीस जून, 1975 वह तारीख है, जहां से भारतीय लोकतंत्र का इतिहास एक मोड़ लेता है। सत्ता की चालें-कुचालें थीं। सब ओर और सभी हतप्रभ थे, लेकिन कोई बोलता नहीं था। राजनीति चाटुकारों से और समाज गूंगों से पट गया था। 1973-74 में गुजरात में युवकों ने एक चिनगारी फूंक तो डाली थी, लेकिन वह रोशनी कम और आग ज्यादा फैला रही थी। बिहार में भी युवकों ने ही इस सन्नाटे को भेदने का काम किया था, लेकिन सन्नाटा टूटा कुछ इस तरह कि पहले से भी ज्यादा दमघोंटू सन्नाटा घिर आया! तब कायर चुप्पी थी, अब भयग्रस्त घिघियाहट भर थी। और ऐसे में उस बीमार, बूढ़े आदमी ने कमान संभाली थी। वर्तमान उसे कम जानता था, इतिहास उसे जयप्रकाश के नाम से पहचानता था और राष्ट्रकवि दिनकर उसके लिए यही गाते हुए इस दुनिया से विदा हुए थे: कहते हैं उसको जयप्रकाश, जो नहीं मरण से डरता है/ ज्वाला को बुझते देख कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है!
वैसा ही हुआ! वह मौत के बिस्तर से उठ कर, हम समझ पाए कि न समझ पाए, हमें साथ लेकर क्रांति-कुंड में कूद पड़ा। 18 मार्च को पटना की सड़कों पर बमुश्किल हजार लोग ही तो उतरे थे। हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर पट्टी बंधी थी। उन हजार लोगों ने भी अपना-अपना शपथपत्र भरा था, जिसकी पूरी जांच जयप्रकाश ने की थी। पहली लक्ष्मण-रेखा तो यही खींची थी उन्होंने कि आपका संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं होना चाहिए। तो कांग्रेसी सत्ता की अपनी कुर्सी से और विपक्षी विपक्ष की अपनी कुर्सी से बंध कर रह गए थे। पटना शहर की मुख्य सड़कों से गुजर कर, सत्ता की हेकड़ी और प्रशासन की अकड़ को जमींदोज कर, कोई तीन घंटे बाद जब क्षुब्ध ह्रदय है/ बंद जबान की तख्ती घुमा कर हम सभी जमा हुए तो मुंह पर बांधी अपनी पट्टी खोल कर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु लंबे समय तक खामोश ही रह गए। मैंने पानी का गिलास लेकर कंधा छुआ तो कुछ देर मुझे देखते ही रहे, फिर बोले: प्रशांतजी, ऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! और खामोशी में लिपटा वह निनाद अगले ही दिन जिस गड़गड़ाहट के साथ फटा, क्या उसकी कल्पना थी किसी को! मतलब तो क्या पता होता, जिस शब्द से भी किसी का परिचय नहीं था, वह क्रांति शब्द- संपूर्ण क्रांति- सारे माहौल में गूंज उठा। उस वृद्ध जयप्रकाश नारायण ने न जाने कौन-सी बिजली दौड़ा दी थी कि सब ओर रोशनी छिटकने लगी थी।´”
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